(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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आर्थिक नीतियों से कितना फायदा हो रहा है इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इससे किसको फायदा हो रहा है। आजादी के बाद गत 70 वर्षो में ‘‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’’ हेतु नियोजित विकास कार्य आरम्भ हुए एवं अनेको नीतियां बनी जिसका लाभ भी निश्चित रूप से समाज के हर तबके को मिला। अर्थव्यवस्था ने जिस दर से विकास किया वह निश्चित रूप से हर किसी के लिए महत्वपूर्ण व प्रशंसनीय है लेकिन इस स्थिति में अब स्याह व डरावनी तस्वीर भी उपस्थित होने लगी है। वर्तमान में देश में व्याप्त गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, मंहगाई और असमानता से उपजी बदहाली सबसे बड़ी चुनौती पेश कर रही है।
कुछ वर्ष पूर्व नोटबंदी, जीएसटी, कोराना के लम्बे लोकडाउन से पूर्व हमारी विकास दर सकल घरेलु उत्पाद के 9.2 प्रतिशत तक पंहुच गई थी। आर्थिक सुधारों के नतीजे भी सामने आये। विदेशी मुद्रा भण्डार बढ़ा, विदेशी निवेश बढ़ा, भारतीय अर्थव्यवस्था की रेटिंग निवेश स्तर की व सकारात्मक निर्धारित की जाने लगी। अर्थव्यवस्था में सुधार का असर लोगों की आय पर पड़ा। देश ने हजारों करोड़पति व सैकड़ों अरबपति पैदा किये जिनमें कुछ दुनिया के शीर्षस्थ लोगों में शुमार है। आम आदमी की आय में भी फर्क आया, 25500 से अधिक हो गई जबकि 1993-94 में भी 13000 पंहुची थी। देश में आयकरदाताओं की संख्या में वृद्धि हुई।
गरीबी के स्तर में कमी आई। एनएसएस सर्वे के अनुसार देश में गरीबों की संख्या 29 फीसदी है जो 1980 में 40 प्रतिशत थी। गत वर्षो में रोजगार के अवसरों में वृद्धि दर बहुत कम रही है। भारत में मात्र 10 प्रतिशत रोजगार संगठित क्षेत्र में है बाकि 90 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में है। इसमें भी 80 प्रतिशत की संख्या से भी ज्यादा अनस्किल्ड लेबर्स के लिए। रोजगार का सृजन मात्र 5 प्रतिशत ही हुआ है। इस प्रकार गरीब ओर गरीब तथा अमीर ओर ज्यादा अमीर बन रहे है। हमारी अर्थव्यवस्था ने आज जो स्थिति प्राप्त की है वह उद्योग और सेवा क्षेत्र के जरिये की है। राष्ट्रीय उत्पादन में इनका हिस्सा 78 प्रतिशत है। इन क्षेत्रों से जुड़े लोग मात्र 45 प्रतिशत है जबकि 65 प्रतिशत लोग आज भी खेती से जुड़े है। कृषि में रोजगार वृद्धि की दर महज डेढ प्रतिशत है जबकि गांवों में बढ़ रही बेरोजगारी की दर ढाई प्रतिशत है। कृषि कार्य मंहगा होने से किसान कृषि छोड़ रहे है। इस क्षेत्र में निवेश बहुत कम हुआ है और तकनीकि प्रगति भी मामूली हुई है।
उदारीकरण का प्रभाव छोटे व मझौले उद्योगों पर बहुत बुरी तरह पड़ा है। ग्रामीण इलाकों के पारम्परिक उद्योगों के बन्द होने से बेरोजगारों की संख्या में और वृद्धि हुई है। इस समय देश में करीब 5 से 6 करोड़ लोग बेरोजगार है। यह वृद्धि 300 प्रतिशत से भी अधिक है। बेलगाम बढ़ती आबादी व अशिक्षा भी गरीबी का बड़ा कारण है। आम लोगों को आधारभूत सुविधायें नहीं मिल पा रही।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा गरीबी को परिभाषित करते कहा गया है कि भोजन, आवास, वस्त्र, शौच, शिक्षा, चिकित्सा, शुद्ध पेयजल आदि में से कोईतीन सुविधायें जिके पास नहीं है वे गरीब है। भारत की 32 प्रतिशत जनसंख्या अपने उपर भोजन के लिए 20 रूपया भी खर्च नहीं कर पाती। 40 परिवार आज एक कमरे में रहते है, साक्षरता में भी अभी ग्रामीण क्षेत्रों व महिलाओं में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई। बढ़ती जनसंख्या को शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं है, चिकित्सा कभी मुख्य एजेन्डे में नहीं रही। 1951 में जितनी भारत की आबादी थी उतनी आबादी आज गरीबी की सीमा रेखा के नीचे है।
भारत ने उंची विकास दर हासिल की है, इसका लाभ आम लोगों नहीं मिला। विकास दर का मतलब होता है रोजगार की ज्यादा संभावनाएं, ज्यादा विकास, लोगों के हाथों में ज्यादा पैसा। बहुतायत जनता के लिए लाभ नहीं पंहुचा, विकास असंतुलित ढंग से ही हो रहा है। भूखे पेट लोगों के दिल में असंतोष ने घर कर लिया है। हाथों में रोजगार, रोजगार की सही कीमत ही विकास का सही मतलब है। परिणामात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तन, राष्ट्रीय उत्पाद के साथ जीवन की गुणवत्ता में सुधार आवश्यक है। विकास के साथ गरीबी जुड़ी हुई है।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना तक विकास दर 9 प्रतिशत तक पंहुच गई। वर्तमान में कोरोना महामारी के कारण माईनस में भी आ गई। अब जरूरी है कि सरकार गांव व कृषि व्यवस्था पर, रोजगार के लिए लघु व मध्यम उद्योगों पर ध्यान दे। कृषि की विकास दर में गिरावट आयेगी तो गरीबी बढ़ेगी। गरीबी दूर करने हेतु अन्न की पैदावार, रोजगार में वृद्धि व शिक्षा जरूरी है।
उच्च विकास दर का फल गरीबी उन्मूलन में तभी होगा जब उसका उपयोग रोजगार सृजन में हो। शिक्षा वैज्ञानिक व तकनीकी प्रयोग से कृषि, लघु व मध्यम उद्योगों को लाभ मिले। दक्षिणपंथी व कारपोरेट सेक्टर को मजबूत करने के साथ आम लोगों के कल्याण पर ध्यान दिया जाये, उसे प्रमुखता दी जाये। (लेखक का होना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)