विवाह एक सामाजिक जरूरत

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान

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भारतीय संस्कृति में सोलह संस्कारों में विवाह भी एक संस्कार है। विवाह का तात्पर्य है वर और वधू का मिलन। सामाजिक व्यवस्था के संचालन में विवाह का महत्वपूर्ण योगदान है। विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है। स्वस्थ समाज की स्थापना में विवाह का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान हैं। विवाह के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि विवाह न हो तो समाज पशुवत हो जायेगा। समाज की संरचना मनुष्यों के पारस्परिक सहयोग और संगठन से होती है। विवाह एक प्रकार का दो आत्माओं का मिलन है। भारतीय जीवन दृष्टि और पाश्चात्य जीवन दृष्टि में बहुत अन्तर है। पाश्चात्य संस्कृति में विवाह एक समझौता है। पति और पत्नी में जब तक प्रेम हैं तब तक एक साथ रहते है। जैसे ही किसी प्रकार का विवाद हुआ, तलाक देकर दूसरा विवाह कर लेते है। किन्तु हिन्दू धर्म के अनुसार यह एक ऐसा पवित्र बन्धन हैं जिसमें दो आत्माओं का मिलन होता है। 

जीवन और मृत्यु तक दोनों साथ-साथ रहने का वचन देते है। अग्नि को साक्षी मानकर पुरोहित के द्वारा विधिवत् कर्मकाण्ड की विधि से यह संस्कार सम्पन्न किया जाता है। विवाह धर्म के आधार पर होते है। हिन्दू धर्म में हिन्दू धर्म की रीति रिवाज के अनुसार विवाह सम्पन्न होता है। इस्लाम धर्म की रीति रिवाज के अनुसार विवाह होता हैं और ईसाई धर्म में ईसाई रीति रिवाज के अनुसार विवाह सम्पन्न होता है। कभी-कभी प्रेम विवाह का भी आयोजन हो जाता है। ऐसा विवाह न्यायालय में जाकर लड़के और लड़की न्यायाधीश के समक्ष अपनी वेवाहिक योजना के बारे में शपथ पत्र देकर पति और पत्नी की तरह रहने का राजीनामा करा लेते है। ईस्लाम धर्म मंे बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन है। किन्तु हिन्दू धर्म में केवल एक ही विवाह किया जा सकता है। ईस्लाम धर्म मंे तीन विवाह की प्रथा है। यदि कोई अपनी पत्नी को तलाक देना चाहे तो वह उसे तलाक देकर पुनः दूसरा विवाह कर सकता है। 

मुस्लिम धर्म में विवाह को एक समझौते के रूप में ही लिया जाता है। आजकल भारत में मुस्लिम वैवाहिक रीति रिवाज में सुधार करने के लिए और स्त्रियों को सम्मानजनक जीवन जीने के लिए प्रेरित करने के लिए सुधार की आवाज उठाई जा रही है। मुस्लिम धर्म में स्त्रियां पुरुषों के अन्याय तथा अत्याचार को सहन करती है। वहां स्त्रियों की स्वतन्त्रता तथा समानता को खतरा पैदा होना स्वाभाविक है। तलाक की प्रथा पुरुष के सर्वथा अनुकूल है। हिन्दूओं में विवाह में दहेज की प्रथा प्रचलित है। इससे कन्यापक्ष की स्थिति बहुत कमजोर हो जाती है। अनुचित दबाव डालकर कन्यापक्ष से दहेज लिया जाता है। प्रश्न उठता है कि यह दहेज क्यों लिया जाता है? विवाह तो जीवन का स्वैच्छिक और मांगलिक स्वप्न है। इसमें लेन-देन कैसा? स्त्री पुरुष की समानता की बात को आघात क्यों? धर्म के नाम पर यह समानता क्यों? 

दहेज समाज के रीढ़ की हड्डी तोड़ रहा है। दहेज न देने पर वर पक्ष द्वारा वधू पर पाश्विक अत्याचार किये जाते है, उसे प्रताड़ित किया जाता है। यहां तक की कभी-कभी उसे मार-पीटकरके जला दिया जाता है। आज व्यक्ति का सर्वाधिक ध्यान अर्थ केन्द्रित हो गया है। वह सहजीवनीय अस्तित्व की अपेक्षा धनोपलब्धि को अधिक महत्व देता है। पति पत्नी का जो सम्बन्ध हैं उसको महत्व न देकर धन की लालच में सम्बन्ध को ताक पर रख दिया जाता है। जब व्यक्ति अपने जघन्य कृत्य पर उतर आता है, तब सुखी समाज की स्थापना कैसे हो सकती है। विवाह एक सामाजिक उत्सव है। यह व्यक्ति के जीवन का सबसे मांगलिक क्षण होता है। किन्तु यह आजकल अभिशाप सिद्ध हो रहा है। इसका कारण यह है कि मानवीय चरित्र खत्म हो रहा है और प्रेम सौहार्द्र की सत प्रवृत्तियां धीरे-धीरे नष्ट हो रही हैं। सहजीवन की भावना कम हो रही है। 

मानव जीवन में धन लोलुप्ता बढ़ रही है। व्यक्ति और समाज दोनों पतन की और जा रहे है। पत्नी को पति या उसके घर वाले दहेज के लालच में जला दे या मार दें, इससे वीभत्स और कुत्सित कृत्य और क्या हो सकता है। यद्यपि सरकारों के द्वारा दहेज प्रथा पर रोक लगाने का कानून बनाया गया है, किन्तु तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक समाज का हर वर्ग इससे न जुड़े। अपना नैतिक उत्तदायित्व समझते हुए वर और वधू पक्ष के लोग समझदारी से काम ले। इस समस्या को तोड़ने के लिए सभी को पहल करनी चाहिए। तभी स्वस्थ समाज की कल्पना की जा सकती है। विवाह प्राकृतिक, धार्मिक और सामाजिक कारणों से और संतती चलाने के लिए जीवन की एक आधारभूत आवश्यकता है। विवाह सही ढ़ंग से होना चाहिए। 

ताकि पति पत्नी का विकास हो और उन दोनों की क्षमताएं और योग्यताएं विकसित हो। उद्देश्य के बिना केवल मोज-मस्ती लेने के लिए किया गया विवाह अधिक दिन तक टीक नहीं पाता। इस प्रकार का विवाह संतोषजनक व सफल जीवन का आधार नहीं बनता है। विवाह सही समय और सही उम्र पर हो जाना चाहिए, नहीं तो समाज में स्वच्छन्दता और अश्लिलता फैलती है। अगर सही समय पर प्राकृतिक आवश्यकता का उत्तर न दिया जाये तो वह बहुत ही खतरनाक सिद्ध हो जाती है। इस आवश्यकता के पूरा न होने पर शरीर को आघात पहुंचता है और मानसिक अशांति फैलती है। दाम्पत्य जीवन पति पत्नी के संयुक्त जीवन में शांति और प्रेम का आरंभिक बिन्दु है। पति पत्नी का एक दूसरे की ओर झुकाव व रुझान और एक-दूसरे से प्रेम शारीरिक आवश्यकता से बढ़कर है। इस प्रकार विवाह एक ऐसा सामाजिक संस्कार है जो सामाजिक दृष्टि से मान्य है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)