क्यों टले सुनवाई संभव है शीघ्र न्याय?
लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी एवं पूर्व सदस्य-राजस्व मण्डल हैं)
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देशभर में न्यायालयों में तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमें लम्बित है। राजस्व न्यायालयों में पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले मुकदमों की संख्या का अंबार है। फैसलों के बजाय मिलती है तारीख पर तारीख। वर्षो से दश्कों तक लम्बित रहने वाले मुकदमों के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है न्यायाधीश, वकील व अपराधीगण। न्याय प्रणाली अपराधियों के लिए भी सुविधाजनक है। प्रभावशाली लोगों के सामने न्यायिक प्रक्रिया अशक्त नजर आती है। ये लोग अपनी ताकत के बल पर कानून तोडमरोड कर रख देते है। बड़े जुर्मो में सजायाफ्त प्रभावी लोग तारीख दर तारीख लेते है। कुछ वर्षो बाद उनके अभिभावक की इस्तदुआ रहती है इतने साल जेल में काट लिए अब अदालत रहम करें। मर्डर की अपीले 8-10 साल तक सुनवाई के लिए तारीख दर तारीख के कारण पेंडिंग है। ऐसे प्रभावशाली अभियुक्त निजी आवास की तरह स्वतंत्र होते है, जेल से अपना व्यापार, कामधंधा भी चलाते हैं।
न्यायिक व पुलिस सुधारों की मालिमथ समिति का मैं सदस्य था। उस रिपोर्ट में कहा गया था ‘‘न्यायिक प्रणाली अभियुक्तों के पक्ष में है, अपराध पीड़ितों को कोई राहत नहीं मिलती। न्याय प्रणाली में असंदिग्ध साक्ष्यों के आधार पर ही अपराध साबित होने पर सजा दी जाती है। भारत की जेलों में 75 प्रतिशत कैदी बिना किसी सुनवाई के कैद है। न्यायिक सक्रियता के कारण भी रेगूलर मुकदमों की सुनवाई टलती रहती है। न्यायालयों ने सामाजिक व पर्यावरणीय मुद्दों पर प्रमुखता से सुनवाई की है। इससे न्यायपालिका द्वारा शीघ्र न्याय देने के महत्वपूर्ण काम को भुला दिया गया। मीडिया का रोल भी उत्साहवर्धक नहीं है।
न्यायालयो में मुकदमों को लम्बित रखने में वकीलों का तो निहित स्वार्थ है। अधिनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीश एक वर्ष में लगभग 1600 मामले सुनता है, उच्च न्यायालय में 5 हजार से अधिक, अधिकांश मामलों में स्थगन होता है। नतीजा हो है एक वर्ष में जितने मामले निपटाये जाते हैं उससे ज्यादा दर्ज हो जाते है। न्याय में देरी, न्याय से इंकार का वीभत्स रूप है। अदालतों की संख्या बढ़े, अदालतों का समय बढ़े, छुट्टियां कम हो, सायंकालीन अदालते स्थापित हो, ग्राम न्यायालयों का गठन हो, मुकदमों का वर्गीकरण हो, हर विभाग में हाईपावर कमेटी बने, समझाइश से मुकदमें हल करने का प्रयास हो। समर्पण की भावना से काम करने वाले ज्यादा से ज्यादा लोगों को न्यायपालिका में लाया जाये। वकीलों व सरकार की भी अहम भूमिका है, अफसर स्वयं निर्णय न कर अदालत के माध्यम से निर्णय चाहते है। न्यायधीशों व वकीलों की बहुलता है, उनके दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है।
मूर्धन्य पत्रकार वी.एन.नारायण के अनुसार न्यायिक प्रक्रिया एक गाय की तरह है। आम जनता इसके सींग से डरती है जबकि सरकार ने इसकी पूंछ पकड़ रखी है। वकील इसे हर समय दुहते रहते है, न्यायधीशों को लगता है वे गाय के मालिक है और इसे वे सबसे अधिक हरे भरे चरागाह में चरने की अनुमति देते है, इस बात की परवाह नहीं करते यह किसका है। वादी व पीड़ित भूखे मरते बछडे की तरह है जिसे दूध पीने गाय के पास भटकने भी नहीं दिया जाता। कुछ ही अपराधियों को सजा मिलती है, उससे भी कम पीड़ितों को न्याय मिल पाता है।
हमरी न्याय प्रणाली में वकीलों, न्यायधीशों, पुलिस, सरकार और इन से भी बढ़कर अपराधियों के लिए तो जगह है लेकिन पीड़ित के लिए कोई जगह नहीं है। न्यायिक सुधारों के साथ पुलिस सुधारों पर भी ध्यान देने की दरकार है। उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालयों में अधिकांश मुकदमों में राज्य एक पक्षकार है। 80 प्रतिशत रिट याचिकायें समझौते के आधार पर एक ही पेशी में निस्तारित हो सकती है।
न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी है, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि न्याय अंधा है बल्कि न्याय की देवी की दृष्टि में सभी पक्षकार व अधिवक्ता एक ही समान है, अपनेपन या परायेपन के आधार पर कोई तराजू को नहीं झुका सकता। सन् 1999 में जब अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने थे, उन्होंने सचिवालय में मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक प्री-लिटीगेशन रिड्रेसल कमेटी का गठन किया था जिसमें वित सचिव, विधि सचिव, एडवोकेट जनरल व संबंधित विभाग के सचिवों को सम्मिलित किया गया था। कमेटी नोटिस प्राप्त होने पर पक्षकार की व्यथा सुनकर प्रारम्भिक स्तर पर निर्णय करें, मुकदमों में कमी आई। इस प्रकार की प्री-लिटीगेशन रिड्रेसल कमेटी के गठन की आवश्यकता है।
न्याय को विलम्बित करने वाले सभी कानूनी प्रावधानों का पुरावलोकन किया जाये जिससे पत्रकारों को त्वरित न्याय मिल सके। न्याय दिवसों में बढ़ोतरी भी आवश्यक है, काजलिस्ट में जितने मुकदमें लगे हों उन्हें उसी दिन निस्तारण किया जाये, यदि किसी कारण निस्तारण नहीं हो सके तो अगले दिन लगे। निर्णय संक्षिप्त में हो, बहस के दिन फैसला सुनाया जाये। जितने कार्य घंटे न्यायधीश को मिलते है उनका उपयोग हो, अधिवक्ताओं की बहस की सीमा बांधी जाये। एक ही प्रकृति के मुकदमों का वर्गीकरण कर उन्हें एक साथ सूचीबद्ध किया जाये तथा उनका निर्णय कर निस्तारण कर दिया जाये। मुकदमों के अम्बार के लिए सरकार भी जिम्मेदार है, संबंधित अधिकारियों को शीघ्र निस्तारण करने व तारीखें मांगने से पाबन्द किया जाये।
न्याय प्रक्रिया में मौजूदा ढीलीढाली कार्य संस्कृति को बदला जाये, निश्चित मानदण्डों के आधार पर न्यायधीशों व अधिकारियों का मूल्यांकन करने के लिए आवश्यक कदम उठाये जाये। संसाधनों की व्यवस्था आवश्यकतानुसार बढ़ाई जाये। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)