व्यंग्य लेखक : रमेश जोशी
सीकर (राजस्थान)
प्रधान सम्पादक, 'विश्वा', अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, यू.एस.ए.
www.daylife.page
लोकतंत्र के कारण सेवा एक बहुत लाभप्रद धंधा बन गया है। इसलिए जिताऊ उम्मीदवार के चक्कर में गुंडों, लफंडरियों, लम्पटों और अपराधियों की बन आई है। लोग कवियों और कलाकारों का लाख मजाक उड़ायें फिर भी इतना तो जानते और मानते हैं कि लोक से जुड़े कलाकारों की बात आज भी प्रभाव डालती है। बिहार में का बा और बी यू पी में का बा गर्ल नेहा सिंह सत्ता पक्ष की आँख की किरकिरी और विपक्ष की आँख का तारा बनी हुई है तो मानिये कि कविता में दम है। कविता की इसी शक्ति को व्यापार से लेकर प्रचार तक सभी क्षेत्रों में काम में लिया जाता है. राजनीति में भी सांप्रदायिक समभाव फ़ैलाने के लिए भी कविता का ही सहारा लिया जाता है जैसे- गोलों मारो सालों को।
तोताराम भी अपनी अभिव्यक्ति में कविता की इसी शक्ति का उपयोग करता है। पिछले दिनों-साड़ी का ऐसा अपमान, नहीं सहेगा हिंदुस्तान।
आज फिर गलाफाडू स्वर में एक काव्यमय नारा लगाता हुआ प्रकट हुआ-
रोक दो, टोक दो
नहीं माने तो ठोक दो।
हमने पूछा- क्या बात है? कौन सा ग़दर मचा हुआ है। देश में लोकतंत्र है। जनता द्वारा चुनी गई पूर्ण बहुमत की राष्ट्रप्रेमी सरकार है। ऐसे में ठोकने की क्या नौबत आ गई? वैसे यह महान मन्त्र, ईश्वरीय ऋचा किस ऋषि के कानों में श्रुत हुई?
बोला- इस विश्वगुरु और वेदों के देश में ऋषियों क्या कमी है। देख नहीं रहे जगह-जगह धर्म संसदें आयोजित हो रही हैं। ऐसी ही एक धर्म संसद अभी जनवरी 2022 में मोदी जी के चुनाव क्षेत्र और भोले बाबा की नगरी में आयोजित हुई थी जिसमें मुख्यअतिथि के रूप में बोलते हुए जगतगुरु शंकराचार्य नरेंद्रानंद सरस्वती ने कहा कि हम अपने देवी-देवताओं से शिक्षा ग्रहण कर अपने हाथों में अस्त्र शस्त्र धारण करें। उन्होंने यहां तक कह दिया कि रोको, टोको और ना मानने पर ठोक दो।
हमने कहा- यह तो संतों की भाषा नहीं है। संत तो समस्त सृष्टि में शांति, प्रेम और सद्भाव चाहते हैं। हम एक सामान्य घर-गृहस्थी वाले, कानून-कायदे को मानने वाले सामान्य आदमी हैं। यह मारा-कूटी हमारे वश की नहीं है. इन संतों की बात और हैं। इन्हें न नौकरी करनी, न घर-परिवार संभालना, न महंगाई का असर ने बेरोजगारी की फ़िक्र। ऊपर से आदर-सम्मान और तर माल खाने को. ऐसे में जोश,क्रोध, मार-कूट के विचार ही आयेंगे। सभी धर्म का धंधा करने वालों और साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वालों को दिन में चार घंटे मेहनत-मजदूरी करना ज़रूरी करावा दो, फिर देखो। अब जो केवल चार घंटे सोकर दिन में 20-20 घंटे सेवा करने की डींगें मारते हैं वे आठ घंटे सोने लग जायेंगे। तब देखना जनता भी चैन की नींद सोने लग जायेगी।
बोला- तो क्या हम धर्म के लिए कुछ भी नहीं कर सकते?
हमने कहा- पहले तो यह समझ लो। ऐसे ज़हरीले नारे देने वाले धर्मी नहीं होते.और जहां तक करने की बात है तो तुम कुछ कर क्यों नहीं सकते। तुम समाज में भेद और शत्रुता फ़ैलाने वाले, किसी भी धर्म में मौलवियों, पादरियों; साधुओं के वेश में छुपे मानवता के ऐसे शत्रुओं की बातों पर ध्यान ही मत दो, इनके कार्यक्रमों में जाओ मत, इनकी जय-जयकार मत करो, चंदा-चिट्ठा मत दो।
बोला- तो यदि हम इन पर ध्यान देना छोड़ दें तो क्या देश-दुनिया में सब कुछ ठीक हो जाएगा।
हमने कहा- असर तो पड़ेगा. वैसे इनको रोकने की ज़िम्मेदारी तो सरकारों की है जो समानता, सत्य, न्याय और निष्पक्षता वाले संविधान की शपथ लेकर कुर्सी पर बैठती है। लेकिन जब वे ही इन संतों के पैर छूटे हैं, इनके कार्यक्रमों में जाते हैं, तो इनका हौसला बढ़ता है। यदि सरकार की मौ सहमति नहीं है तो मोदी जी, योगी जी, शिवराज सिंह, धामी आदि इन्हें एक शब्द भी कहते क्यों नहीं।
अभी देखा नहीं, राम-रहीम को लम्बी पैरोल दे दी, मोदी जी राधा स्वामी सत्संग व्यास में बाकायदा झंडा उठाकर प्रवेश कर रहे हैं, मत्था टेक रहे हैं तो फिर संकेत और मन्तव्य स्पष्ट है। हमें तो लगता है ये सब धर्म-संसदें भी सरकार द्वारा समर्थित हैं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपनी व्यंग्यात्मक शैली है)