लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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स्वतंत्रता के बाद उच्च सरकारी पदों पर स्वतंत्रता सेनानी या अपने क्षेत्रों में महारत हासिल कर चुके प्रबुद्ध व भद्र लोग ही आसीन हुए। उन्होंने एक आधुनिक गणतंत्र की स्थापना कर नागरिकों की सेवा की। यह सेवा उन्होंने उस देशभक्ति के कारण की जो उनके मूल सिद्धांतों में शामिल थे। संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति तत्व में अनुच्छेद 36 से 51 में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को अंकित किया है और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए राज्य को बचनबद्ध किया है। बाजार के दुष्प्रचार से बचाने के लिए और समान अवसरों की अवधारणा के विकास को भी महत्व दिया है लेकिन गत वर्षो के आम बजट में ऐसे उपाय व प्रापधान किये हैं, जिस प्रकार की नीति अपनाई जा रही है वो कल्याणकारी राज्य की संरचना को धूमिल करती हैं प्रतीत होता है सरकार संकल्पित है कि देश के सभी पब्लिक सेक्टर को विखण्डित करना है व बैंको का निजीकरण करना है।
भारत के पब्लिक सेक्टर यूनिट राज्य सम्पदा के भण्डार गृह है, भारत की आर्थिक मजबूत रीढ़ है। इसके बावजूद सरकार निरर्थक सौ फीसदी एमडीआई विभिन्न क्षेत्रों में किये जा रही है। जमीन के साथ-साथ खनिज पदार्थ भी शामिल है। चाहे डिफेंस सेक्टर हो या रेलवे, टेलीेाम हो या नागरिक उड्डयन, सड़क हो या पावर, सेटेलाइट हो या पैट्रोलियम, माईनिंग हो या ट्रांसपोर्टेशन सभी का विनिवेश किया जा रहा हैं। विनिवेश पब्लिक सेक्टर को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है और राष्ट्रीय हित व सुरक्षा के साथ खिलवाड हो रहा है।
नीति आयोग ने 74 सेंटल पब्लिक अंडरटेकिंग्स की खोज की जिनमें 26 को बंद किया जाना है तथा अन्य 10 में विनिवेश किया जाना है। इतना ही नहीं सरकार चरणबद्ध तरीके से सुचारू रूप से चल रही है। यूनिट्स को बीमारू उपक्रम बनाकर निजी हाथों में बेचने का मार्ग प्रशस्त कर रही है। पब्लिक सेक्टर यूनिट्स के कर्मियों को हतोत्साहित कर रही है तो वैधानिक स्तर से उपर सरकार लाभांश ले रही है। सौ प्रतिशत एफडीआई का फार्मूला भी चल रहा है। सीमित कारपोरेट घरानों को पब्लिक सेक्टर यूनिट को परोक्ष सौंपने का काम चालू है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां मनपसंद कारपोरेट घरानों को समस्त प्राकृतिक, आर्थिक, व्यवसायिक और मानव संसाधन बांटे जा रहे हैं।
संविधान निर्माताओं ने प्रजातंत्र के प्रजातंत्रीकरण की मूल अवधारणा में राजनैतिक प्रजातंत्रीकरण के बाद सामाजिक, आर्थिक प्रजातंत्रिकरण की बात की थी। सरकार अपने सवैधानिक कर्तव्यों और कल्याणकारी राज्य की नीतियों से पीछे हट रही है। इस वर्ष 1.75 लाख करोड़ रूपये के विनिवेश का लक्ष्य है। बीते कुछ वर्षो के दौरान भारतीय लोकतंत्र के संचालन में व्यापक गिरावट देखने को मिल रही है। जनप्रतिनिधियों और सरकार में महत्वपूर्ण पद संभालने वालों की गुणवत्ता को देखकर स्पष्ट आभास होता है।
देश में 36 प्रतिशत सांसद और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। पारिवारिक मिल्कियत जैसे राजनैतिक दल, धार्मिक हितों से जुड़े समुह, ध्पबल, बाहुबल और उत्तराधिकार की महत्ता बढ़ गई है। पार्टी के अहसान तले लोगों को पद मिल रहे है, पूंजीपतियों और उद्योगपतियों का खुला समर्थन व पक्षपात हो रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था पिछड़ी है, मंदी है, मंहगाई है, गरीबी बढ़ रही है, बेरोजगारी बढ़ रही है। असमानता बढ़ रही है, अमीर अमीर व गरीब गरीब हो रहा है। भुखमरों की संख्या बढ़ रही है। राजनैतिक आधार पर कृषि सुधार की वजह से किसानों के कल्याण की कसमें झूंठी साबित हो रही है।
लोकलुभावन पिटारों द्वारा तात्कालिक व दीर्धकालिक आर्थिक परिणामों को छुपाया जा रहा है। लोगों को बरगलाया जा रहा है, पब्लिसिटी पर इतना खर्च किया जा रहा है जिससे आमजन महान राजनेता (स्टेट्समैन) व मामूली नेता (पोलीटीशियन) अन्तर अन्तर नहीं कर पा रहे है। नेता पब्लिक के हित की बजाय अपने राजनीतिक दल के हितों को पोषित कर रहे है। परिपक्व राजनेताओं की प्रजाति इस प्रचार युग में लुप्त होती जा रही है। पार्टियो को बोंड व अन्य तरीकों से जो सम्पत्ति, धन व साधन प्राप्त हो रहे है वे तो बजट घाते से भी ज्यादा है।
हमारे नेताओं की मौजूदा पीढ़ी उन स्वतंत्रता सेनानियों, वरिष्ठ महान स्टेट्मैन्स के बलिदान व योगदान के प्रति निष्ठुर है। उन महापुरूषों ने ही इन भावी नेताओं को सौगात देकर आर्थिक विपन्न्ता को मिटाने और गरीमा व सम्मान से जीने का दारोमदार छोड़ा था। आज नई पीढ़ी को उन पर भरोसा नहीं रहा। जुमले व वायदों से युवा पीढ़ी कुण्ठित हो चुकी है, बेरोजगारी, गरीबी, अमीरी का अन्तर, सीमित कारपोरेट घरानों पर भरोसा, आई व टाइजेशन स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण और सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था नहीं कर सकता। आज कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ओलिगार्की में बदल गई है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)