मंहगाई का महासंकट...!

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

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अमेरिकी विचार समूह पेवरिसर्च सेंटर के अनुसार भारत में दो डालर या डेढ सौ रूपया कमाने वाले गरीबों की संख्या छ करोड़ से बढ़कर साढे तेरह करोड़ हो गई है। मंहगाई बढ़ रही है। वह मांग आधारित नहीं है, उपभोग घट चुका है, लोगों की कमाई घट गई है। प्रति व्यक्ति निजी उपयोग 2020-21 व आगे घटकर 55783 रूपया हो गया है। पिछले पांच सालों में निजी उपयोग घटा है। बेरोजगारी दर 9.17 दर्ज की गई। कमाई घटने और बेरोजगारी बढ़ने, मांग घटने के बाद भी मंहगाई बढ़ रही है, मंहगाई मौसमी नहीं है, हर क्षेत्र में है, आम आदमी के उपभोग के सभी सामान मंहगे हो रहे है। विनिर्माण लागत बढ़ रही है। 

देश के बड़े शहरों में पैट्रोल, डीजल सौ रूपया प्रति लीटर से उपर चला गया है। विनिर्माण लागत बढ़ने व माल ढुलाई मंहगी होने के परिणामस्वरूप सामान मंहगे हो रहे है। खुदरा मंहगाई दर लगातार रिजर्व बैंक की निर्धारित छ फीसदी की उपरी सीमा से उपर चल रही है। खाद्य पदार्थो की मंहगाई दर, खाने पीने का सामन मंहगा होने से आम आदमी सीधे तौर पर प्रभावित हो रहा है। हालात हाथ से निकल रहे है। आरबीआई प्रमुख दरे बढ़ा चुकी है। आर्थिक गतिविधियों, आपूर्ति सभी पर झटका लगा है। 

मंहगाई महामारी बन गई है। इसे रोकने के प्रभावी कदम नहीं उठाये जा रहे है। आम नागरिक को बाजार के हवाले कर दिया है। सरकार अरबपतियों पर विशेष कर नहीं लगाना चाहती बल्कि उनका कर भार घटाया है। कोरोना काल में उनकी सम्पत्ति पैतीस फीसदी बढ़ गई। आयात निर्यात नीति पर पुर्नविचार नहीं हो रहा है जिससे लागत कम हो, उत्पादन बढ़े, मंहगाई कम हो। 

मंहगाई कम करने के लिए तेल की कीमतें हर हाल में घटानी होगी। भारत सरकार ने तेल की कीमतों में वृद्धि कर लाखों करोड़ रूपया कमाया है। अब उसका लालच कम करना होगा। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में आई गिरावट का लाभ आम उपभोक्ता को मिलना चाहिए। विशेष उत्पाद शुल्क समाप्त किया जाये जिसे वापस लेने का वायदा किया था। चार किलो मुफ्त अनाज से उपभोक्ताओं को राहत नहीं मिलेगी, आय बढ़ाने, टैक्स कम करने, उत्पादन बढ़ाने, मांग और उपभोग बढ़ाने, उद्योगपतियों व बड़े निर्माताओं पर कंट्रोल करने से ही मंहगाई कम हो सकती है। 

वर्तमान में मांग नहीं होने के बावजूद मंहगाई बढ़ रही है। थोक मूल्य सूचकांक में मामूली कमी के बावजूद उपभोक्ता वस्तुयें, खाने-पीने के सामान की खुदरा कीमतें बढ़ रही हे। आगे का समय आम आदमी के लिए खासतौर से गरीबी की रेखा के नीचे पंहुच चुके तेईस करोड़ लोगों के लिए कठिन साबित होने वाला है। ‘‘रोम जल रहा था, नीरो वंशी बजा रहा था’’ कि कहावत चरितार्थ हो रही है। मीडिया पर उद्योगपतियों व सरकारी नियंत्रण होने से असहमति पर रोग लगाने से जन विद्रोह, असन्तोष फैलता हुआ दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है अन्यथा आम नागरिक का जीवन कष्टप्रद बनता जा रहा है। संसद, संधवाद, नागरिक समाज संगठन, प्रेस पर हमले अभी असन्तोष को सामने नहीं ला रहे है। 

सतत आर्थिक विकास के लिए कानून का राज्य चाहिए। गुप्त इलेक्ट्रोल बांड के रूप में सहयोग करने वाले पूंजीपतियों को प्राथमिकता मिल रही है। पुलिस, नौकरशाह, अदालते तक कानून के बजाय राजनैतिक आकाओं के हितों के लिए काम कर रहे हैं। स्वतंत्र प्रेस की पारदर्शी नजर पर राजनीति व सत्ता का नियंत्रण, व्यक्तिगत गौरव आज नागरिक व गरीब की आर्थिक व सामाजिक समृद्धि से उपर हो गया हैं। बहुलतावाद की परम्परायें कमजोर कर राष्ट्रवाद व हिन्दुत्व की आड में इस संकट, गिरावट व असमानता को छिपाया जा रहा है। 

मंहगाई और कमाई की मौजूदा परिस्थिति व हालात, उत्पादन व मांग में कमी, एक विचित्र स्थिति पैदा कर रहे है। साल 2010 मे पश्चात पहली बार थोक व खुदरा मूल्य सूचकांक दो अंकों में दर्ज हो रहे है। वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार के अनुसार मंहगाई आंकड़ों से आगे निकलकर अनुभव के स्तर पर पंहुच गई है। बेरोजगारी, मंहगाई महामारी न बन जाये, इसे रोकने के कदम शीघ्र उठाने ही होंगे। सरकार के कामकाज को सुचारू व जबाबदेह बनाने के लिए स्वतंत्र प्रेस की पारदर्शी नजर, संसद में बहस व स्वतंत्र नागरिक संगठनों की आवश्यकता है जो वर्तमान में अत्यधिक कम व कमजोर हो गई है। अर्थव्यवस्था के समक्ष जो गंभीर सकट उत्पन्न हो गया है, सरकार को आर्थिक असन्तुलन दूर करना ही होगा अन्यथा लोकतंत्र के प्रति आम गरीब जन का विश्वास कम होकर असन्तोष बढ़ेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)