दुनिया के बड़े शहरों पर मंडराता जल समाधि का खतरा : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

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आज दुनिया के बड़े शहरों पर जल समाधि का खतरा मंडरा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन के चलते समुद्री जल स्तर में दैनोंदिन हो रही बढ़ोतरी है। असलियत में बीते सालों में हर साल समुद्री जल स्तर में औसतन 3.7 मिली मीटर की हो रही बढ़ोतरी बेहद चिंता का विषय है। यही वह अहम कारण है कि समूची दुनिया इस बात से आशंकित है कि कहीं आने वाले समय में दुनिया के छोटे-छोटे आइलैंड ही नहीं, भारत, चीन, नीदरलैंड, बांग्लादेश सहित मुंबई, शंघाई, ढाका, जकार्ता, मापुटो, लागोस,कायरो,लंदन,कोपेनहेगन,न्यूयार्क,लास ऐंजिल्स, ब्यूनस आयर्स, सेंटियागो आदि समुद्र में डूब जायेंगे। न्यूयार्क के कई हिस्से भी इसकी चपेट में आ जायेंगे। जहां तक भारत का सवाल है यहां मुंबई,कोच्चि, तिरुवनंतपुरम, मंगलोर, चेन्नई, विशाखापटनम, लक्षदीव और अंडमान निकोबार भी इस मार से अछूते नहीं  रह पायेंगे। 

देखा जाये तो असलियत में यह सबसे बड़ी आर्थिक, सामाजिक और मानवीय चुनौती है। इसका खुलासा वर्ल्ड मीटियरोलाजिकल आर्गनाइजेशन की बीते दिनों जारी रिपोर्ट में हुआ है जिसमें कहा गया है कि समुद्री जल स्तर में यदि इसी तरह बढ़ोतरी होती रही तो आने वाले समय में दुनिया के कई बड़े शहर समुद्र में डूब जायेंगे।  इससे न केवल मानव जीवन प्रभावित होगा, सामाजिक, आर्थिक जीवन भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा और समूची दुनिया में पानी, स्वास्थ्य, खाद्य, भोजन के साथ-साथ पर्यटन भी प्रभावित होगा जिससे समूची आर्थिक व्यवस्था लुंज-पुंज हो जायेगी। समुद्री जीव-जंतुओं के जीवन पर भी दुष्पर्भाव पड़ेगा। परिणामतः समुद्री जीव-जंतुओं का जीवन खतरे में पड़ जायेगा। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटारेस की चिंता की असली वजह यही है। 

संयुक्त राष्ट्र महासचिव ऐंटोनियो गुटारेस का इस बारे में कहना है कि सबसे बड़ा खतरा यह है कि यदि समुद्री जल स्तर में इसी तरह बढ़ोतरी जारी रही तो दुनिया की तकरीब 10 फीसदी आबादी यानी 90 करोड़ लोग जो तटीय इलाकों में वास करते हैं, सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। कहने का तात्पर्य यह कि पृथ्वी पर रहने वाले हर 10 में से एक आदमी इसकी चपेट में आयेगा। कई आइलैंड या देश दुनिया के नक्शे से ही गायब हो जायेंगे। रहने के लिए जमीन नहीं  रहेगी, पीने के लिए पानी का अकाल पड़ जायेगा, आने वाले 8 दशकों से भी कम समय में तकरीब 25 से 45 करोड़ लोगों को रहने के लिए  नयी जगह तलाशनी होगी यानी बड़े पैमाने पर पलायन होगा और जीवन के लिए जरूरी संसाधनों में बेतहाशा कमी आ जायेगी। इसके लिए मानवीय गतिविधियां ही पूरी तरह जिम्मेदार हैं। 

दरअसल जलवायु परिवर्तन ने इसमें अहम भूमिका निबाही है। इसके चलते धरती के तापमान में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हो रही है। इससे जहां बर्फ तेजी से पिघल रही है, समुद्र पहले से ज्यादा गर्म हो रहा है, उसका जलस्तर बढ़ रहा है। यदि इसका सिलसिलेवार जायजा लें तो यह साबित हो जाता है कि हर साल अंटार्कटिका में एक अनुमान के मुताबिक 150 अरब टन बर्फ पिघल रही है। वैश्विकरण तापमान में बढ़ोतरी इसका अहम कारण है। यही वह अहम वजह है जिसके चलते वैश्विकरण समुदाय तापमान बढ़ोतरी पर अंकुश लगाने हेतु चिंतित है। उसकी चिंता की असली वजह यह है कि यदि वैश्विकरण तापमान की दर को 1.5 डिग्री पर ही सीमित रखा जाये, उस दशा में तब भी अगले दो हजार साल में समुद्री जल स्तर हर साल 2 से 3 मीटर तक बढ़ जायेगा। 

वैज्ञानिकों की रिपोर्ट, अनुसंधान और शोध इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। और यदि धरती का तापमान 2 डिग्री तक बढ़ता है, उस दशा में समुद्री जल स्तर 2 से 6 मीटर तक बढ़ जायेगा। यही नहीं यदि तापमान में यह बढ़ोतरी 5 डिग्री तक पहुंची तो समुद्र के जल स्तर में 19 से 22 मीटर तक बढ़ने की संभावना को नकारा नहीं  जा सकता। यह भयावह खतरे का संकेत है। इसलिये ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश के लिए दुनिया के 192 से ज्यादा देश सहमति बनाने के लिए प्रयासरत हैं और दुनिया को वैश्विक स्तर पर सभा-सम्मेलन के माध्यम से आने वाले खतरों से आगाह भी कर रहे हैं। डब्ल्यू एम  ओ की यह रिपोर्ट भी चेतावनी दे रही है कि यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक नहीं  लगी तो 2100 तक समुद्री जल स्तर 2 मीटर और 2300 तक 15 मीटर तक बढ़ जायेगा। इस आशंका को झुठलाया नहीं जा सकता। 

आंकड़ों के मुताबिक साल 1901 से 1971 के बीच समुद्री जल स्तर 1.3 मिमी की दर से बढ़ रहा था जो 1971 से 2006 के बीच हर साल 1.9 मिमी की दर से बढा़ जिसमें 2018 तक 3.7 मिमी की दर से इजाफा हुआ। रिपोर्ट के आकलन से यह जाहिर होता है कि बीते 11 हजार सालों में ऐसा पहली बार हुआ है जब समुद्र इतना गर्म हुआ है और बीते तीन हजार सालों में ऐसा भी पहली बार हुआ है जब समुद्री जल स्तर में इतनी बढ़ोतरी हुई है। इससे इस आशंका को बल मिलता है कि यदि समुद्री जल स्तर में हर साल 0.15 मीटर तक की बढ़ोतरी होती है तो दुनिया की बाढ़ प्रभावित आबादी में 20 फीसदी और यदि 0.75 मीटर की बढ़ोतरी होती है तो इसी आबादी में 1.4 फीसदी की और बढ़ोतरी होगी, नतीजतन यह आंकड़ा तीन गुणा पार कर जायेगा जो हालात की भयावहता को दर्शाता है।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार हिमालय के ग्लेशियर पिघलने के चलते पाकिस्तान बाढ़ से जूझ रहा है। उसके मुताबिक ज्यों-ज्यों ग्लेशियर पिघलते चले जायेंगे, नदियां सिकुड़ती जायेगी, वे सूख जायेंगी। असलियत यह है कि इस बात से फर्क नहीं  पड़ता कि हिमखंडों से कितनी बर्फ पिघल रही है और जल स्तर पर कितना असर डाल रही है। सबसे बड़ी बात कि उसकी मात्रा बदल नहीं रही है। यहां अहम समस्या ग्लोबल वार्मिंग के चलते जलवायु परिवर्तन से हिमखंडों का टूटना या पीछे हटना है। क्योंकि ग्लेशियर जितना टूटेगा या पीछे हटेगा, उतनी ही ज्यादा बर्फ पानी पर तैरेगी, विस्थापन के कारण उतना ही जलस्तर तेजी से बढ़ेगा। 

औरेगन यूनिवर्सिटी की शोधकर्ता ऐरिन पोटेट मानती हैं कि आने वाले सालों में यह रफ्तार और तेजी से बढे़गी। यही नहीं नेशनल साइंस फाउण्डेशन में थाटीज अध्ययन के निदेशक पाल कटलर कहते हैं कि कोई कुछ भी कहे हकीकत यह है कि आने वाले समय में ग्लेशियरों में हो रही टूटन से बर्फ के पिघलने की दर की प्रक्रिया में और तेजी आयेगी। इसके परिणाम भयावह होंगे। दुख इस बात का है कि हमारे नीति-नियंता हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की बढ़ती दर, उसके दुष्परिणामों से बेखबर हो अंधाधुंध विकास रथ पर सवार हैं। वे यह नहीं  सोचते कि समुद्र तटीय शहरों के अलावा यदि ये नहीं रहे, उस दशा में देश की जीवन दायी नदियों जिन पर तकरीब देश की आधी आबादी निर्भर है, उसका क्या होगा? (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)