विधान सभा चुनाव अब परिणाम की बारी : एक आकलन

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव 

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देश में गत महीनों से पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव के प्रचार अभियान का दौर अब खत्म हो गया है और अब 10 मार्च को परिणाम आना बाकी है। वैसे यह विधान सभा चुनाव देश के उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा और मणीपुर इन पांच राज्यों में हो रहे हैं। इनमें पंजाब को छोड़कर जहां कांग्रेस की सरकार है, सभी चार राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं। जाहिर है इन चुनावों में जो दल जहां जहां यानी जिन राज्यों में सरकारों पर काबिज हैं, वहां-वहां उन्होंने अपनी स्थिति बरकरार बनाये रखने की जी-तोड़ कोशिश की है। इस दिशा में उन्होंने उन राज्यों में वहां की विभिन्न जातियों, जिनका मत प्रतिशत और आबादी के हिसाब से खासा असर है, उनसे गठजोड़ भी किया है। इसमें दलबदल की भी अहम भूमिका रही है। इसमें खासकर पिछडे़ व अति पिछडे़ वर्ग के नेताओं का योगदान अहम रहा है।

यदि देश के सबसे बडे़ राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें, जो देश की राजनीति की धुरी माना जाता है, वहां सबसे ज्यादा दलबदल करने वालों में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की भूमिका अहम रही है। हां यहां इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इनमें अधिकांश वही नेता हैं जो 2017 के विधान सभा चुनाव से पहले दूसरे दलों को छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे और पूरे पांच साल भाजपा सरकार में मलाई खाकर यानी मंत्रिपद की सारी सुख-सुविधाएं भोगकर अब 2022 के विधान सभा चुनाव से पूर्व भाजपा को छोड़कर दूसरे दलों में शामिल हो गये। इन सभी को चुनाव पूर्व समाजवादी पार्टी में अपना भविष्य दिखा और उसके झंडे और डंडे के नीचे प्रदेश के सुखमय भविष्य को बनाने-संवारने की जोड़-जुगत में लग गये। विडम्बना यह कि ये सब उस समाजवादी पार्टी में गये  जिसको यह कभी गरियाते नहीं थकते थे । इसे यदि यूं कहें कि यह सपा को पानी पी पीकर कोसते थे तो कुछ गलत नहीं होगा। 

प्रदेश के इस विधान सभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में प्रदेश की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी, पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी, पूर्व मुख्यमंत्री मायावती नीतित बहुजन समाज पार्टी व अखिल भारतीय कांग्रेस में मुख्य संघर्ष रहा है। वैसे जानकारों की मानें तो राज्य में असल संघर्ष भाजपा और समाजवादी पार्टी में ही है। वैसे बहुजन समाज पार्टी भी अस्तित्व की लडा़ई लड़ रही है। हां राज्य में बसपा का वोट बैंक है, इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। यह भी सच है कि उसका वोट उसके अलावा कहीं जा ही नहीं सकता। कांग्रेस जरूर राज्य में दशकों से अपनी खोई हैसियत प्रियंका गांधी की अगुआई में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की पुरजोर कोशिश कर रही है। इसमें वह कितनी कारगर होगी, यह तो समय ही बतायेगा।

अब प्रमुख विपक्षी दल सपा को ही लें। इस चुनाव में सपा ने मुख्यतः जयंत चौधरी नीतित राष्ट्रीय लोकदल, महान दल, ओम प्रकाश राजभर, अपना दल के नेता रहे सोनेलाल की धर्म पत्नी कृष्णा पटेल और स्वामी प्रसाद मौर्य सहित भाजपा छोड़कर आये दारा सिंह चौहान आदि नेताओं को जोड़कर गठबंधन बनाया है। इस गठबंधन को राज्य में सत्ता का प्रबल दावेदार बताया जा रहा है। इस गठबंधन की खासियत यह है और जैसा कि दावा किया जा रहा है कि इसको राज्य में अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों का पूरा समर्थन मिल रहा है। फिर यादव जाति का समर्थन तो जगजाहिर है। कारण इसे वह अपने अस्तित्व से जोड़कर देख रही है। विरोधी भी सपा को यादवों की ही पार्टी मानते हैं। 

राष्ट्रीय लोकदल के साथ आने पर जाट, फिर स्वामी प्रसाद मौर्य, कृष्णा पटेल व ओमप्रकाश राजभर के साथ आने से सपा मौर्य कहें, काछी कहें या कुशवाहा, कुर्मी कहें या पटेल, राजभर व निषाद सहित पासी, खटीक, बिंद के अलावा छोटी- पिछडी़ जातियों के मतों के बल पर राज्य में सत्ता पाने का दावा कर रही है। कोरोना काल में सरकारी निष्क्रियता को भी भुनाने में भी किसी हदतक वह खुद को कामयाब पा रहे हैं। इसके साथ सपा को बेरोजगार नौजवानों का रोजगार व पुरानी पेंशन बहाली के नाम पर पेंशनरों के समर्थन का पूरा भरोसा है। चुनावी रैलियों में उमडी़ भीड़ भी सपा समर्थकों के दावों को बल प्रदान करने के लिए काफी है।

जहां तक बसपा यानी मायावती की पार्टी का सवाल है, उनको दलित वर्ग, उसमें भी खासकर जाटव वर्ग के मतदाताओं का तो समर्थन मिलना तय है। साथ ही जहां-जहां उन्होंने मुस्लिम उम्मीदवार उतारें हैं, उनको मुस्लिम वोट भी मिलेंगें,भले उनका प्रतिशत कम जरूर रहे, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। ब्राह्मण मतदाता ने बसपा का कितना साथ दिया, यह कहना मुश्किल है। अब रही कांग्रेस की बात, तो जितिन प्रसाद, आर पी एन सिंह सरीखे कुछ नेताओं के पार्टी से जाने का कुछ असर तो पडे़गा। लेकिन अजय सिंह लल्लू का नेतृत्व व प्रियंका गांधी का संघर्ष, 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' का कांग्रेस का नारा और 40 फीसदी महिलाओं को टिकट मतदादाओं को कहांतक अपने पक्ष में करने में कामयाब रहा है, यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन यह सच है कि प्रदेश में कांग्रेस अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में अवश्य कामयाब होगी।

अब प्रदेश की सत्ता पर काबिज भाजपा को लें, उसने भी केन्द्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल नीतित अपना दल एस, निषाद पार्टी आदि से चुनावी गठबंधन किया है। जाहिर है पटेलों जिन्हें कुर्मी कहें या सचान कहें या फिर कटियार और निषाद यानी मल्लाहों का तो समर्थन मिल ही रहा है। अनुप्रिया पटेल चूंकि केन्द्र में मंत्री हैं और उनके दल की भागीदारी राज्य मंत्रिमंडल में भी है, इसका फायदा भी उन्हें सपा से ज्यादा मिल रहा है। क्योंकि उनकी बहन पल्लवी पटेल कुर्मी मतदाताओं को उनके खिलाफ यानी सपा के पक्ष में करने में उतनी कारगर नहीं रही हैं जितनी सपा उम्मीद लगाये बैठी थी। जहां तक लोधी राजपूत मतदाताओं का सवाल है, राज्य के मध्य में इनकी आबादी यादवों से थोडी़ ही कम है लेकिन यह हमेशा भाजपा की पक्षधर रही है। बीते दशकों का इतिहास इसका प्रमाण है। कल्याण सिंह अपवाद जरूर हैं जबकि भाजपा से अलग होने की स्थिति में जब वह सपा के सहयोग से एटा से लोकसभा के लिए खडे़ हुए थे तब इस वर्ग ने भाजपा के खिलाफ जाकर उन्हें जिताया था। 

अब उनका बेटा राजवीर सिंह एटा से भाजपा का लोकसभा सदस्य है और राजवीर सिंह का बेटा राज्य में मंत्री। उस स्थिति में बुलन्दशहर से लेकर अलीगढ़, हाथरस,फरूखाबाद, मैनपुरी,एटा, उन्नाव व जालौन तक फैले लोधी राजपूतों की भाजपा को जिताने में अहम भूमिका रही है। फिर इस इलाके में काछी, मौर्य कहें या कुशवाहा भी लम्बे अरसे तक भाजपा के ही वोट रहे हैं। कश्यप कहें या धीमर, नाई, गड़रिया या बघेल आदि जातियां भी भाजपा की पक्षधर रही हैं। फिर वैश्य, ठाकुर मतदाता तो भाजपा का स्थायी समर्थक है। सपा भले गूजर और जाटों में सेंध लगाने का दावा करे लेकिन हकीकत में भाजपा इन जातियों को काफी हद अपनी ओर करने में कामयाब रही है। जहांतक यादवों का सवाल है, अक्सर इन्हें सपा का ही कट्टर पक्षधर माना जाता है। इस बारे में यहां भाजपा नेताओं की इस दलील को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। भाजपा नेताओं की मानें तो यादवों में एक खास वर्ग कमरिया ही सपा का कट्टर समर्थक है। अपने शासन काल की बात हो या राजनीति में हिस्सेदारी का सवाल हो, सपा नेताओं ने हमेशा इसी वर्ग को प्रमुखता दी है। सपा पर इन्हीं का कब्जा है जबकि दूसरे जो घोस कहलाते हैं, उनसे हमेशा सौतेला वर्ताव किया गया है। यही वजह है कि यह तबका हमेशा इनसे दूरी बनाये रखता है। इस वर्ग की मानें तो रामनरेश यादव भले प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, लेकिन दूसरे वर्ग ने उन्हें कभी आगे बढ़ने ही नहीं दिया। इस वर्ग के लोगों को टिकट देना तो बहुत दूर की बात है। इन हालातों में सपा को यादवों के एकमुश्त वोट मिलने का दावा संशय जरूर पैदा करता है।

जहां तक भाजपा के दावों की बात करें तो जनता भाजपा के शासन में किये गये विकास कार्यों, सड़क निर्माण, राजमार्गों के निर्माण, प्रशासनिक ईमानदारी,भ्रष्टाचार के खात्मे,आम जन की सुरक्षा, राज्य से दंगों व माफिया राज के खात्मे, कानून व्यवस्था में सुधार, गुंडागर्दी के खात्मे, किसानों की कर्ज माफी, फर्जी राशन कार्डों के खात्मे, गरीबों को राशन मुहैय्या कराने, महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने, उज्ज्वला योजना के तहत घरेलू महिलाओं को गैस उपलब्ध कराने, परिवार की जगह सबका साथ-सबका विकास करने  की योजनाओं का समर्थन करती है।

राज्य में पिछले तीन विधान सभा चुनावों में प्रदेश की सत्ता बराबर बदलती रही है। 2007 में राज्य में बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनी जबकि 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी और 2017 में भारतीय जनता पार्टी सत्ता पर काबिज होने में कामयाब रही। बीते 15 सालों में कोई भी दल प्रदेश की सत्ता पर दोबारा काबिज होने में कामयाब नहीं हुआ। यह पहला मौका है जबकि भाजपा अपने पूरे दमखम के साथ प्रदेश की सत्ता पर दोबारा काबिज होने की ओर अग्रसर  है। मौजूदा हालात तो इसी की गवाही दे रहे हैं। यह सच है कि यदि भाजपा 2019 के लोकसभा में मिले वोट फीसदी को और 2017 मे मिले वोट प्रतिशत को अपने पक्ष में बरकरार रख पाने में कामयाब रहती है, उस दशा में वह दोबारा सत्ता में वापसी का रिकार्ड कायम कर पायेगी। रालोद को जाटों की पार्टी कहा जाता है लेकिन पिछले लोकसभा चुनावों से भाजपा ने इस मिथक को कि जाट चौधरी की पार्टी को ही वोट देंगे, तोड़ दिया है। वह तो बागपत और छपरौली जैसी परंपरागत सीटों को भी बचाने में नाकाम रहा है। 

असलियत में राज्य में मुख्य संघर्ष भाजपा और सपा के बीच ही है। इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि ब्राह्मण मतदाता  इस बार किसकी ओर झुका है, यह अभी निश्चित तौर से नहीं कहा जा सकता। हां कांग्रेस को उसमें सेंधमारी करने में जरूर कामयाबी मिली है। साथ ही आधी आबादी यानी महिला मतदाताओं के रुझान को अपनी ओर करने में कुछ हदतक सफल भी रही है लेकिन वह भी राज्य में अपनी खोई जमीन ही लौटाने की जुगत में है। इसके अलावा वह कुछ खास नहीं कर पायेगी। भाजपा जहां राज्य में 2017 में सत्ता हासिल होने के बाद  सबका साथ, सबके विकास की भावना के साथ विकास करने,  किसी की भी आस्था के साथ खिलवाड़ न होने देने, कुंभ व कांवड़ यात्रा शांति पूर्ण व सफलता पूर्वक सम्पन्न होने, निवेश में बढो़तरी के साथ, महिला सुरक्षा, चिकित्सा सुविधा, मेडीकल कालेजों की स्थापना,किसानों के खाते में सीधे राशि पहुंचाने, समाज के सभी वर्गों के गरीबों वंचितों को मकान उपलब्ध कराने, जातिवाद के खात्मे, अपराधियों के सपा शासन में खुलेआम घूमने का आरोप लगाने के साथ अपराधियों से प्रदेश को मुक्ति दिलाने और चौबीसो घंटे बिजली देने का दावा करती है। वहीं सपा-बसपा सरकारों पर वह अर्थ व्यवस्था चौपट किये जाने का आरोप भी लगाती है। भाजपा के इन आरोपों का किसी हद तक राज्य की जनता भी मौके-बेमौके समर्थन भी करती दिखती रही है। 

 सच्चाई तो यह भी है कि सपा शासन में 2012 से 2017 के बीच एक ही परिवार, एक ही जाति का शासन था। राज्य में बिजली के दर्शन दुर्लभ थे। चौबीस घंटों में चार घंटे बिजली आ गयी तो समझ लो भगवान के दर्शन हो गये। सड़कों पर दो से तीन-चार फीट तक के गड्ढे थे। वाहनों की बात दीगर है, पैदल चलना भी दूभर था। भ्रष्टाचार चरम पर था। वह चाहे पुलिस की भर्ती हो या कहीं और, यादवों के अलावा किसी और के लिए कोई जगह थी ही नहीं। भर्ती में चयनित लोगों की सूचियां, जिनमें एक ही वर्ग विशेष की बहुतायत होती थी, मंत्रीजी द्वारा अधिकारियों या पुलिस के उच्चाधिकारियों को दे दी जाती थी। नौकरी में दूसरे वर्गों के लिए कोई जगह थी ही नहीं। योग्यता और प्रतिभा के लिए कोई स्थान नहीं था। गुंडागर्दी चरम पर थी। जमीन-मकानों पर जबरिया कब्जों का आलम था। शाम छह बजे के बाद घरों से निकलना दूभर था। माफियाओं का राज था। किसान को राहत राशि तब ही मिल पाती थी जबकि बिचौलियों को उनका हिस्सा मिल जाता था। योगी राज में कम से कम शांति तो है, गुंडागर्दी तो नहीं है, चोरी-चकारी, गुंडे-मवालियों का तो भय नहीं है, कोरोना काल में ये सपा और दूसरी पार्टियों के लोग कहां थे। उस दौरान हमें राशन तो मिला है जो आज भी मिल रहा है। सबसे बडी़ बात भाजपा शासन में हमें शांति से जीने का मौका मिला है और हमें क्या चाहिए। जबकि सपा गठबंधन नेताओं का कहना है बीती बातों को बिसारिये, आगे की सुध लो। वह पुरानी पेंशन बहाली, नौजवानों को नौकरी, गन्ने का भुगतान 15 दिन में करने, भाईचारा बढा़ने का दावा कर रहे हैं और भाजपा पर सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने, बेरोजगारी बढा़ने, जातिवादी होने, भ्रष्टाचार बढा़ने, उनके किये कामों का उद्घाटन करने, विकास अवरुद्ध करने, निर्दोषों की हत्या करने जैसे आरोप लगा रहे हैं लेकिन कानून व्यवस्था, महिला सुरक्षा और अपराध खत्म करने के सवाल पर वह मौन साध जाते हैं। जबकि गन्ने का भुगतान तो अब आठ दिन में हो रहा है। महिला सुरक्षा ,रोजगार और महिला सशक्तिकरण के दावों के साथ उपरोक्त आरोप कांग्रेस-बसपा भी भाजपा पर लगा रही है। जबकि बसपा पर अपने शासन में दलित उत्पीड़न के नाम पर निर्दोष लोगों पर फर्जी मुकदमे लगाने और विकास के नामपर केवल और केवल दलित नेताओं की मूर्तियां लगाने के आरोपों से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

मौजूदा समय में कुछ राजनीतिक विश्लेषक किसान आंदोलन के चलते जनता में मौजूदा सरकार के विरोधी रुख के बारे में जोर-शोर से दावे करते हुए समाजवादी गठबंधन की सरकार आने की घोषणा कर रहे हैं । कयास तो यह लगाये जा रहे हैं कि हिजाब मामले का फायदा समाजवादी  गठबंधन को मिलेगा लेकिन उसे एआईआई एम नेता मौलाना असदुद्दीन ओबैसी भी भुनाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। चुनावों का परिणाम भले 10 मार्च को आयेगा लेकिन जनता का रुख इस बात के अमूमन संकेत जरूर दे रहे हैं कि जनता मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में अपना और राज्य का भविष्य देख रही है। वह शांति और कानून का राज चाहती है। इसका भरोसा भाजपा नेता देते नहीं थकते। वह कहते हैं कि बीते पांच साल का योगी शासन इसका जीता-जागता सबूत है। समय-समय पर जनता ने चुनावों के बीच इसके संकेत भी दिए हैं। राज्य की जनता का यह रुख भाजपा के लिए शुभ संकेत है कि राज्य में वह दोबारा सत्ता में आ रही है।