त्याग और समर्पण का पर्व है ईद अल-अज़हा

 ईद अल-अज़हा का सन्देश : स्वार्थ से परे खुद को मानव उत्थान के लिए लगाना 


लेखक : सद्दीक अहमद 

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ईद अल-अज़हा जिसका मतलब अरबी में ईद-उल-अद्'हा- होता है यानि क़ुरबानी की ईद। मज़हब-ए-इस्लाम धर्म में यह एक प्रमुख त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। रमजान के पवित्र महीने की समाप्ति के करीबन 70 दिनों बाद इसे मनाया जाता है। इस्लामिक मान्यता के अनुसार हज़रत इब्राहिम अपने पुत्र हज़रत इस्माइल को इसी दिन खुदा के हुक्म पर खुदा कि राह में कुर्बान करने जा रहे थे, तो अल्लाह ने उनके पुत्र को जीवनदान दे दिया जिसकी याद में यह पर्व मनाया जाता है।

हिंदी उर्दू भाषाई क्षेत्रों में असल नाम ईद अल-अज़हा से बिगड़कर भारत, पाकिस्तान व बांग्ला देश में यह 'बकरा ईद' के नाम से ज्यादा विख्यात हो गया। बकरी-बकरा से इसका नाम जुड़ा है। ईद-ए-कुर्बां का मतलब है त्याग, बलिदान की भावना। अरबी में 'क़र्ब' नजदीकी या बहुत पास रहने को कहते हैं मतलब इस मौके पर अल्लाह् इंसान के बहुत करीब हो जाता है। जि़लहिज्ज (हज का महीना) की 7,8,9 व 10 तारीख को हर माँ-बाप को अपनी औलाद के लिए दुआ करनी चाहिए। क्योंकि इन दिनों में हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने अपनी औलाद के लिए दुआएं मांगी थी। उन्होंने औलाद के लिए ईमान, सेहतमंद, माल, इज्जत, फरमाबरदार व बरकत की दुआ की। ऐसे में हमें भी अपनी औलाद के लिए ईमान, नेक, स्वालेह, फरमाबरदार और उनकी बेहतरी के लिए दुआएं करनी चाहिए। 

अल्लाह की राह में कुर्बानी किस पशु की, कितनी उम्र की हो ये बातें सभी मुस्लिम धर्मावलम्बी जानते हैं। यदि कोई नहीं जनता है तो वो किसी भी आलिम, बुजुर्ग से इसका मशवरा कर क़ुरबानी के लायक पशु लेकर अल्लाह की राह में कुर्बान कर सकता है। कुरान मज़ीद फरमाता है हमने तुम्हें हौज़-ए-क़ौसा दिया तो तुम अपने अल्लाह की रज़ा के लिए नमाज़ पढ़ो और कुर्बानी करो। कुर्बानी वाले जानवर के गोश्त को तीन हिस्सों में बांटा जाना पसंद किया जाता है। एक तिहाई हिस्सा परिवार में बरकरार रहता है और एक तिहाई रिश्तेदारों, दोस्तों, और पड़ोसियों को दिया जाता है और बाकि तीसरा हिस्सा गरीबों और जरूरतमंदों में बांट दिया जाता है।

बकरीद का त्यौहार हिजरी के आखिरी महीने जि़लहिज्ज (हज का महीना) ज़ु अल-हज्जा में मनाया जाता है। पूरी दुनिया के मुसलमान इस महीने में मक्का (सऊदी अरब) में जमा होकर हज करते हैं। ईद उल अजहा भी इसी दिन मनाई जाती है। वास्तव में यह हज की एक अंशीय अदायगी और मुसलमानों के भाव का दिन है। दुनिया भर के मुसलमान एक समूह में मक्का में हज करते है बाकी सभी मुसलमानों के लिए यह दिन अंतरराष्ट्रीय भाव का दिन बन जाता है। ईद उल अजहा का अक्षरश: हिंदी में अर्थ होता है त्याग वाली ईद।

हज और उसके साथ जुड़ी हुई पद्धति हजरत इब्राहीम और उनके परिवार द्वारा किए गए कार्यों को प्रतीकात्मक तौर पर दोहराने का नाम है। हजरत इब्राहीम के परिवार में उनकी पत्नी हाजरा और पुत्र इस्माइल थे। मुस्लिम मान्यता है कि हजरत इब्राहीम ने एक स्वप्न देखा था जिसमें वह अपने पुत्र इस्माइल की कुर्बानी दे रहे थे हजरत इब्राहीम अपने दस वर्षीय पुत्र इस्माइल को अल्लाह की राह पर कुर्बान करने निकल पड़े। किताबों में आता है कि अल्लाह ने अपने फरिश्तों को भेजकर इस्माइल की जगह एक जानवर की कुर्बानी करने को कहा। दरअसल इब्राहीम से जो असल कुर्बानी मांगी गई थी वह थी उनकी खुद की थी अर्थात ये कि खुद को भूल जाओ, मतलब अपने सुख-आराम को भूलकर खुद को मानवता/इंसानियत की सेवा में पूरी तरह से लगा दो। तब उन्होनें अपने पुत्र इस्माइल और उनकी मां हाजरा को मक्का में बसाने का निर्णल लिया। लेकिन मक्का उस समय रेगिस्तान के सिवा कुछ न था। उन्हें मक्का में बसाकर वे खुद मानव सेवा के लिए निकल गये।

इस तरह एक रेगिस्तान में बसना उनकी और उनके पूरे परिवार की कुर्बानी थी जब इस्माइल बड़े हुए तो उधर से एक काफिला गुजरा और इस्माइल का विवाह उस काफिले (कारवां) में से एक युवती से करा दिया गया फिर शुरू हुआ एक वंश जिसे इतिहास में इश्माइलिट्स, या वनु इस्माइल के नाम से जाना गया। हजरत मुहम्मद साहब का जन्म इसी वंश में हुआ था। ईद उल अजहा यह याद दिलाता है कि कैसे एक छोटे से परिवार में एक नया अध्याय लिखा गया।

ईद की नमाज़ : मस्जिद में मुस्लिम ईद अल-अधा की नमाज पढ़ते हैं। ईद अल-अधा की नमाज़ (प्रार्थना) किसी भी समय की जाती है जब सूरज पूरी तरह से जुहर के प्रवेश से ठीक पहले उठता है, 10 वीं तारीख को धु अल-हिजाह पर। एक बल की घटना (उदाहरण के लिए प्राकृतिक आपदा) की स्थिति में, प्रार्थना को धु-अल-हिजाह की 11 वीं और फिर धु-अल-हिज्जाह की 12 वीं तक देरी हो सकती है।

सामूहिक तौर पर ईद की नमाज़ अदा की जानी चाहिए। इसमें दो रकात (इकाइयाँ) शामिल हैं, मय छ: तकबीरों के। शिया मुसलमानों के लिए, सलात अल-ईद रोज़ाना की पाँच नमाजों से अलग है। जिसके लिए कोई अज़ान नहीं दी जाती। सभी जगह इसका वक़्त अलग अलग हो सकता है ईद की नमाज के बाद इमाम साहब द्वारा खुतबा, या उपदेश दिया जाता है।

नमाज और खुतबा पूरा होने पर, मुसलमान एक दूसरे के साथ गले मिलते हैं और एक दूसरे को बधाई (ईद मुबारक) देते हैं और एक दूसरे से मिलते हैं। बहुत से मुसलमान अपने त्योहारों पर अपने गैर-मुस्लिम दोस्तों, पड़ोसियों, सहकर्मियों और सहपाठियों को इस्लाम और मुस्लिम संस्कृति के बारे में बेहतर तरीके से परिचित कराने के लिए इस अवसर पर दावत के रूप में अपने घर बुलाते हैं।

ईद-उल-जुहा यह मुसलमानों के लिए विशेष इसलिए भी है कि इस दिन हर मुसलमान आपसी दुश्मनी को भूलकर एक साथ गले मिलकर मुबारकबाद देते है। त्याग के रूप में दान को हर धर्म में तवज्जो दिया जाता है। इस इस्लामिक पर्व के दिन भी काबिल लोग गरीबों को दान करते हैं। यह पर्व हमें प्रेम, भाईचारे तथा त्याग के महत्व को समझाता है। ईद उल अजहा साफ तौर पर दो संदेश देता है पहला परिवार के बड़े सदस्य को स्वार्थ के परे देखना चाहिए और खुद को मानव उत्थान के लिए लगाना चाहिए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है, इस आर्टिकल को किसी भी धर्म की किताबों या परम्पराओं से जोड़कर न देखा जाए)