पर्यावरण-दशा और दिशा : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

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पर्यावरण का अर्थ है जो हमारे चारों ओर परिलक्षित होता है। सभी प्रकार के जीव और भौतिक तत्व, वायु, जल, पेड, प्राणी, पर्यावरण के अंग है। बढ़ती जनसंख्या व औद्योगीकरण ने प्रकृति निर्मित तंत्र पर प्रतिकूल असर डाला है व वातावरण को प्रदूषित किया है। 

भारत में वायु प्रदूषण के प्रमुख स्रोत्रों में परिवहन, जैव ईंधन का उपयोग, बिजली उत्पादन, उद्योग निर्माण, अपशिष्ट दहन, कृषि अपशिष्टों का दहन आदि मुख्यतः रहे है जिससे श्वसन रोग, मृत बच्चों का जन्म, फेफड़ों का केंसर, ल्यूकेमिया जैसे रोगों का खतरा बढ़ जाता है। मौतों व बीमारियों के कारण सकल घरेलू उत्पाद को 2.60 लाख करोड़ रूपये का नुकसान हुआ है। वायु प्रदूषण से मृत्यु दर 115 फीसदी बढ़ी है। डब्लू.एच.ओ. के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग 38 मिलीयन लोगों की असामयिक मौत का कारण घरेलू वायु प्रदूषण है।

भारत में जिस गति से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है वह बढते वायु प्रदूषण का बड़ा संकेत है। इसके पीछे का कारण प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध उपयोग होना है। वायु प्रदूषण का दूसरा बड़ा कारण बढ़ते हुए उद्योग है जिससे निकलने वाला धुंआ सबसे ज्यादा वायु को प्रदूषित करता है। वनों की कटाई तीसरा बड़ा कारण है। वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण वायु प्रदूषण बढ़ा है तथा वायुमंडल में कार्बनडाई आक्साइड के स्तर में बढ़ोतरी हो रही है। चौथा प्रमुख कारण खनन कार्य है जिससे वायु में भारी मात्रा में धूल व रसायन निकलकर वायु को प्रदूषित करते हैं। कृषि विधियों में कीटनाशक व उर्वरकों का उपयोग वायुमण्डल को अमोनिया युक्त करता है जो एक बड़ा वायु प्रदूषक है। परिवहन में मुख्य रूप से ट्रक, टैम्पों और अन्य डीजल से चलने वाले वाहनों का प्रदूषण वायुमण्डल में तीव्र गति से असन्तुलन उत्पन्न करता है। 

कोयला आधारित विद्युत संयत्र सल्फर डाईआक्साइड, नाईट्रोजन आक्साइड, पर्टिकूलेट मैटर के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। एकल उपयोग वाले प्लास्टिक, खाद्य पैकेजिंग और पानी की बोतल से प्लास्टिक प्रदूषण बढ़ रहा है, खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर मानव स्वास्थ्य को हानि पहुंचा रहे है। प्लास्टिक प्रदूषण वास्तव में सामाजिक समस्या बन गया है। औद्योगिक रसायन बैंजिन जिसका उपयोग कीटनाशक बनाने के लिए किया जाता है, सफाई उत्पाद, पेंट, तम्बाकू के धुंए में अधिक पाया जाता है। इसके सम्पर्क से दीर्धकालीन प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभावों से रोग फैलते है। 

पर्यावरण सुधार के लिए वनों का सतत विकास, वन संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग आवश्यक है। भारत में भौगोलिक क्षेत्रफल का मात्र 24.56 क्षेत्र वनों व वृक्षों से आच्छादित है। राष्ट्रीय वेटलैण्ड संरक्षण कार्यक्रम के तहत वेटलैण्ड की पहचान की गई है। उनके संरक्षण एवं बुद्धिमतापूर्ण उपयोग से उनके विनाश को रोके जाने की आवश्यकता है। जल की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए झीलों एवं नम भूमियों के संरक्षण व पुर्नुद्धार की आवश्यकता है। भारत में तीन प्रकार के मैन्ग्रोव पाये जाते है। देश में कुल मैन्ग्रोव कवर 4975 वर्ग किलोमीटर है जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 0.15 प्रतिशत है। 

स्वच्छ पानी की कुल मात्रा में भूमिगत जल 30 प्रतिशत है जो 1.5 बिलीयन लोगों के लिए जल का प्राथमिक स्रोत है। भूमिगत जल में कमी मानव के लिए विकट समस्या पैदा करती है। औद्योगिक, नगरीय व कृषि अपशिष्टों से युक्त जल के रिसकर भूमिगत जल में मिल जाने से भूमिगत जल संक्रमित होता है। तेल रिसाव से समुद्री जीवन पर प्रभाव पड़ता है। जन निकायों में आक्सीजन की कमी होती है। जल प्रदूषण, नियंत्रण एवं रोकथाम अधिनियम संशोधन 1988 नदियों, अन्तःस्थलीय जल, भूजल, समुद्री व ज्वारीय जल पर लागू होता है जिससे नदियों, कुंओं, नालों आदि में प्रदूषित पदार्थो के उत्सर्जन पर प्रतिबंध लगाया है। 

संयत्रों के रिसाव से, पर्यावरण में गैस, अमोनिया आदि के उत्सर्जन से तापमान को बढ़ाते है, जल में रिसाव से जल विषाक्त हो जाता है। नाइट्रोजन प्रदूषण, प्लास्टिक प्रदूषण का खतरा बढ़ता जा रहा है। प्रदूषण की रोकथाम के लिए अपशिष्ट प्रबंधन, कचरा प्रबंधन में सुधार की आवश्यकता है। मरूस्थलीकरण के रोकथाम की आवश्यकता है। संरक्षित क्षेत्रों, राष्ट्रीय पार्को व वन्यजीव अभ्यारण्यों में निर्माण एवं औद्योगिक संबंधी गतिविधियों को प्रतिबंधित करने की आवश्यकता है। 

मानव की पर्यावरण गतिविधियों के कारण इस शताब्दी में कुछ महत्वपूर्ण एवं स्तनधारी जन्तुओं को विलुप्त होना पड़ा। समुद्री प्रदूषण व समुद्री पानी का तापमान बढ़ने से कोरलरीफ को काफी नुकसान हुआ। परिस्थिति की व्यवस्था में असंतुलन द्रुत गति से हो रहा है। मानव और प्रकृति की परस्पर अंतरनिर्माता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। मनुष्य ने सहअस्तित्व के स्थान पर प्रकृति के विरूद्ध संघर्ष का मार्ग अपना रखा है। मित्र और सहयोगी बनकर अपनी आवश्यकताएं पूरी नहीं की, परिणामस्वरूप प्रकृति के पर्यावरण का संतुलन गडबडा गया। अब आंखें खुल रही है जब स्थिति काबू से बाहर हो रही है परन्तु मनुष्य की गतिविधियां जिन्होंने पर्यावरण संतुलन बिगाड़ा वे अभी जारी है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)