पौराणिक काल से प्रसिद्ध बहरूपिया कला विलुप्ति की कगार पर

लुप्त होती बहरूपिया कला को जीवन्त रखने का प्रयास करते कलाकार

शैलेश माथुर की रिपोर्ट 

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सांभरझील (जयपुर)।  हमारे देश की अनेक सांस्कृतिक परम्पराओं में से एक है स्वांग रचने की कला। इस कला को बहुरुपिया कला के नाम से जाना जाता है। एक ही कलाकार द्वारा विभिन्न पात्रों का हूबहू स्वांग रचकर सीमित साधन, पात्रानुकूल वेशभूषा व बोली, विषयगत हाव-भावों का मनोरंजक प्रस्तुतीकरण बहुरुपिया कला को व्याख्यायित करता है। बहुरुपिया कलाकारों का अभिनय इतना स्वाभाविक होता है कि असल व नक़ल में भेद कर पाना मुश्किल हो जाता है। 

कुछ इसी प्रकार का दृश्य गुढासाल्ट मुख्यालय कस्बे में सर्दी के इन दिनों में लोगों उर्जावान बनाने तथा लुप्त होती कला को फिर से जीवन्त करने का प्रयास करते है ये कलाकार, इनके पुस्तेनी काम से ही ये तरह तरह के स्वांग बन कर लोगों का मनोरंजन करते है इससे प्राप्त धन से ही इनके परिवारों का जीवनयापन होता है. गोपाल प्रधान ने बताया कि पहले ये लोग राजा महाराजाओं के यहाँ भी अपनी कला का प्रदर्शन करते थे. जब इनकी कला के प्रदर्शन से खुश होकर सम्मान व धन दोनों ही मिला करता था. आज इनकी कला की पूछ ही नही है। इन्हें कई सुविधाओ के अभाव में ही समय गुजारना पड़ता है. इन्हें उचित संरक्षण व इस बहुरूपिया कला को बचाने के लिए सहयोग की आवश्यकता है। 

बहुरूपिया की प्राचीनता :  यह कला प्राचीन काल से चली आ रही है। पौराणिक ग्रंथों में भी इस कला के प्रचलित होने के प्रमाण मिलते हैं। यह भी माना जाता है कि हिंदू राजाओं के अलावा मुग़लों ने भी इस कला को उचित प्रश्रय प्रदान किया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग और मुस्लिम इतिहासकार अलबरूनी ने भी बहुरुपिया कलाकारों का वर्णन अपनी पुस्तकों में किया है। बौद्ध और जैन साहित्य में भी इन कलाकारों का उल्लेख मिलता है। इस कला को बहुरुपिया कला, स्वांग कला जैसे कई नामों से जाना जाता है। दक्षिण भारत में इस कला से जुड़े कलाकारों को ‘भेषिया’ कहा जाता है। 

देश के विभिन्न अंचलों में, लोक प्रचलन की दृष्टि से इन्हें बहुरुपिया कहा जाता है। पहले सिने कलाकारों के लिए यह शब्द प्रयुक्त होता था और आज यह सम्बोधन स्वांगधारियों के लिए होता है। जिले के डूंगरी गांव के कलाकार अरुण कुमार बहरूपिया ने बताया कि बहुरुपिया कलाकार जो ‘मेकअप’ करते हैं, उसे ‘रंगोरी’ कहा जाता है। इसके लिए ये स्वयं रंगों का निर्माण करते हैं। प्राकृतिक पदार्थों से रंग बनाना इनकी गोपनीय कला है, जिसके बारे में ये ही जानते हैं। कला प्रदर्शन के बाद रंग उतारने के लिए ये एक विशिष्ट प्रकार का ‘रिमूवर’ बनाते हैं, जिसे इनकी भाषा में ‘उतरहट’ कहा जाता है। विशेष बात तो यह है कि साज-सज्जा करने के लिए ये कलाकार आपस में अपनी गोपनीय कला नहीं बताते हैं।

विलुप्ति के कगार पर पहुंची : स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व बहुरुपिया कला को पर्याप्त संरक्षण व प्रोत्साहन प्राप्त था, किंतु मनोरंजन के साधनों में आए परिवर्तनों के कारण यह कला धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। गांवों व क़स्बों में आज भी इस कला के गिने-चुने कलाकार मिल जाते हैं किंतु इस कला को चाहने वालों की संख्या सिमट-सी गई है। देश के विभिन्न अंचलों में इस कला के तौर-तरीक़ों व प्रस्तुतीकरण में कुछ भिन्नताएं पाई जाती हैं, परंतु इस कला की मूल आत्मा सर्वत्र समान है। वर्तमान परिवेश में बहुरुपिया कला आजीविका का साधन मात्र बन गई है। 

बहुरुपिया कलाकार स्वयं को कई स्वरूपों में पेश करना चाहते हैं परंतु हर पात्र के लिए वेशभूषा, बनावट-शृंगार आदि का ख़र्च आय की अपेक्षा अधिक होता है। ये नारद मुनि, पागल, रावण, मजनू, डाकण, दूधीया, लुहार, बाणासुर, बन्दर,शंकर भगवान,सेठजी जैसे स्वांग बन कर लोगों का मनोरंजन करते हैं राम, कृष्ण, शंकर, हनुमान, भीम, अर्जुन, द्रौपदी, शकुनि आदि पात्रों का रूप धरने के लिए ये कलाकार आर्थिक दृष्टि से इतने समर्थ नहीं होते कि नित-नए स्वांग रचकर दर्शकों का मनोरंजन कर सकें। शंकर-पार्वती, देवर-भौजाई, सीता-राम, गुरु-चेला, अर्द्धनारीश्वर आदि कुछ युगल पात्र भी हैं जिनके लिए दो कलाकारों की आवश्यकता होती है। आज जब एक कलाकार के लिए जीविकोपार्जन का जटिल प्रश्न है वहां दो कलाकार युगल प्रस्तुतीकरण के बारे में तो सोच भी नहीं सकते।