लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान
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भारत धर्म प्रधान और अध्यात्म प्रधान देश है। हमारे देश में धर्मों और दर्शनों की मुख्य विचारधाराएं क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि धर्म और दर्शन का उद्देश्य सत्य की खोज है। सत्य अनेक रूपों वाला है। कुछ धर्म दर्शन मानव को केन्द्र में रहकर सत्य की खोज करते हैं। ऐसे दर्शनों के अनुसार मानवतावाद ही सबसे बड़ा धर्म दर्शन है। मानवतावाद, दर्शन की एक ऐसी विचारधारा है जिसके अन्तर्गत मानव तथा उसकी समस्याओं के विवेचन को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। मानवतावाद में मनुष्य को ही केन्द्रीय स्थान मिला है। यह विचारधारा मनुष्य के हितों से संबन्धित है। मानवतावाद मानव अस्तिव के लिए एक अनिवार्य विचारधारा है।
यह दर्शन मानव जीवन से संबंधित होने के कारण व्यापक मानव हितों को अपने अध्ययन का केन्द्र बनाता है। इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य है कि मानव जीवन में किस प्रकार के परिवर्तन किये जाय कि मानव की गरिमा, स्वाधीनता, सृजनात्मकता तथा सर्वोपरि मानव जीवन की रक्षा हो सके। इसलिए यह दर्शन मानवीय जीवन की समस्याओं के समाधान का भी प्रयास करता है। भारत में जैन एवं बौद्ध दर्शनों में मानवीय दृष्टिकोण का समर्थन मिलता है। इसमें मानव व्यक्तित्व और उसके पूर्ण विकास को मानव जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है। भारत के इन दोनों प्राचीन दर्शनों जैन एवं बौद्ध में मानव हित ही सर्वोपरि है। इसलिए इन दर्शनों में आधिदैविक शक्तियों को किसी प्रकार से स्वीकार नहीं किया गया है। मानव स्वयं अपना भाग्य विधाता है वह अपने श्रम के आधार पर स्वयं ईश्वर सदृश हो सकता है। मानव में पूर्ण संभावनाएं विद्यमान हैं।
अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र व शक्ति और स्वयं के प्रयास से वह अपनी इन विद्यमान शक्तियों का पुनर्जागरण कर सकता है। इन दर्शनों में इस मानवतावादी सिद्धान्त को पर्याप्त बल दिया गया है कि हमारे कष्टों का उपचार स्वयं हमारे प्रयत्नों से होगा। जैन एवं बौद्ध दोनों दर्शनों में मनुष्य ही नहीं वरन् वनस्पति भी मनुष्य तुल्य अपना महत्व रखती है। मानवीय दृष्टिकोण की स्थापना के लिए कपट, सहिष्णुता, तितिक्षा, करुणा और अपरिग्रह की मान्यता एक अनिवार्य शर्त है। “परस्परोपग्रहोजीवानाम्“ से लेकर ’जियो और जीने दो’ का सिद्धान्त ही मानवीय दृष्टिकोण की मुख्य धुरी है, जिसमें मानवतावाद का पर्याप्त पोषण किया गया है। दया और करुणा का भाव ही मानवतावादी दर्शन के मूल में प्रतिष्ठित है, अतः मानवतावाद कोरा दर्शन न होकर जीवन दर्शन है, जो किसी भी जीव के अस्तित्व व गरिमा को स्थापित करता है।
इसके अंतर्गत व्यक्ति की संवेदना व दया, करुणा का भाव समस्त सृष्टि के जीवधारियों के लिए होता है। अतः अहिंसा इस दर्शन की प्रतिष्ठा के लिए सबसे अनिवार्य शर्त है। सभी धर्म दर्शनों में धर्म के व्यावहारिक स्वरूप को मानव जीवन के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया है, इसलिए इन दर्शनों में धर्म के रूप में कर्म को प्रधानता दी गई है। मानव जीवन में उत्पन्न समस्याओं का व्यावहारिक समाधान एवं मनुष्य को ईश्वर तुल्य महत्ता प्रदान की गई है। इन दर्शनों में पारलौकिक उद्देश्यों की पूर्ति की अपेक्षा सांसारिक हितों की उपेक्षा नहीं की गई है। इन दर्शनों में बिना किसी दैविक सत्ता को स्वीकार किए भी मानव को अपना चरम विकास करने की संम्भावना व्यक्त की गयी है। आध्यात्मिक लक्ष्य को स्वीकार करते हुए भी वर्तमान जीवन को उपेक्षित नहीं माना गया है।
आध्यात्मिक मानवतावाद के अनुसार मानव जीवन का उद्देश्य मात्र इतना नहीं है कि वह सत्य का साक्षात्कार करे अपितु सत्य के साक्षात्कार के साथ-साथ उस व्यवहार (आचार) को भी सतत अपने जीवन में उतारे, जिसके आधार पर उसने सत्य बोध प्राप्त किया। इसलिए भारत के सभी दर्शनों में तत्व मीमांसा के साथ-साथ आचार-मीमांसा का भी उतना ही महत्व हैं। भारत ही नही वरन् विश्व के सभी श्रेष्ठ चिंतकों, दार्शनिकों एवं समाज सुधारकों ने भी मानवतावाद की स्थापना के लिए ज्ञान के साथ-साथ आचार को भी महत्व देते हुए मानवतावादी भावना से अभिप्रेरित दिखाई देते हैं। इस रूप में संसार के सभी प्रमुख प्राचीन धर्म मानवतावाद की भूमिका पर प्रतिष्ठित हैं। प्रत्येक धर्म प्रवर्तक के मन में विश्व के प्राणियों के प्रति असीम संवेदना और करुणा का भाव रहा है।
मानव के साथ-साथ प्रत्येक प्राणी शांति सौहार्द एवं सद्भावना के साथ जीवन निर्वाह कर सके यही उद्देश्य प्रांरम्भिक सभी धर्म दर्शनों का है। मनुष्य अपने व्यक्तिगत संतोष एवं आत्म विकास द्वारा सामाजिक रूप से सक्रिय रहकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है। मानवतावाद, मानव जीवन को सर्वांगपूर्ण तथा सौन्दर्यमय बनाने पर बल देता है। वैज्ञानिक आर्थिक प्रगति ने सिर्फ मानव जीवन के स्तर को ही प्रभावित नहीं किया अपितु मानव की विचारधारा पर भी प्रभाव ड़ाला।
आज ईश्वर, धर्म, परलोक, भाग्य जैसी रहस्यमय अवधारणाओं को नकारकर मानव एवं उसकी क्षमता की सीमा में आने वाले भौतिक विषयों के संबंध में विचारधाराओं का विकास हो रहा है। प्रकृतिवादी मानवीय दृष्टिकोण के अनुसार स्वर्ग प्राप्ति की लिप्सा त्याग कर मनुष्य को पारस्परिक सहयोग के आधार पर जन कल्याणकारी योजनाओं को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। प्रकृति के प्रति अनुक्रियाशील रहकर ही मानव में चरित्र, विवेक, ज्ञान, सहयोग, प्रेम, मैत्री इत्यादि सभी मानव मूल्यों का समर्थन प्रकृतिवादी करते हैं। भारतीय दर्शन का उद्देश्य यह है कि जो हमारे प्रतिकूल हो वैसा आचरण हमें दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)