राजस्थान को नदियों की सुध लेनी होगी
लेखक : रामभरोस मीणा
(लेखक जाने माने पर्यावरणविद् व समाज विज्ञानी है)
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बीते कुछ सालों से नदियों के गिरते जलस्तर के साथ ही उनकी साफ सफाई, बढ़ते अतिक्रमण को लेकर पुरे देश में नदियां का एक मुद्दा बना हुआ है। सत्य यह है कि इन्हें लेकर काम करने को कोई जो चाहते हैं उनकी सुनने वाला नहीं , वहीं जो काम नहीं कर केवल नाम करना चाहते वो कमेटियों में सामिल कर लिए जाते, जिससे "ढांक के तीन पात" वालीं बात बन जाती । आज मध्यप्रदेश में नदियां बहस का विषय बनी हुई है, जबकि नदियां बहस का विषय नहीं बननी चाहिए काम होना पहली आवश्यकता है। मध्य प्रदेश के साथ साथ सभी राज्यों में नदियों की दशा बहुत दयनीय बनी हुई दिख रही, राजस्थान में नदियों की स्थिति मध्यप्रदेश से भी ज्यादा नाजुक बनी हुई है, यहां की वर्ष भर बहनें वालीं नदियों का जलस्तर इस गति से गिर रहा कि चिंता का विषय बनता जा रहा है।
राजस्थान में औसतन वर्षा 57 -58 सेंटीमीटर होती , दक्षिणी पुर्वी क्षेत्र में सर्वाधिक वर्षा के साथ झालावाड़ में 150 सेंटीमीटर , जैसलमेर में सर्वाधिक कम वर्षा 10 सेंटीमीटर होती , भारत में औसत वर्षा 125 सेंटीमीटर होती है जिसके मुताबिक राजस्थान में इसका प्रतिशत बहुत कम होने के बाद भी यहां की दर्जनों नदियां बारह मासी बनी रहीं। राजस्थान में बीकानेर व चुरु दो ऐसे जिले है जहां नदियों का उद्गम स्थल नहीं है, इनके अलावा सभी जिलों में दो या दो से अधिक नदियां बहती। लेकिन आज की परिस्थितियों में मौजुदा हालातों को देखा जाए तो यहां नदियों के लिए कह सकते हैं "अंधेरी नगरी चोपट राजा" सत्य यह है की नदियों की सुध लेने वाला कोई नहीं। बिगड़ते मौसम चक्र, ख़राब होते पारिस्थितिकी तंत्र, जलवायु परिवर्तन के संकेतों के चलते यहां की नदियां अपना अस्तित्व खो रही है, लुनी, माही, साबरमती, बनास, चंबल, सोम नदियां जहां एक तरफ अपने अस्तित्व को समेटे जा रही, वहीं इनकी सहायक नदियां बालू के धोरों में बदलती दिखाई दे रही जो भविष्य के लिए खतरा है।
सम्पूर्ण राजस्थान में आहड़,बेडच, वाकल, गोमती, जाखम, सेई, माशी, बांडी, घग्गर, सुकड़ी, पोसलीया, खाती, कांतली, मंथा, मोरेल, गमभीरी,खारी,कोठारी, जाखम, हरसोर, पार्वती, निवाज, जोजडी, कांतली, काली, जंवाई, कोकनी, धोआं, बोड़ी, ढूंढ़, सोता, घघर, मोरेल, घोडापछाड, मानसी, गमभिरी, छैनी, साबी, रुपारेल, काली, गोरी, अरवरी, चूहान, सागरमती, सरस्वती जैसी पचासों नदियां अपना अस्तित्व खो ने को चली, वहीं इनकी सहायक नदियां व नाले जो इन्हें जीवन्त रखनें का काम करते आए वे अपना अवशेष मिटा चुके।
एल पी एस विकास संस्थान के निदेशक व पर्यावरणविद् रामभरोस मीणा ने नदियों के अपने अनुभव, महत्व आवश्यकता को देखते हुए नदियों को बचाना आज की आवश्यकता ही नहीं बल्कि जरुरत समझा जिससे यह निकला कि समाज व सरकार दोनों को इनके बचाव, स्वच्छता के काम करना चाहिए, आज अलवर, जयपुर, भरतपुर, दौसा, सीकर, झुंझुनूं, कोटा, बुंदी, डुंगरपुर, उदयपुर, जोधपुर के साथ सम्पूर्ण राज्य में नदियों की दशा ख़राब है। नदियों के संरक्षण व स्थाई जीवन्त रखने के लिए वनों का विकास होना, नदियों के रास्तों में बने अवरोधों को हटाया जाना, सहायक नदियों को अतिक्रमण मुक्त करना, जैसे मुद्दों को लेकर राजस्थान सरकार को ठोस क़दम उठाने के साथ ही नदियों की सफाई पर विशेष ध्यान दे, ना की बहसों का विषय बनाएं। जिससे जल संग्रहण के साथ ग्राउंड वाटर लेवल को बढ़ाया जा सके, आने वाली पीढ़ियां को जल संकटों से मुक्त किया जा सके। लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार है)