केरल से उठी आवाज़ राज्यपाल का पद समाप्त हो !

लेखक : लोकपाल सेठी

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक सलाहकार हैं)

www.daylife.page 

भगवान का अपना देश कहे जाने वाले केरल में सत्तारूढ़ वाम मोर्चे की सरकार  और राज्य के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच टकराव इतना अधिक बढ़ गया है कि मुख्यमंत्री विजय पिनराई ने अपने मंत्रिमंडल में एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र को कहा है कि या तो संविधान में संशोधन कर देश में राज्यपालों का पद समाप्त कर दिया जाये। ये नहीं तो कम से कम उनके अधिकार घटा दिए जायें। इसके साथ यह भी मांग की है कि राज्यों को विधानसभायों को यह अधिकार हो कि वे बहुमत से राज्यों के राज्यपालों को हटा सकें।

जब से केंद्र की एनडीएफ सरकार ने आरिफ मोहम्मद खान को केरल, जहाँ पिछले साल वाममोर्चा लगातार दूसरी बार सत्ता में आया था। तब से सरकार और राज्यपाल के बीच छोटी-छोटी बातो पर मतभेद की स्थिति बनती रही है। खान साहब का कहना है कि वे चाहते है कि राज्य की वाम सरकार संविधान के अनुसार चले। इसलिए उन्होंने कई मौकों पर राज्य सरकार द्वारा दिए गए प्रस्तावों और सुझावों को ठुकरा दिया क्योंकि वे कानून सम्मत नहीं थे। 

वाम सरकार के नेताओं का कहना है की संविधान के अनुसार राज्यपाल, राज्य मंत्रिमंडल के निर्णयों पर अपनी सम्मति देने के लिए बाध्य है। लेकिन एक से अधिक मौकों पर खान साहब ने राज्य सरकार के कुछ निर्णयों पर अपनी सहमति देने को इस आधार पर खरिज कर दिया क्योंकि वे संविधान सम्मत नहीं थे.  वाम सरकार का कहना है कि राज्यपाल अपने सैवंधानिक अधिकारों के परे जाकर केंद्र में एनडीए  सरकार के इशारों पर काम कर रहें है। वे सरकार के ऐसे निर्णयों को भी रोक रहे है जो पूरी तरह से संविधान सम्मत है। 

संविधान और कानून के विशेषज्ञों का कहना है कि मोटे तौर पर राज्यपाल का पद मात्र  सज्जा वाला पद है। संविधान के निर्माताओं ने इस बात का पुख्ता किया था कि केंद्र में राष्ट्रपति तथा राज्यों में राज्यपाल  केंद्र और राज्य सरकारों के निर्णयों पर सहमति देने में कोई आना कानी नहीं कर सकें हैं। कुछ कुछ निर्णयों पर अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकते है तथा पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद ही अपनी मोहर लगा सकते हैं। 

अन्य अधिकारों के अलावा राज्यपाल, राज्यों के विश्विद्यालयों में कुलपतियों अथवा उप कुलपतिओं की नियुक्तियों का अधिकार है। कुछ दशक पहले तक  राज्यपाल अपने प्रदेश की सरकारों द्वारा तय किये गए लोगों को ही कुलपति नियुक्त करते रहे है। लेकिन  हाल के वर्षो में कुछ राज्यों का राज्यपालों  ने  कुलपतिओं के नियुक्तियों में अपना दवाब बनाने की कोशिश की। कई मामलों में राज्य विधान सभाओं  द्वारा पारित विधेयकों को कानून का दर्ज़ा देने  या तो  लौटा दिया या फिर उन पर कुंडली मार कर बैठे रहे। कई मामलों में यह भी हुआ कि विधेयक को सहमति देने की बजाये उसे राष्ट्रपति के पास इस आधार पर भेज दिया कि केंद्र सरकार के अनुमति जरूरी है।

अब फिर वापिस केरल पर आते है। कुछ माह पूर्व राज्य सरकार ने एक कुलपति की पुनर्नियुक्ति का प्रस्ताव राज्यपाल को भेजा था। लेकिन उन्होंने यह कह कर  खारिज कर दिया कि कानून के प्रावधानों के अनुसार एक आयु सीमा के बाद वाले किसी व्यक्ति को कुलपति नियुक्त नहीं किया जा सकता। जब उन पर लगातार दवाब बनाया जाता रहा तो एक दिन खान साहब ने सार्वजनिक रूप से यहाँ तक कह डाला कि कुलाधिपति के रूप में वे किसी भी हालत में अपने हस्ताक्षर नहीं करेंगे। राज्य सरकार चाहे तो विधान सभा प्रस्ताव पारित कर उनको राज्यपाल के पद से हटा सकती है।

अभी यह मामला सुलझा ही नहीं था कि राज्यपाल ने मंत्रियों के निजी सचिवों को सेवाकाल के बाद पेंशन दिए जाने के प्रस्ताव पर अपनी सहमति देने से इंकार कर दिया। सामान्य तौर केंद्र तथा राज्यों में मंत्रियों को सरकारी सचिव के अलावा एक निजी सचिव नियुक्त किये जाने का अधिकार है। ऐसे निजी सचिव या तो मंत्री की पार्टी के लोग होते है या फिर मंत्री के बहुत करीबी। नियमों के अनुसार मंत्री के पद से हटने का साथ स्वतः ही ऐसे निजी सचिवों की सेवायें  खत्म हो जाती है। नियमों के अनुसार ऐसे निजी सचिवों का सेवाकाल के बाद पेंशन जैसे किसी प्रकार के वित्तीय लाभ नहीं मिलते। चूँकि केरल मंत्रियों के निजी सचिव पार्टी कार्यकर्ता ही है इसलिए वाम सरकार उनको सेवाकाल ले बाद स्थाई रूप से पेंशन देने का इंतजाम करना चाहती है। 

इन दोनों मुद्दों पर राज्यपाल की सहमति ने मिलने के बाद वाम सरकार ने उन पर दवाब बनाने के लिए आक्रामक रुख अख्तियार किया तथा राज्यपाल का पद खत्म किये अथवा उनकी अधिकार सीमित किये जाने संबधी प्रस्ताव केंद्र के पास भेजा है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)