बात विकास और मुद्रास्फिति की : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है

www.daylife.page 

विकास की प्रक्रिया में आज ज्वलंत प्रश्न यह है कि क्या आर्थिक विकास के लाभ सब तक पंहुच रहे है अथवा समाज का एक हिस्सा ऐसा भी है जो इससे वंचित है। स्वतंत्रता प्राप्त के बाद सुनियोजित विकास प्रक्रिया में 2015 तक गरीबी रेखा से नीचे वाली आबादी का प्रतिशत 1990 के 37.5 प्रतिशत से घटाकर 18.75 किया गया। 1999-2000 की स्थिति के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे वाले लोगों का अनुपात 36.1 प्रतिशत था और निर्धनता अन्तर 5.2 प्रतिशत था। राष्ट्रीय खपत में गरीबों का अंश 10.1 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में और 7.9 प्रतिशत शहरी इलाकों में था। 

विकास लाभों को उपर से नीचे तक व नीचे के वर्गो तक पंहुचाने वाले वर्तमान समर्थकों का तर्क है, त्वरीत विकास से गरीबी अपने आप दूर होगी लेकिन इस सिद्धान्त के विरोधियों का मत है कि उन वितरण नीतियों पर अधिक जोर दिया जाना चाहिए जिनका उद्देश्य गरीबों को वस्तुएं उपलब्ध करना है। विकास और गरीबी हटाने के अन्तर्राष्ट्रीय अनुभवों से भी यही साबित होता है। यद्यपि यह माना जा रहा है काफी लम्बे समय तक विका का क्रम जारी रहे तो गरीबी उन्मूलन और ऐसी ही समस्याओं का निवारण हो सकता है, आर्थिक विकास की नीतियों पर निर्भर करता है। 

वर्तमान विकास प्रक्रिया से मुद्रास्फिति बढ़ी है। भारत सरकार और रिजर्व बैंक दोनों ही मुद्रास्थिति रोकने में असफल रहे हैं। गरीबी पर मुद्रास्फिति अथवा बढ़ते मूल्यों का प्रभाव यह हो रहा है कि उनकी क्रय शक्ति कम हो रही है। गरीबी रेखा का मापदण्ड कैलोरी इनटेक के आधार पर किया जाता है। 2400 किलो कैलोरी ग्रामीण क्षेत्रों में और 2100 किलो कैलोरी शहरी इलाकों में। इसमें न्यूनतम गैर भोजन जरूरतें भी जैसे-वस्त्र, आश्रय, परिवहन शामिल है। गरीबी निर्भर करती है संभावित आय पर जिसका आधार अर्थव्यवस्था का विकास और मूल्य वृद्धि। भारत में गरीबी 1973-74 में 54.88 प्रतिशत से घटकर 2044-05 में 21.77 प्रतिशत पर आ गई, मुद्रास्फिति 7.9 प्रतिशत से 5.2 प्रतिशत पर आ गई। ईंधन, औद्योगिक माल की मुद्रास्फिति में कमी आई। स्मृद्धि उपर से छनकर नीचे पंहुचने का सिद्धांत टूट चुका है। सरकल विकास का वांछित प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों पर कम होता है। मुद्रास्फिति बढ़ने से ग्रामीण गरीबी में जो कमी आई है उसके लाभ खत्म हो रहे है। 

भारत में अब यह कहा जा रहा है अर्थव्यवस्था का विकास तेजी से हो रहा है परन्तु मंहगाई, बेरोजगारी, असमानता बढ़ रही है। निर्माता क्षेत्र में निवेश का तेज कम हो रहा है, सेवा क्षेत्र की तेजी की महामारी का रहना जारी नहीं रहा। निर्माण क्षेत्र अकुशल श्रमिकों को रोजगार के अवसर प्रदान करती है जो नहीं बढ़ रहा है, साथ ही मुद्रास्फिति दर बढ़ रही है। खेती की विकास दर औसत रही है, बढ़ोतरी नहीं हुई है। मुद्रास्फिति का जो क्रम रहा उससे कृषि क्षेत्र में कमजोरी के संकेत है। उत्पादन लागत बढ़ी है, किसानो को उपयुक्त मूल्य नहीं मिले है, मूल्य वृद्धि का लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है। 

खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ी, खासतौर से उपभोक्ता वस्तुओं, सब्जियों की कीमतें लगातार बढ़ रही है। खाद्य पदार्थो की खपत में अनाजों, सब्जियों आदि का प्रमुख स्थान होता है। सुनियोजित विकास के बावजूद खाद्य मोर्चे पर अभावों से जूझना पड़ रहा है। जहां विकास उत्पादकता वृद्धि के कारण होता है वही मुद्रास्फितिरोधी साबित हो सकती है। क्या विकास के कारण मुद्रास्फिति पैदा हो रही है? खुली अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फिति प्रबन्धन के लिए आवश्यक है पूर्ति में वृद्धि की जाय, आर्थिक विकास की नीतियां बनाये। राजनीतिक अर्थव्यवस्था के इस दौर में आवश्यक है जनहित में तीन लक्ष्य निर्धारित हो आर्थिक विकास, प्रति व्यक्ति जीडीपी में वृद्धि और समान वितरण। 

आज वर्तमान नीतियों से प्रति व्यक्ति में समान जीडीपी वृद्धि नहीं हो रही, समान वितरण नहीं हो रहा, असमानता बढ़ रही है। दक्षिणपंथी नीतियों से कारपोरेट जगत को लाभ हो रहा है। ऋण माफ हो रहे है, कर्ज व आयकर दरों में कमी हो रही है। इकोनामिक अपराधों व फर्जीवाडों संबंधी अपराधों को पैनल कानून के दायरे से बाहर किया जा रहा है। 

श्रमिक कानून पूंजीपतियों के अनुकूल किये जा रहे है, विजनस फ्रेंडली किये जा रहे है। एक कडी से दूसरी कडी की ओर सुनिर्धारित और सुविचारित तरीके से बढ़ने की बजाय सस्ते व काम चलाऊ राजनीतिक औद्योगिक जोड़तोड का सहारा लिया जा रहा है। ब्याज दर, निवेश नीतियां, अनाप शनाप तरीके से निजीकरण व सरकारी संपत्तियों का विक्रय, पक्षपातपूर्ण हस्तक्षेत्र व कार्यवाहियां सभी का असर मुद्रास्फिति, असमानता, बेरोजगारी, मंहगाई की ओर बढ़ रहा है। विकास की अनिवार्यता में उपलब्धि उन्मुखी उत्पादन क्षमता को सुगम बनाना होगा। प्राथमिक आवश्यकता विकास है परन्तु आम नागरिक को और अधिक कठिनाईयों की ओर पीछे दखेलने की कीमत पर। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)