लेखक : लोकपाल सेठी
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं
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सदियों पूर्व एक ऐसा समय था जब धुर दक्षिण स्थित तमिलनाडु से बड़ी संख्या में हिन्दू काशी की यात्रा पर आते थे तथा काशी विश्वनाथ मंदिर में बाबा के दर्शन करके अपने आप को धन्य समझते थे। यह यात्रा बहुत लम्बी होती थी जो बैल गाड़ियों जैसे साधनों से महीनो में पूरी की जाती थी। अगर पुराने इतिहास को खंगला जाये तो यह बात सामने आती है कि तमिलनाडु के रामेश्वरम से काशी (बनारस) तक के लम्बे मार्ग पर कुछ-कुछ मीलो के अन्तराल पर चातारम (धर्मशालाएं) बनी हुई थी। इन स्थानों पर तीर्थयात्री विश्राम करते थे।
यहाँ उन्हें भोजन के अलावा अन्य सभी प्रकार के सुविधाएँ नि:शुल्क दी जाती थी। ये धर्मशालाएं 18वीं सदी में पूरी तरह से अस्तित्व में थी। लेकिन अचानक एक दिन ईस्ट इंडिया कम्पनी, जिसका इस क्षेत्र पर आधिपत्य था, ने इन धार्मशालायों को तोड़ने का आदेश दिया। उस समय तंजवौर के राजा ने कम्पनी के अधिकारियों को एक पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि इन धर्मशालायों को नष्ट नहीं किया जाये क्योंकि हर साल काशी जाने वाले तमिलनाडु के हिन्दूतीर्थ यात्रियों को कोई मुश्किल नहीं आये। लेकिन उनके अनुरोध को नहीं माना गया।
उस समय काशी और तमिलनाडु की बीच मजबूत सांस्कृतिक और धार्मिक रिश्ता था। तमिलनाडु के बड़ी संख्या में लोग यहाँ न केवल संस्कृत की पढ़ाई करने आते थे बल्कि वेदों जैसे आदि ग्रथों क अध्ययन भी करते थे। काशी विश्वनाथ मंदिर उनकी आस्था का एक बड़ा केंद्र था। आज की तरह उस समय दक्षिण के इस प्रदेश में देश के अलगाव की कोई भावनाएं नहीं थी। उस समय एक प्रकार से भारत के एक होने की अनुभूति थी।
हजारों किलों मीटर दूर स्थित देश के इन दोनों स्थानों के बीच धार्मिक तथा सांस्कृतिक भावनाएं इतनी अधिक मजबूत थी के तमिल भाषा के महाकवि सुब्रमनियम भारती, जिन्हें राष्ट्रीय कवि होने का गौरव प्राप्त है, विश्व के इस सबसे अधिक पुरातन शहर में आकर बस गए थे। आज भी उनके परिवार के सदस्य यही रहते है। तमिलनाडु से आने वाले तीर्थयात्री पवित्र गंगा नदी के केदारघाट पर पूजा पाठ करते है। इसके पास ही तमिलभाषी लोगों का एक पूरा का पूरा मोहल्ला बसा हुआ है। लेकिन आज़ादी के बाद तमिलनाडु में हिंदी के विरोध के चलते तथा देश से अलग होने की बात को लेकर यहाँ तमिलनाडु से आने वाले तीर्थ यात्रियों के संख्या भी कम होती चली गयी।
केंद्र की बीजेपी सरकार तथा कुछ सांस्कृतिक संगठनों ने काशी और तमिलनाडु के बीच सैकंडों वर्ष पुराने इन संबंधों को फिर से पुनर्जीवित करने और इन्हें मजबूत करने के एक कार्यक्रम का हाल में आयोजन किया। इस कार्यक्रम का नाम “काशी तमिल संगमम” रखा गया है। नवम्बर के तीसरे सप्ताह से शुरू हुआ यह आयोजन एक माह से भी अधिक समय जारी रहेगा। इस कार्यक्रम के अंतर्गत हर कुछ दिन के अंतराल पर रेल से लगभग 250 यात्रियों के एक जत्था तमिलनाडु से यहाँ पहुचेगा तथा वह एक सप्ताह तक यहाँ रह कर यहाँ के अलग धार्मिक स्थलों का भ्रमण करेगा। कुल मिला का 12 जत्थे यहाँ आएंगे।
इस प्रकार लगभग 3,000 लोग तमिलनाडु के अलग हिस्सों से यहाँ लाये जायेंगे। प्रत्येक जत्था काशी के अलावा अयोध्या तथा प्रयागराज भी जाकर मदिरों के दर्शन करेगा। प्रत्येक जत्थे में अलग-अलग व्यवसाय और क्षेत्र के लोग होगें। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी इन सारे कार्यक्रमों का केंद्र बिंदु बनाया गया है। यहाँ न केवल एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया है बल्कि काशी को तमिलनाडु से जोड़ने वाले विषयों पर सेमिनारों को आयोजन किया जायेगा। बीजेपी और इससे जुड़े संगठन इस कार्यक्रम को इतना अधिक महत्व दे रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहाँ आकर इस आयोजन का शुभारंभ किया। वैसे भी बनारस मोदी का संसदीय चुनाव क्षेत्र है।
इतिहासकार बताते है की बनारस और कांजीवरम के सिल्क की साड़ियों के बीच नज़दीक का रिश्ता है। एक समय था जब बनारस को कांची इस जोड़ने वाले मार्ग को सिल्क रूट कहा जाता था। चूँकि यहाँ के सामान्य आदमी के लिए यहाँ की यात्रा करने मुश्किल था इसलिए तमिलनाडु के विभिन्न रियासतों के राजाओं ने अपने राज्यों में काशी मंदिरों का निर्माण करवाया था। राज्य शैव सम्प्रदाय बड़ी संख्या में है इसलिए एक रियासत के राजा ने तो अपने यहाँ जो काशी मंदिर बनवाया वह काशी के विश्वानाथ मंदिर का हूबहू रूप है, आयोजकों का कहना है कि अब इस कार्यक्रम का आयोजन साल साल किया जायेगा ताकि काशी और तमिलनाडु के बीच पुराने संबंध फिर से बन सके और मजबूत हो सकें। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)