लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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वरिष्ठ पत्रकार संजय जोठे ने सही कहा है ‘‘यह स्थापित तथ्य है कि दुनियाभर के दक्षिणपंथी, चाहे वे किसी भी धर्म या देश के हो, वे बौद्धिक अर्थो में बहुत कमजोर होते हैं। सत्ता में आने के लिए और सत्ता में बने रहने के लिए भावनात्मक मुद्दों को आधार बनाते हैं।’’ उन्होंने अत्यन्त सदे हुए शब्दों में कहा है ‘‘जिस स्थान पर ऊँचे-ऊँचे पेड़ न हो वहां अरंडी के पेड़ को वट वृक्ष की भांति पूजा जाता है।’’ इसका मतलब है अरंडी के पेड़ की पूजा करवानी हो तो आसपास के अन्य पेड़ों को खत्म कर दिया जाये। जवाहरलाल नेहरू को मुस्लिम साबित करने का जो प्रयास इन दिनों किया जा रहा है वो कुछ ऐसा ही है। देश के सबसे सफल स्टेट्समेन और सबसे ज्यादा विजनरी, लोकतंत्र के संस्थापक प्रधानमंत्री को इस तरह की ओछी हरकत में फंसाना दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं राष्ट्रद्रोह है।
भावनात्मक ज्वार पैदा करके जो सत्ता अस्तित्व में आती है वह हमेशा तर्कपूर्ण, ईमानदार, कुर्बानियों व लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व समानता, सद्भाव, सर्वहित के लिए खतरनाक साबित होती है। राजनीतिक इतिहास गवाही देता है धर्म व संस्कृति के नाम पर भावनाओं को किस प्रकार इस्तेमाल किया जाता है और उसके क्या परिणाम होते है। आजादी की लड़ाई में निष्क्रिय ही नहीं अपरोक्ष विरोध करने वाले का कुर्बानियों व योगदान को भुलाकर देश को एक ऐसे रास्ते पर ले जाने का प्रयास रहता है जो स्पष्ट करता है कि उनमें ईमानदारी व सच्चाई की जमीन नहीं है।
उन शक्तियों का लक्ष्य भविष्य नहीं होता, अतीत में गुजर चुके किसी युग/समय को दुबारा लाने की बात करते है, उन्हें मंदिर व मूर्तियां पसन्द है, आधुनिक काल के मंदिर, राष्ट्रहित के निर्माण, समानता व असमानता पसंद नहीं है। उनका नेतृत्व बौद्धिक व वैचारिक अर्थो में दोयम दर्जे का ही होता है। ये लोग तर्क और विचार से जन सामान्य को प्रभावित नहीं करते बल्कि भावनात्मक ज्वार पैदा कर वोट बैंक जुटाते है। जननायकों की उपलब्धियों को तर्कपूर्ण ढंग से नकार नहीं पाते तो उनके व्यक्तिगत जीवन को बदनाम करना प्रारम्भ कर देते है। दक्षिणपंथी कभी प्रगतिशील नीतियों को बर्दास्त नहीं कर पाते क्योंकि वह उनके हितों के विपरीत है।
संजय कहते है ‘‘किसी भी बड़े नेता के जीवन में सफलतायें और असफलतायें साथ-साथ चलती है। नेहरू की सफलतायें जग जाहिर है, भारत में बड़े पैमाने पर औद्योगिकरण और आर्थिक विकास में रूस व अमेरिका दोनों का सहयोग लिया। शीत युद्ध के समय दोनों शक्तियां भारत पर अपनी विचारधारा व नीति थोपना चाहते थे। शक्ति सन्तुलन के गणित में सुरक्षित बनाये रख विकास करना नेहरू के ही बस में था।’’
अनेक उपलब्धियां है जो नेहरू को महान राजनेता, दृष्टा व प्रशासक सिद्ध करती है। एक संवेदनशील समय में जब राष्ट्र निर्माण का कार्य चल रहा हो, अनेक निर्णयों में एक निर्णय गलत भी हो सकता है। निर्णय भी पूरी सरकार (सभी केबीनेट) जिसमें आलोचना करने वालों के जनक भी थे, निर्णय का समर्थन किया था, ने लिया था, को बार-बार गिनाकर नेहरू के योगदान व उपलब्धियों को नकारना सरासर बेईमानी व निकृष्टता है।
व्यक्तिगत जीवन पर लांछन लगाने का काम आसान है परन्तु सफलता कठिन। सुभाष चन्द्र बोस व पटेल के साथ सम्बन्धों को बिखेरने का प्रयत्न हुआ परन्तु असत्य साबित हुआ। इस प्रकार अन्य महापुरूषों और राजनेताओं व धार्मिक, सांस्कृतिक नायकों की बारी भी आयेगी। भारत की राजनीति व लोकजीवन को प्रभावित कर स्वयंभू नायक बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है। दीमागी दिवालियापन से किसी महानायक को मुस्लिम बताना उसका सम्मान करेगा। इसका तात्पर्य है मुस्लिम होना बदनामी का विषय है, यह तो लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। राजनीतिक व सार्वजनिक जीवन में हो रहे पतन का ही द्योतक है।
हिन्दुस्तान भर का महिनों दौरा किया, 50 हजार मील का सफर, 9 बार लम्बी 9 वर्ष से अधिक की जेल, हर दिन 15 घंटे काम, बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी, देशभक्त, दार्शनिक, राजनयिक, भारत के शिल्पकार, स्वप्नदृष्टा, जिनको आजादी के 20 साल पहले विश्वमंच से सम्मान दिया था। फ्रेंच लेखक रोम्या रोला, जर्मन अर्नेस्ट टालर, पूर्वी व पश्चिमी सभी देशों के सम्मानित महापुरूषों के साथी, मित्र व नायक के प्रति घृणास्प्रद गलतफहमिया पैदा करना भारतीय लोकतंत्र की गिरती स्थिति व पतन का द्योतक है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार हैं)