गणेश चतुर्थी पर अब डंकों की खनखनाहट नहीं देती है सुनाई...

विलुप्त हुआ परम्परागत गीत, युवा पीढ़ी है अनजान

शैलेश माथुर की रिपोर्ट  

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सांभरझील (जयपुर)। भाद्र पक्ष की चतुर्थी को पूरी श्रद्धा के साथ रिद्धि सिद्धि के दाता भगवान श्रीगणेश का जन्मोत्सव मनाने की परम्परा यूं सदियों पुरानी है, लेकिन कालान्तर में अब गणेश चतुर्थी के पर्व में शनै: शनै: काफी परिवर्तन भी देखने को मिल रहा है। प्रथम पूज्य भगवान श्री गणेश का भाद्र पक्ष की चतुर्थी को जन्म हुआ था, इसीलिये इसे आज भी गणेश चतुर्थी के रूप में पूरी श्रद्धा व धूमधाम से मनाकर बुद्धि के दाता भगवान गणेश की अनेक प्रकार से पूजा अर्चना कर उन्हें प्रसन्न किया जाता है। वर्तमान हालात में जहां लोगों की दिनचर्या व खानपान में काफी बदलाव आया है उसी अनुरूप करीब करीब सभी त्यौंहारों को मनाये जाने के स्वरूप में भी यही स्थिति देखने को मिल रही है। पीढियों से जिस परम्परागत तरीके से गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जाता था वह पूरी तरह से लुप्तप्राय हो गयी है। 

अपनी यादों को साझा करते हुये यहां के स्वतंत्रता सेनानी रहे बिहारीलाल खोडवाल के पुत्र प्रोफेसर सुरेन्द्र अग्रवाल ने बताया कि आजादी से पहले जब सरकारी स्कूल कम हुआ करते थे और पब्लिक स्कूलें भी नहीं थी, उस वक्त प्रारम्भिक शिक्षा के लिये पंडित जी के यहां घरों पर जाना पड़ता था तथा उन्हें पंडितजी की स्कूल के नाम से जाना जाता था। गणेश चतुर्थी के मौके पर पंडित जी बच्चों को साथ लेकर डंके खनखनाते हुये सभी के घर के जाते और परम्परागत गीत चौक च्यानणी भादूड़ो-दे दे माई लाडूड़ों, आधौ लाडू भावै काेनी-सांपतो पांती आवै कोनी...गीत गाते हुये जाने की पुरानी परम्परा प्रचलित रही है। इस दिन बच्चों की मां पंडितजी के तिलक व आरती कर दक्षिणा व लड्‌डू प्रदान करती थी तथा बच्चे पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लेते थे। 

इस तरह गणेश चतुर्थी पर बच्चे पंडितजी यानी गुरू के साथ गलियों व मौहल्लों में डंकों की खनखनाहट करते हुये उक्त गीत गाते चलते थे। उस जमाने में गुड़ से बनायी जाने वाली गुड़धाणी घरों में प्रमुखता से बनायी जाती थी। गणेश चतुर्थी के मौके पर दाल-बाटी चूरमा आज भी घरों में मनाया जाता है तथा मुख्य द्वार पर भगवान श्रीगणेश की प्रतिमा का श्रंगार कर दीप प्रज्जवलन कर पूजा जरूर की जाती है, लेकिन डंकों की खनखनाहट अब सुनायी नहीं देती है। स्मृतियों में वहीं परम्परागत गीत जो अब सुनायी नहीं देता है, वह गीत इस प्रकार से उस जमाने में गाया जाता था। चौक च्यानणी भादूड़ो, दे दे माई लाडूड़ो। आधौ लाडू भावै कौनी, सा'पतौ पाँती आवै कौनी। सुण सुण ऐ गीगा की माँय, थारौ गीगौ पढ़बा जाय। पढ़बा की पढ़ार्इ दै, छोरा नै मिठाई दै। आळो ढूंढ दिवाळो ढूंढ, बड़ी बहु की पैई ढूंढ, ढूंढ ढूँढाकर बारैआ, जोशी जी कै तिलक लगा, लाडूड़ा मै पान सुपारी, जोशी जी रै हुई दिवाळी। जौशण जी नै तिलियाँ दै,छोरा नै गुडधानी दै, ऊपर ठंडो पाणी दै। एक विद्या खोटी, दूजी पकड़ी चोटी। चोटी बोलै धम धम, विद्या आवै झम झम।