लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समाज ए जाति व्यवस्था पर आधारित समाज रहा है। यह व्यवस्था शताब्दियों की जीवन पद्दति के विकास का परिणाम है इसके कारण समाज में वर्चस्व रखने वालो द्वारा अन्य कमजोर वर्गों को उनके नियम मानने को बाध्य करना, आर्थिक असमानता व व्यवसाय भी हो सकते है। जब समाज के कई वर्ग सम्पति से वंचित रह गए तो धीरे.धीरे यह व्यवस्था भेदभावए छुआछूतए शोषण और अत्याचार पर आधारित व्यवस्था बन गयी यह व्यवस्था इतनी जकड़न वाली हो गयी कि कबीर, नानक, महात्मा फुले, सन्त ज्ञानशवर, महात्मा गांधी आदि ही इसे तोड़ पाये। भारत का संविधान और आजादी के बाद बनाए गये अनेकानेक कानून भी इस प्रथा को कमजोर नहीं कर पाये।
भारत के संविधान प्रस्तावना में सभी के लिये समान स्तर और अवसरों की बात कही गई है भाईचारे पर आधारित व्यक्ति की गरिमा स्वीकार की गई है। अनुच्छेद 14 में कानून के समक्ष प्रत्येक व्यक्ति को समान दर्जा दिया गया है। अनुच्छेद 15 में जाति या अन्य किसी आधार पर भारत के नागरिको में किसी भी प्रकार के भेदभाव को प्रतिबन्धित किया गया है तो प्रत्येक नागरिक को किसी भी सार्वजनिक स्थान और सुविधा का उपयोग करने का बराबर अधिकार दिया गया। अनुच्छेद 16 में लोक नियोजन के मामलो में जाति या अन्य किसी भी आधार पर भेद बाव पर पाबन्दी लगाई गई है। अनुच्छेद 17 में छुआछूत समाप्त करने की घोषणा की गई है और इसे कानून के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध भी घोषित किया गया है। अनुच्छेद 21 में जीवन का अधिकार है।
जीवन का अर्थ केवन पशुवत जीवन नहीं बल्कि मानवीय और गरिमा के साथ जीवन .यापन माना गया है। अनुच्छेद 29 ;2द्ध में किसी भी राजकीय या राजकीय अनुदान पाने वाली शिक्षण संस्था में जाति या अन्य किसी आधार पर प्रवेश को रोकने को प्रतिबन्धित किया गया है। अनुच्छेद 46 जो कि निति निर्देशक सिद्धान्तों का हिस्सा है उसमे राज्य को यह निर्देश दिया गया है कि वह अनुसूचित जातियों सहित समाज के कमजोर वर्गों को शैक्षणिक व आर्थिक रूप से विकसित और प्रोत्साहित करने में विशेष ध्यान देगा। संविधान के अनुच्छेद 330 से 342 तक है। अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिये आरक्षण के लिये विशेष प्रावधान किये गये है। इन कानूनों के प्रावधान काफी व्यापक है परन्तु समाज पर प्रत्याशित प्रभाव नहीं डाल पाये।
1989 में अनुसूचित जाति ;अत्याचार निरोधकद्ध अधिनियम बनाया गया। इसमें और भी कड़े प्रावधान रखे गये। जिसके अन्तर्गत जाति के आधार पर अपमानित करनाए उसे नीचा दिखानाए बेगार करानाए सम्पति को क्षति पहुंचना आदि जैसे कृत्य भी दण्डनीय अपराध घोषित किये गये है। इसके अन्तर्गत अपराधों पर विचारण के लिये विशेष न्यायालयों की स्थापना भी की गयी। इस कानून के अन्तर्गत अत्याचार पीड़ित व्यक्ति के लिये मुआवजे का भी प्रावधान है। अनुसूचित जाति या जनजाति के अधिकांश लोग बन्धुआ मजदूरी प्रथा और बाल मजदूरी प्रथा से पीड़ित रहे है। इसलिए बन्धुआ मजदूरी प्रथा उन्मूलन अधिनियम 1986 जेसे कानून भी इस सम्बन्ध में बनाये गये है। कृषि भूमि के सम्बन्ध में भी कुछ पाबन्दिया है।
इस क़ानूनी ढांचे में तीन एजेंसिया है जिन पर कानून लागू कराने की जिम्मेदारी है ये पुलिसए न्यायालय और आयोग। पुलिस को इन कानूनो में काफी व्यापक अधिकार दिये हुए है। पुलिस सामाजिक परिवर्तन के वाहक के रूप में कोई भूमिका नहीं निभा सकी। इन कानूनों के अन्तर्गत बहुत कम मामले न्यायालयों तक पहुंच पाते है। जहा तक न्यायालयों की बात है उच्चतर न्यायालयों द्वारा की गई कानूनों की व्याख्याए सकारात्मक रही है परन्तु निचले स्तर पर प्रक्रियात्मक उलझनों और असामान्य देरी के चलते निर्णय कोई व्यापक प्रभाव नहीं छोड़ पाते। यह कानून सामाजिक व्यवस्था और मानसिकता में परिवर्तन की अपेक्षा रखते है इन की अभिपालना के लिये सामाजिक संगठनो की प्रभावी क़ानूनी भूमिका के प्रावधान हुए बिना ये अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाये।
मानव अधिकार सुरक्षा अधिनियम 1993 पारित होने के बाद केंद्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य मानवाधिकार आयोग भी इस क्षेत्र में सक्रिय है परन्तु सीमित शक्तियों, अल्प संसाधनों तथा सरकारी नौकरशाही मानसिकता के चलते समाज के ढांचागत परिवर्तन का वाहक नहीं बन सके। भारतीय संविधान की घोषणाएं श्रेयस्कर है और कानून के प्रावधान भी काफी व्यापक और कड़े है परन्तु यदि हम सामाजिक स्थितियों पर दृष्टि डाले तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता कि जातिगत भेदभाव पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की जकड कुछ ढीली हुई है। जाति राजनीति के चलते यह व्यवस्था दरअसल ज्यादा मजबूत ही हुई है। कानूनों को ईमानदारी से लागू करने की इच्छा शक्ति का भी अभाव है। सबसे बड़ा कारण आर्थिक भी है।
अब तक जो प्रयत्न किये गये वे व्यक्ति पर आधारित है इस व्यवस्था से पीड़ित व्यक्तियों को कानून के द्वारा या सामाजिक जागरूकता के द्वारा ऊपर उठाना मुश्किलात भरा है। धर्म परिवर्तन जैसी प्रतिक्रियावादी कार्यवाही भी इसका कोई इलाज साबित नहीं कर पायी है जिन्होंने धर्म परिवर्तन किया है वे भी उसी प्रकार की ऊच-नीच के शिकार है। क़ानूनी और संविधानिक तरीको से बहुत कुछ किया जा सकता है बर्शते कि सामाजिक जागरूकता के अभियान के साथ हम निरंतर सक्रिय रहे। क़ानूनी ऐसे प्रावधान भी बनाये जाये जिससे कार्य की गरिमा का स्तर भी ऊँचा हो। अधिक से अधिक टेक्नोलोजी का प्रयोग करने के लिये प्रेरित किया जाये और इसकी व्यवस्था की जाये।
इससे अन्य तथाकथित ऊंची जातियों के लोग भी इनके काम को अपनाने में परहेज नहीं करेंगे। सामाजिक भेदभाव और छुआछूत संबधी अपराधों के लिये दंड के साथ.साथ भारी मुआवजे के भी प्रावधान किये जाने चाहिए जो शायद ज्यादा प्रभावशाली सिद्ध होंगे। सबको काम की गारंटी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। काम के अधिकार को एक मूलभूत अधिकार के रूप में संवैधानिक मान्यता, व्यवस्था परिवर्तन के क्षेत्र में निश्चित रूप से बहुत दुरगामी प्रभाव डालेगी। जाति प्रथा के खिलाफ सामाजिक संघर्ष में सबको जुटने की जरुरत है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)