तमिलनाडु जहाँ आज भी दलित पंचों और सरपंचों को अधिकार नहीं

लेखक : लोकपाल सेठी

(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक)

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ऐसे समय में जब देश आज़ादी की 75 जयंति मना रहा था धुर दक्षिण के तमिलनाडु राज्य में दर्जनों पंचायत प्रधानो को 15 अगस्त के दिन सरकारी समारोहों में राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराने दिया गया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ बल्कि बरसों से ऐसा ही होता आ रहा है। 

यह उस राज्य में हो रहा है जहाँ लम्बे समय से द्रमुक और उससे टूट कर बने दलों की वहां सरकारें थी। ये दल राज्य के सबसे बड़े समाज सुधारक ई वी रामास्वामी, जो पेरियार के नाम से अधिक जाने जाते है, की विचारधारा को मानने का दावा करते हैं। दलितों के साथ ऐसा भेदभाव कई स्तरों पर हो रहा है तथा इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। जब भी भेदभाव की कोई घटना सामने आती है उसकी जाँच के नाम पर लीपा पोती कर दी जाती है और मामला दब जाता है। 

राज्य में तमिलनाडु छूआछूत हटाओ मोर्चा कई सालों से इस तरह के मामलों पर नज़र रख रहा है तथा जब भी ऐसी कोई घटना सामने आती है तो उसकी ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करता है तथा इस बात का दवाब बनाता है कि दोषियों के खिलाफ कड़ी करवाई  हो। वह ऐसे मामलों की गहराई से जाँच करता है  तथा सभी तथ्यों को उजागर करता है। हाल ही में इसके लगभग 400 कार्यकर्ताओं ने राज्य के 24 जिलों में पंचायतों के निर्वाचित दलित पदाधिकारियों के साथ  होने वाले भेदभाव का सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि पंचायतों निर्वाचित दलित पदाधिकारियों के साथ कम से कम 17 प्रकार  के  भेदभाव होते है। लगभग  60 पंचायतों  में यह पाया गया कि पंचायत के निर्वाचित दलित प्रधान के लिए उसके लिए ऑफिस में कोई कुर्सी ही नहीं है। जहाँ कही कुर्सी है वहां भी तो उस पर उसे बैठने नहीं दिया जाता। पिछले कई सालों बहुत सी पंचायतों में इसके दलित प्रधानों को गणतंत्र दिवस और  स्वतंत्रता दिवस पर होने वाले समारोहों में बुलाया ही नहीं गया। अगर बुलाया भी गया है तो उन्हें राष्ट्रीय ध्वज फहराने नहीं दिया गया।

इन पंचायतो की होने वाली बैठकों से दलित प्रधान को बुलाया ही नहीं जाता। बस बैठक में रखे गए और पारित  किये गए प्रस्तावों पर बाद में उनके हस्ताक्षर करवा लिए जाते हैं। अगर किसी बैठक में प्रधान को बुला भी लिया गया तो उस इसकी अध्यक्षता नहीं करने दी जाती बस उन्हें एक कोने में नीचे बिठा दिया जाता है जबकि अन्य सदस्यों को कुर्सी पर बिठाया जाता है। ऐसे भी घटनाएँ सामने आई है कि जब दलित प्रधान ने पंचायत सभा की बैठक की अध्यक्षता करने पर जोर दिया तो गैर दलित सदस्यों ने बैठक का ही बहिष्कार कर दिया। यहाँ तक कि पंचायत के सरकारी अधिकारी भी दलित प्रधान को उसके  अधिकारों से दूर रखते है। उनके पास कोई फाइल अथवा ऐसा ही दस्तावेज़ नहीं भेजा जाता। यहाँ तक कि पंचायत को चलाने के लिए उनसे किसी प्रकार का सलाह मशविरा तक नहीं किया जाता। ऐसे भी कुछ मामले सामने आए जहाँ पंचायत के प्रधान को पंचायत के कार्यालय में भी नहीं आने दिया जाता। 

जरूरत पड़ने पर उनके घर जा कर बिना कोई जानकारी दिए संबंधित कागजों पर उनको हस्ताक्षर करने के लिए कहा जाता है। ऐसी पंचायतो में वहां लगी पट्टियों पर  दलित प्रधान का नाम भी नहीं लिखा होता जबकि सरकारी आदेश में साफ़ कहा गया है की इन पट्टियों पूर्व तथा वर्तमान प्रधान का नाम लिखना जरूरी होता है।  नियम के अनुसार प्रधान के पंचायत कार्यालय के ताले की चाबी रखी जानी चाहिए लेकिन अक्सर दलित प्रधान को यह चाबी नहीं दी जाती। अगर किसी पंचायत में दलित प्रधान है और वहां उच्च जाति का उप प्रधान है तो वह उससे अलग कमरे में बैठने की मांग करता है  जबकि सामान्य तौर पर प्रधान और उप प्रधान एक ही कमरे में बैठते है। सबसे बड़ी और चौंकाने वाली बात यह है सामने आई है कि पंचायत के सरकारी अधिकारी भी दलित प्रधान के साथ भेदभाव करते है तथा उनके साथ सहयोग नहीं करते। दलित महिला पंचायत प्रधानों की हालत तो और भी ख़राब ही उन्हें उनके अधिकार दिलाने में कोई सहायता नहीं करता। सर्वेक्षण में ऐसी भी  कुछ घटनाएँ सामने आई जिनमें उन दलित प्रधानों पर हमले हुए जिन्होंने अपने अधिकार पाने के लिए जोर दिया।

संस्था ने अपनी रिपोर्ट 15 अगस्त से पहले सौंप दी थी तथा सरकार से आग्रह किया कि वह इस बात को पुख्ता करे की आज़ादी के अमृत महोत्सव के दौरान  आज़ादी के 75 वीं वर्षगांठ पर सभी दलित प्रधान राष्ट्रीय ध्वज फहरा सकें। लेकिन पंचायतों से आने वाली रिपोर्ट बताती है कि सरकार के निदेश के बावजूद  दर्जनों पंचायतों में दलित प्रधानों को स्वंत्रता समारोहों से दूर रखा गया। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)