परिवार की राजनीति नहीं - राजनीति का परिवार

लेखक : डॉ.सत्यनारायण सिह

(लेखक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं)

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हमेशा कांग्रेस पर परिवारवाद को बढावा देने का आरोप लगाया जाता रहा है। भाजपा व प्रधानमंत्री मोदी तो नेहरू-गांधी परिवार को कोसने का कोई मौका नहीं छोडते। वे बैरिस्टर व स्वतंत्रता सेनानी मोती लाल नेहरू की पांचवी पीढी में राहुल-प्रिंयका का भारतीय नागरिक का राजनीतिक अधिकार छीनना चाहते हैं। मेहनत, दूरदृष्टि से ईमानदारी, सहनशील, कुर्बानी से सोनिया गांधी ने जो स्थान भारतीय राजनीति में लगातार विपक्ष में बैठने हॉल ही में पांच विधानसभा चुनावों में हार व भाजपा के आक्रामक प्रचार के कारण टूटे मनोबल वाली कांग्रेस ने बूढे नेतृत्व की भीड में युवा ताजा चेहरों ने नेतृत्व  थामा है जिसे भाजपा विरासत की राजनीति कह रही है बनाया है उसका कोई विकल्प या मिसाल नहीं है।

पहले भाजपा मेरी कमीज सबसे साफ के जुमले का उपयोग करती थी, अब वह ’मेरी कमीज तुम से कम गन्दी’ जुमले का इस्तेमाल कर रही है। देश में साल 2021 में पांच राज्यों में हुए चुनावों के जरिये भाजपा सर्वाधिक मालामाल हो गई  19 राजनीतिक दलों को 1,116.81 करोड चन्दा मिला उसको सर्वाधिक चन्द मिला। नेशनल इलेक्शन वाच  की रिपोर्ट  के अनुसार भाजपा को 611.69 करोड रूप्ये मिले। चुनाव प्रचार प्रसार विज्ञापन नेताओं के दौरों पर 252करोड किये। कांग्रेस को केवल 193.77 मिले जिसमें 85.62 करोड खर्च किये। इसी प्रकार के हालात 2022 के हैं, भाजपा को सबसे ज्यादा चन्दा मिला है।

यह हकीकत है कि लगभग डेढ सौ वर्ष पुरानी कांग्रेस पार्टी के विशाल जहाज को वर्तमान में केवल नेहरू-गांधी परिवार के कैप्टन ही चला सकते हैं। राहुल-प्रियंका के सहारे कांगेस नई पीढी को नेतृत्व प्रदान कर अपना चमकदार अतीत वापस लाना चाहिए इस पर भाजपा को ऐतराज है। कांगेस आलाकमान में चिंता की व्यापक लहर दोड गई है। सबसे अहम बात है उत्तर भारत में जब तक कांग्रेस अपने खोेए हुए जनाधार को नहीं समेट पायेगी तब तक दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी भाजपा को हराना संभव नहीं होगा। सोनिया गांधी को देशभर में अपनी ही पार्टी के हताशा और निराशा में डूबे कार्यकर्ताओं का मनोबल बढाने के उपाय सोचने होंगे। हकीयत यह है कि कांग्रेस में कमी है तो संगठन की। सोनिया गांधी के ज्यादातर राजनीतिक सलाहकार न तो आम जनता के बीच रहते हैं और न ही उन्हें देश की जमीनी हकीकत का अन्दाज है। जो खुद जनता की नब्ज नहीं पहचानते।

अधिकांश लोक सभा चुनाव  हार कर राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंचे है। लगातार आम जनता के बीच नहीं रहते जिससे जमीनी हकीकत को एकदम सही अंदाज हो। सब दिल्ली दरबार की बंद कमरों में होने वाली राजनीतिक बैठकों और जोड तोड की कांग्रेस अंदरूनी उठापटक में ही उलझे रहते हैं केवल भूतपूर्व व वर्तमान नेताओं के पुत्र युवा पीढी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए नयी सामाजिक ताकतों से अपना तालमेल नहीं बिठा पा रही है। आधार विस्तृत नहीं हो रहा है। कांग्रेस की जमीनी कार्यकर्ताओं और केन्द्रीय नेताओं के बीच दूरी बढती जा रही है।

कांग्रेस में वैतनिक अवैतनिक कार्यकताओं का पूर्ण अभाव है। कांग्रेस में कार्यकर्ता उस तरह से नहीं रहे जिस तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ या वामपंथी दलों के कैडर होते हैें। जब सत्ता में होते है तो कार्यकर्ताओं की कमी नहीं खलती लेकिन जब सत्ताहीन होते ही अभाव हो गया। वामपंथी दल अन्य क्षेत्रीय दल कांग्रेस के साथ भले ही दिखते हों वे चुनाव से पहले कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने को एकमत होते फिलहाल नजर नहीं आते। यह दल भाजपा कांग्रेस से समान दूरी बनाकर राजनीति करते हैं। वे कांग्रेस समर्थक या कांग्रेस समर्थित चेहरे लेकर चुनाव में जाना नहीं चाहते। गलियों से गुजर कर दिल्ली तक पहुंचने वाले चक्रव्यूह को भेदना फिलहाल कांग्रेस नेतृत्व के लिए आसान नहीं है। 

भाजपा की काट के लिए कांग्रेस ने नरम हिन्दुत्व का सहारा लिया है उससे स्थिति में कोई सुधार नही हुआ। ऐसे में कांग्रेस बोफोर्स तोप दलाली कांड की वजह से सत्ता से बाहर हुए राजीव गांधी विपक्ष के हमले का शिकार रहे। गांधी परिवार के लिए दिल्ली उच्चतम न्यायालय का राजीव को क्लीन चिट देने का फैसला राहुल व प्रियंका को राजनीति में आने का रास्ता साफ कर गया। राजनीति किसी भी भारतीय नागरिक का अधिकार है। उन्हें संविधान ने हक दिया है। राहुल व प्रियंका के राजनीति में आने को परिवारवाद कहना निहायत गैर जिम्मेदाराना है। सोनिया गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय पार्टी एकजुट व मजबूत हुई है। 

राहुल व प्रियंका को सक्रिय राजनीति में आना चाहिए, यह उनका अधिकार है। यह वंशानुगत शासन की संभावना नहीं दर्शाती। सक्रिय राजनीति में भाग लेने का संवैधानिक अधिकार कैसे छीन सकते है। अटकले भले ही महत्वाकांक्षी के ख्याल की हो दोनों ही आपसी समझदारी काफी अच्छी है और दोनों अपने खानदान में हुई पीढी दर पीढी की शहादत की उपज है। राजनेताओं का विश्वास ढगमगाने लगता है तो संवैधानिक अधिकारों को नाम में रखकर परिवारवाद का नारा लगाने लगते है।

भारत का कोई भी कानून किसी पैदाईशी भारतीय का जीवन तो ले सकता है किन्तु उसकी नागरिकता नहीं। कुर्बानियों से भरा परिवार राजनीति में उतरता है तो परिवारवाद की राजनीति नहीं राजनीति का परिवार कहा जाना चाहिए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)