लेखक : लोकपाल सेठी
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक)
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अभी तक केरल में वाममोर्चा की सरकार का विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के नियुक्ति को लेकर राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के साथ टकराव चल रहा था। अब नया टकराव भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच के नियुक्त किये गए लोकायुक्त के अधिकारों को लेकर शुरू हुआ है। पिछले दिनों राज्य की विधान सभा ने एक ऐसा विधेयक पारित किया जिससे लोकायुक्त के अधिकारों में कटौती को लेकर राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद और कार्यपालिका यानि सरकार में एक बड़ा टकराव शुरू हो गया है। इस कानून को लेकर कानून और संवैधानिक विशेषज्ञों में बहस छिड़ गयी है। अब देखना यह है की राष्ट्रपति के प्रतिनिधी के रूप में राज्यपाल इस विधेयक पर अपने हस्ताक्षर करते है या नहीं।
लोकपाल और लोकायुक्त कानून के अंतर्गत भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच के लिए केद्रीय स्तर पर लोकपाल की नियुक्ति होती हैं तथा राज्यों ऐसी ही शक्तियों के साथ लोकायुक्त नियुक्त किये जाते है। राज्य सरकारों को कहा गया था की मोटे तौर इसी कानून के अनुसार अपने यहाँ लोकायुक्त नियुक्त करें। केरल सरकार द्वारा बनाये गए कानून के अनुसार, लोकायुक्त को मुख्यमंत्री के खिलाफ भी भ्रष्टाचार के मामलों की भी जाँच करने का अधिकार। जब से इस कानून के अंतर्गत राज्य में लोकायुक्त के अधिकारों को लेकर कभी विवाद नहीं हुआ। राज्य की अब तक की सभी सरकारों ने इस कानून का पालन किया।
राज्य की वाममोर्चा सरकार ने कुछ समय पूर्व यह घोषणा की थी कि राज्य के राज्यपाल राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति नहीं होंगे। कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल को विश्वविद्यालयों के कुलपति नियुक्त करने का अधिकार होता है। सरकार नया कानून बना कुलाधिपतियों के नियुक्ति का अधिकार अपने पास रखना चाहती थी। सरकार ऐसा इसलिए करना चाहती थी की राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने कुछ मामलों राज्य सरकार की सिफारिश के आधार पर कुछ विश्वविद्यालयों के कुलपति नियुक्त करने से इंकार कर दिया था। उनका तर्क था की जिन नामों के सिफारिश की गई थे उनमें से कई कुलपति बनाये जाने की योग्यता मापदडों को पूरा नहीं करते थे। यह बात लगभग तय थी कि राज्यपाल इस तरह के किसी विधयेक पर अपने हस्ताक्षर नहीं करेंगे। यह विवाद अभी खत्म नहीं हुआ तथा कोई बीच का रास्ता निकालने की कोशिश चल रही है।
लोकायुक्त के अधिकारों को कम करने का विधेयक अब राज्यपाल और सरकार के बीच टकराव का नया मुद्दा बन गया है। वर्तमान कानून के अनुसार, भ्रष्टाचार के मामलों में लोकायुक्त द्वारा की गयी कार्यवाही को राज्यपाल के समक्ष चुनौती दी जा सकती है। यानि अगर आरोपी लोकायुक्त के जाँच से सहमत नहीं है तो वह इसके खिलाफ राज्यपाल को अपील कर सकता हैं। इस बारे में राज्यपाल का निर्णय अंतिम माना जायेगा जिसे राज्य सरकार को लागू करना जरूरी होगा। विधानसभा द्वारा पारित विधयेक के अनुसार अब राज्यपाल के पास यह अधिकार नहीं होगा। यह अधिकारअब मुख्यमंत्री के पास होगा। यह एक प्रकार से राज्यपाल के संवैधानिक अधिकारों को कम करना होगा। इस प्रकार यह न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव होगा। न्यायपालिका के अधिकार कम होंगे जबकि कार्यपालिका के अधिकार बढ़ेंगे। इस प्रकार यह संविधान के मूल भावना के विपरीत जिसमें न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के अधिकारो को संतुलित रखा गया है।
अब सवाल पैदा होता है राज्य की वाम सरकार को ऐसा कानून बनाने की जरूरत क्यों महसूस की? राज्य में कुछ समय कूटनीतिक चैनलों की आड़ में सोने के तस्करी के मामलों की जाँच नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी के माध्यम से हो रही है। शुरू में ऐसा लगा की कुछ अरब देशों के केरल में कार्यरत वाणिज्यक दूतावासों के अधिकारी कूटनीतिक मेल के जरिये से सोने के तस्करी में लिप्त हैं कूटनीतिक प्रावधानों के अनुसारउनकी अपने देश से आने वाली मेल (सामान आदि ) के थैलों की जाँच नहीं की जाती। इस आड़ में यह तस्करी हो रही थी तथा एक खेप में 45 किलो सोना पकड़ा गया ठाट। शुरू में लगा कि इन दूतावासों में काम करने करने वाले कर्मचारी इसके पीछे हैं। कुछ लोग पकडे भी गए जिनमें दो भारतीय भी थे जो दूतावास में काम करते है। उनकी पूछताछ में यह बाद सामने आई कि इसमें वाम सरकार के कुछ मंत्री भी शामिल है। एक मुख्य अभियुक्त का कहना था कि इस तस्करी के तार मुख्यमंत्री स्तर पर जुड़े हुए है।
एन ई ए की प्रारंभिक जाँच में भी यह बात सामने आई है। राज्य मुख्यमंत्री के पिनराई को यह भय है कि लोकायुक्त इस मामले के जाँच कर सकता है। लोकायुक्त की सिफारिश पर राज्यपाल उनके खिलाफ कार्यवाही कर सकते है। ऐसा माना जा रहा है मामला राज्यपाल के पास नहीं जाये इसलिए उनके अधिकारों को कम करने के लिए ही यह विधयेक लाया गया है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)