लेखक : नवीन जैन
स्वतंत्र पत्रकार, इंदौर (एमपी)
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एक शाम ऐसा कुछ हुआ कि किसी शायर ने अपनी गजल का कोई शेर कहा, तो गजल उसे ढूंढती हुई रात में उसके सपनों में आ गई, और उसके कान में बोली मैं अनेक शायरों के पास होती हुई तुझ तक आई हूं। अब मैं तेरी ही होकर रहना चाहती हूं। बता, क्या तू मुझे कबूल करेगा। उस शायर ने सपने में ही हां भर दी, और सुबह जब उस शायर की आंख खुली, तो उसने ज़ोर से ऐलान कर दिया कि मैं गजल का शायर हूं। यह शायर और कोई नहीं, बल्कि डॉक्टर बशीर बद्र साहब हैं।
मैं अपनी तरफ से यह जोड़ दूं कि डॉक्टर बशीर बद्र कुछ साल पहले तक उर्दू हिंदी गजल के कारवां थे। फिलहाल, वे डीमेंशिया नामक मनोरोग से पीड़ित हैं। इसे स्मृति दोष की बीमारी भी कहा जाता है। बद्र साहब ने महज तेरह साल की उम्र में शेर गूंथना शुरू कर दिया था। जब वे कानपुर में बीए कर रहे थे, तब उनके कोर्स में उन्हीं की कही गजलें आ गई थीं। अपने अलग लहजे के कारण उन्हें गजल की आबरू तक कहा गया। तत्कालीन राष्ट्रपति स्व.जैलसिंह से लेकर प्रधानमंत्री स्व. इन्दिरा गांधी तक को उनके शेर याद थे। जैसेउजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए। आज के हालात पर एक अटल शेर कोई हाथ भी न मिलाएगा,जो गले मिलोगे तपाक से,ये नए मिजाज़ का शहर है,जरा फासले से मिला करो।
जान लें कि मेरठ (उत्तर प्रदेश) में जब दंगों के दौरान डॉक्टर बशीर बद्र एक तरह से बेआसरा हो गए थे, तो उन्होंने भोपाल (मध्य प्रदेश) को अपना नया वतन बनाया था। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)