स्थानीय स्वशासन
लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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संविधान में संशोधन कर सशक्त शहरी सरकारों का गठन किया गया। इन्हें पर्याप्त साधन, शक्तियां, वित्तीय अधिकार, वरिष्ठ प्रशासनिक व तकनीकी अधिकारी दिये गये। आलीशान भवनों में पर्याप्त सुरक्षा व सहुलियतें दी गई। इनके पास कर लगान, उगाने का अधिकार है। विकास परियोजनाओं के प्रबंधन का अधिकार है, प्रभावी कार्य शक्तियां है। संसाधनों से संपन्न यह सरकारें जन समस्याओं के निराकरण, बेहतर नागरीक सुविधायें, शुद्ध पानी, हवा, रोशनी, स्वच्छता, सड़क, नालियां, सुनियोजित निर्माण के लिए जिम्मेदार हैं। ये संस्थायें संसाधनों से संपन्न शहर के मालिक, सत्ता के केन्द्र बन गये है। नगर निगम, नगर परिषद, अब वस्तुतः मिनी सचिवालय बन गये है।
मेरे बड़े भ्राता जयपुर नगर परिषद के चार बार पार्षद व चेयरमेन रहे। मैंने देखा है प्रतिदिन सुबह-सुबह वे अपने क्षेत्र व नगर में पैदल समस्याओं के निराकरण व प्रबन्ध के लिए निकलते थे। निवास पर दिनभर आम नागरिक आते थे, वे उनसे मिलते थे, सायंकाल परिषद कार्यालय में। नगर परिषद में आने जाने वाले नागरिकों की भीड़ लगी रहती थी, देर रात तक दफ्तर चलता था, कोई पास सिस्टम, रोक टोक नहीं थी, सुरक्षाकर्मियों का लवाजमा, तांता नहीं होता था। उनसे प्रेरणा लेकर जब मुझे भी नगर परिषदों के आयुक्त व प्रशासक के पदों पर कार्य करने का अवसर मिला तो पूरे दिन आम नागरिकों का आना जाना, मिलना जुलना होता था। सुनवाई कर हाथोहाथ समस्याओं के निराकरण हेतु कार्यवाही की जाती थी। निदेशक स्वायत्त शासन के रूप में भी इन संस्थाओं में जाने व कार्य व्यवहार देखने के अवसर मिले, स्वायत्त शासन की तस्वीर सामने आती थी। आम नागरिक बेरोकटोक आते जाते रहे, उनकी समस्याओं का यथासंभव शीघ्र निराकरण होता था। सेवाओं में सुधार, वृद्धि व गुणवत्ता लाने के लिए निगम बने।
गत दिनों जन समस्याओं के संबंध में इन दफ्तरों में जाने का अवसर आया। मैंने देखा सचिवालय, पुलिस मुख्यालय की तरह यहां भी प्रतिबन्ध ही प्रतिबन्ध, आना जाना, मिलना जुलना अत्यन्त दुष्कर, पब्लिक को पार्षदों के पीछे भागते देख। अधिकारियों का चर्चा करना कार्य है, उनका कमिटमेंट, उनका कार्य व्यवहार देखा। मोबाईल उठाते नहीं, टेलीफोन पर उपयुक्त जबाब नहीं मिलता। हर समय उत्तर मिलता है मीटिंग में व्यस्त है, दूसरे टेलीफोन पर बात हो रही है। आयुक्त, उपायुक्त की बातें ही अलग है। सर्वत्र सुरक्षाकर्मी, प्रवेश अलग, एग्जिट अलग। ऐसा लगा ये नगरपालिका/निगम/स्वायत्त शासन का विभाग नहीं पुलिस मुख्यालय अथवा सचिवालय है।
महापौर, उपमहापौर सिर्फ आपसी वार्तालाप व इधर उधर की राजनीतिक चर्चा में स्यस्त, व्यर्थ में जनता का पैसा बर्बाद, कोई संजीदगी या गंभीरता नहीं। जनता से कर लिया जाता है, सुरक्षा, आवभगत, सहुलियतों पर खर्च होता है। इसके कारण कार्य निस्तारण में पक्षपात, भ्रष्टाचार, देरी, विलम्ब व अकर्मण्यता बढ़ती जा रही है। अधिकारियों का व्यवहार जैसे वे सबसे ऊपर बगैर किसी जिम्मेदारी व कर्तव्यपालन के, राजनीति के अलावा कुछ नहीं। सड़क, नाली, पानी, बिजली, स्वच्छता की बातें नहीं अन्य सब कुछ। वहां जाकर पता चलता है शहर इतने खराब क्यों है, ऐसा प्रतीत होता है कोई सरकार नहीं। जबाबदेह महापौर, आयुक्त नहीं, सशक्त नगर निगम नहीं। शहर कल्याण कोई मुद्दा नहीं जिसके लिए उनके पास अधिकारियों का जाल है, विभिन्न प्रमुखों सहित एजेंसिया है। जबाबदेही किसकी है, स्पष्ट नहीं। शासन की समस्या व्यवस्थागत है, नहीं मालूम स्वायत्ता कहां अटक गई। निरंकुश प्रशासन का जीता जागता नमूना।
कार्य शक्तियां किसके पास हैं, स्पष्ट नहीं। योजना कहां बनती, कौन बनाता है, नीति संबंधी कार्य शक्तियों की दौड चल रही है। स्पष्ट विकेन्द्रीय स्वशासन, स्वयत्त शासन की व्यवस्था नहीं। सत्ता के ढांचे का नया स्तर बनाना राजनीतिक मसला हो जाता है। सत्ता के दो केन्द्र बन गये हैं।
शहरी सुशासन सुधार की बातें कम दिखाई देती है। कमीटेड चुने गये अध्यक्ष/महापौर व अनुशासित नौकरशाही की आवश्यकता है अन्यथा शहरी सरकारें अपने कर्तव्य पूरे नहीं कर पायेंगी। संवैधानिक मूल्यों के साथ जिम्मेदार व कर्तव्यपरायण चुने हुए प्रतिष्ठित व प्रतिबद्ध नौकरशाही ही नागरिक समस्याओं को हल कर सकते है।
बदहाल शहर, बदहाल सड़के व नालियों से छुटकारा, पानी, बिजली, शुद्ध हवा चाहिए तो नागरिकों को जागरूक होना पड़ेगा, प्रयास करना पड़ेगा। जनता को पूरी तरह सिस्टम से सूचित व अवगत कराया जाये, जानकारी दी जाये, कौन-कौन किस-किस कार्य के लिए जिम्मेदार है, उनसे सम्पर्क कब व कैसे हो, कौन जबाबदेह है। पारदर्शिता, भागेदारी, विश्वसनीयता, लालफीताशाही, अफसरशाही को पृथक-पृथक करना शहरी सरकार की सफलता के लिए आवश्यक है। जरूरत के मुताबिक ठाठबाट, सुविधा व सुरक्षा हो, उससे अधिक नहीं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)