लेखक : लोकपाल सेठी
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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दक्षिण भारत में दो पुराने सहयोगियों, अन्नाद्रमुक और बीजेपी, में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। बीच-बीच में दोनों दलों में से एक कुछ न कुछ ऐसे फैसले लेता रहा है जिसको लेकर दोनों ओर के नेता एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करने से गुरेज नहीं करते। चूँकि अब बीजेपी को राष्ट्रपति के चुनावों में अन्नाद्रमुक की जरूरत रहेगी इसलिए पार्टी के नेतृत्व ने तमिलनाडु की इकाई से कहा है कि फ़िलहाल वह ऐसा कोई कदम न उठाये या बयान न दे जिससे दोनों दलों के रिश्तों कोई दरार पड़ती हो। दोनों दलों ने 2019 में मिलकर विधान सभा का चुनाव लड़ा था। इन चुनावों में इस राज्य में लम्बी अवधि के बाद पहली बार विधान सभा में प्रवेश मिला था।
राज्य में जब तक एल मुरगन, जो अब केंद्र में मंत्री हैं, राज्य ईकाई के अध्यक्ष थे, तब तक दोनों दलों में पटरी ठीक-ठीक बैठ रही थी। दोनों दलों के नेता एक दूसरे का सम्मान करते थे तथा दोनों पक्षों में सहयोग को अच्छा खासा संतुलन बना हुआ था। लेकिन उनके उत्तराधिकारी के रूप में अन्नामलाई उस लाइन पर पूरी तरह चलने में सफल नहीं हो पा रहे है। पार्टी का नया नेतृत्व यह बात समझने को तैयार नहीं की दोनों दलों के इस गठबंधन वह एक बहुत छोटा दल है। राज्य में अपनी शक्ति बढाने के लिए उसे अन्नाद्रमुक जरूरत है। अन्नाद्रमुक के नेता उन्हें बार-बार इस स्थिति को स्वीकार करने के लिए रहे है। लेकिन बीजेपी नया नेतृत्व यह मान कर चल रहा है कि अब समय आ गया है कि पार्टी को अपने पैर फ़ैलाने है तथा राज्य का प्रमुख विपक्षी दल बनना है इसलिए उसे कुछ ऐसे निर्णय लेने पड़ेगे जो अन्नाद्रमुक के नेताओ को शायद पसंद नहीं आयें।
राज्य में जिस प्रकार दोनों दलों ने मिलकर विधान सभा चुनाव लड़ा था इसलिए यह माना जा रहा था कि भविष्य के चुनावों में भी इस तरह मिलकर चुनाव लड़ा जायेगा। लेकिन ऐसा इस साल जनवरी में हुए स्थानीय निकायों के चुनावो में हो नहीं पाया। बीजेपी अपने शक्ति से कहीं अधिक सीटें मांग रही थी जो अन्न्द्रमुक के नेता देने को तैयार नहीं थे। 2019 के चुनावों में बीजेपी को पहली बार बड़ी जीत मिली थी जब वह राज्य में 4 सीटें जीतने में सफल रही थी। इसके बाद उसे लगा अब पार्टी के तेजी से विस्तार का समय आ गया है। लेकिन स्थानीय निकायों के चुनावों में उसे अधिक सीटों तो नहीं मिली लेकिन उसे 5 प्रतिशत से कुछ अधिक वोट मिले। इन मतों के आधार पर पार्टी के नेतृत्व ने यह दावा किया कि वह अब राज्य का तीसरा बड़ा दल बन गया है हालाँकि उसे दूसरे स्थान पर आने वाले अन्नाद्रमुक की अपेक्षा बहुत कम मत मिले थे। इन चुनावों के बाद दोनों दलों में दरार पैदा होने लगी। हालाँकि अपनी ओर से द्रमुक के संयोजक पनीरसेल्वम और सह संयोजक पाल्नीस्वामी ने अपनी ओर से इन गढ़ बंधन आने वाले मतभेदों का दूर करने का भरसक प्रयास किया।
उधर बीजेपी का केन्द्रीय नेतृत्व अन्नाद्रमुक के महत्व को समझता है इसलिए जब-जब 26 मई को प्रधानमंत्री राज्य के दौरे पर आये तो वे अन्नाद्रमुक के इन दोनों नेताओं को मिले। माना जाता है कि दोनों नेताओ ने इस बात पर जोर दिया की राज्य में बीजेपी के नेताओं को तमिलनाडु की राजनीति की मुख्य धारा के अनुसार ही चलना होगा। अगर ऐसा नहीं हो पाया तो बीजेपी कभी भी आगे नहीं बढ़ सकती। तमिलनाडु में हिंदी का विरोध एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा है। लगभग सभी दल इस मुद्दे को लेकर एक है। सभी दल शिक्षा के क्षेत्र में हिंदी सहित त्रि -भाषी फार्मूले का विरोध करते आ रहे हैं जबकि राज्य बीजेपी की इकाई इस फार्मूले की पक्षधर है। जब राज्य विधान सभा में त्रि-भाषा वाली नई शिक्षा नीति के विरोध में प्रस्ताव पारित किया तो केवल बीजेपी ही ऐसा दल था जिसने इस प्रस्ताव के विरोध में मतदान किया। इसी प्रकार कावेरी नदी जल विवाद पर बीजेपी तमिलनाडु का खुलकर पक्ष नहीं लेती।
अभी तक राज्य बीजेपी के अध्यक्ष अन्नामलाई खुद सीधे अन्नाद्रमुक पर हमला नहीं करते थे। यह काम उन्होंने पार्टी के दो उप अध्यक्षों- दुरईस्वामी और नागराज को दे रखा है। उधर अन्नाद्रमुक के ओर से हमले के कमान पोंनयन के हाथ में है। कुछ दिन पहले जब मामला बहुत आगे बढ़ गया तो इस शांत करने के लिए अन्नामलाई ने कहा कि पार्टी के इन दोनों नेताओं का यह व्यक्तिगत मत है पार्टी का नहीं। उधर अन्नाद्रमुक ने संयोजक पनीरसेल्वम ने भी अपनी पार्टी के पोंनयन के बयान को व्यक्तिगत कह कर रफा दफा करने की कोशिश की। लेकिन मन मुटाव अभी भी बना हुआ है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)