लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)
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राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने की प्रक्रिया में उन्नीसवीं शताब्दी में राष्ट्रवादियों का एक समूह देश के लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक उत्थान के लिए राष्ट्रीय रंगमंच पर अवतरित हुआ। सन् 1985 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई जो कालान्तर में राष्ट्रवादी भावना जाग्रत करने वाली प्रमुख एजेन्सी बन गई। परन्तु सन् 1910 के अंत में जाकर राष्ट्रीय आन्दोलन दो समूहों में विभाजित हो गया। एक उदारवादी (मध्यममार्गीय) तथा दूसरा उग्रवादी (अतिवादी)। उग्रवादी नहीं चाहते थे कि सामाजिक प्रक्रिया राजनैतिक प्रक्रिया के साथ जुड़ जाये। उदारवादियों में प्रमुख दादा भाई नोरोजी, फिरोज सामेता, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले, रास बिहारी बोस आदि थे जो न्यायिक सुधारों की मांग में क्षेत्रीय ओर सांप्रदायिकता की भावना से दूर रहे। उन्होंने नैतिक दृष्टिकोण को अपनाया, स्वदेशवाद की कल्पना की साथ ही इन्होंने आध्यात्मिककरण पर बल दिया।
उग्रवादियों (अतिवादियों) में बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपत राय, महर्षि अरविन्द घोष आदि पुनरोत्थानवादी नेताओं ने राष्ट्रधर्म की आड में उग्र राष्ट्रवादिता का प्रचार किया और संपूर्ण देश में यह हिन्दु पुनरूत्थान के रूप में दिखाई पड़ा। उदारवाद को सामाजिक उपेक्षा की दृष्टि से देखा। उनका दृष्टिकोण सर्वप्रथम राजनैतिक स्वतंत्रता और तत्पश्चात् समाज सुधार का रहा। बाल गंगाधर तिलक कट्टर हिन्दू थे। लाला लाजपत राय की देश की एकता में अटूट आस्था थी। लाला जी यद्यपि हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने परन्तु वे सांप्रदायवादी नहीं थे। महर्षि अरविन्द घोष ने आध्यात्मवाद की नीति को स्वीकार किया। उनका समाज सुधारवाद में पाश्चात्यवादी विधि में कोई विश्वास नहीं था। उनके अनुसार स्वतंत्रतावाद अत्यधिक महत्वपूर्ण तत्व था तथा वे आर्थिक राष्ट्रवाद के भी समर्थक थे।
हिन्दु-मुस्लिम एकता स्थापित करने के लिए एक ओर उदारवादियों ने राजनीति में धर्मनिरपेक्षता को बनाये रखा, परन्तु उग्रवादियों ने हिन्दु भावना को जाग्रत किया जिससे मुसलमानों में प्रतिरोध उत्पन्न हुआ। अरविन्द घोष के अनुसार राष्ट्रवाद को हिन्दु धर्म के साथ अवश्य जोड़ा जाना चाहिए। उग्रवादियों ने भारत मां को देवी की संज्ञा दी और उसे हिन्दुओं की निधि बताया। यह मूलतः हिन्दुवाद की ही प्रक्रिया थी। इन उग्रवादियों में एक समूह आतंकवादियों का भी था जिसमें खुदीराम बोस, रास बिहारी बोस, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, विनायक सावरकर, भूपेन्द्र नाथ दत्त आदि प्रमुख थे।
राजनैतिक उग्रवादी समूह लोगों के मन में अपना स्थान बनाते जा रहा था। बाल गंगाधर तिलक ने राजनैतिक उग्रवाद में धर्म, विश्वास और व्यवहार को मिश्रित किया। उन्होंने भारतीय राजनीति में हिन्दुकरण को प्रोत्साहित किया। जो नेता समाज सुधार और राजनैतिक सुधार को समान रूप से महत्वपूर्ण मानते थे उन्होंने अतिवादी विचारधारा को तिलांजली दे दी। उस समय हिन्दु सुधारवादियों एवं पुनरूत्थान विचारधारा बहुत लोकप्रिय थी। मदन मोहन मालवीय, भाई परमानन्द, स्वामी श्रृद्धानन्द आदि ने हिन्दु सुधारवाद एवं पुनरूत्थान में आध्यात्मिक भावना का संचार किया। हिन्दु राष्ट्रवाद एवं हिन्दु एकता स्थापित करने के लिए कुछ उग्रवादी संगठन स्थापित हुए और सांप्रदायिक शत्रुता का वातावरण बनने लगा। महात्मा गांधी का राजनीति में प्रवेश क्रांतिकारियों के लिए घातक सिद्ध हुआ।
डॉ. हेडगेवकर ने सन 1925 राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना की जिसका लक्ष्य अखण्ड हिन्दु भारत को स्थापित करना रखा गया। डा. एस.पी.मुखर्जी ने भी अखण्ड भारत के विचार का प्रस्ताव किया और जनसंघ की स्थापना की। इन सुधारवादी नेताओं ने हिन्दु राष्ट्रवाद की विचारधारा को बहुत लोकप्रिय बनाया। इनकी हिन्दु संस्कृति की प्रधानता में अटूट आस्था थी। उनके अनुसार हिन्दुओं की नैतिकता और चरित्र के पतन के कारण ही हिन्दु राष्ट्र का पतन हुआ। उन्होंने मुस्लिम व ईसाई राष्ट्रों के प्रति कठोर नीति का अनुसरण किया तथा अपने संगठन को प्रतिद्वंदी संगठन बना दिया, जिससे हिन्दु समाज के पुनर्निमाण के बजाय ईसाई और इस्लाम धर्म के प्रति विरोधी संगठन होने की योजना बनी तथा धर्म की आड में रूड़ीवाद, हिन्दु एकता, हिन्दु संस्कृति, हिन्दु प्रभुत्व सम्मिलित था। हिन्दु संगठन की योजना में उन हिन्दुओं का शुद्धिकरण भी शामिल था जो मुस्लिम या ईसाई हो गये थे। स्वामी दयानन्द व श्रद्धानन्द के समय से ही शुद्धि आन्दोलन हिन्दु सुधारवाद का प्रमुख वास्तविकता बना। इससे कटुता और शत्रुता का वातावरण बना।
धर्म में राजनीतिक और अलगाव की राजनीति प्रारम्भ हो गई। हिन्दू एवं मुस्लमानों में व्याप्त पृथकतावादी प्रवृतियों ने अनेक प्रकार के संगठनो को जन्म दिया। वी. डी. सावरकर ने पूर्णतः हिन्दू प्रभुत्व की आवाज उठाई। कट्टर हिन्दुओं ने हिन्दु महासभा की स्थापना की, सांप्रदायिकता का प्रचार प्रारम्भ किया जिससे हिन्दु-मुस्लिम दंगों को प्रोत्साहन मिला। उन्होंने शुद्धिकरण का कार्यक्रम भी अपनाया। कांग्रेस पर हिन्दु विरोधी होने का लांछन लगाया और हिन्दु राष्ट्र का नारा बुलन्द किया। इस प्रकार हिन्दु राष्ट्र के विकास की प्रतिक्रिया स्वरूप मुसलमानों में सांप्रदायिकता की भावना तीव्र हो गई और उन्होंने भी एक पृथक मुस्लिम राष्ट्र की मांग करना शुरू कर दिया। मुस्लिम सुधारवाद ने हिन्दू और मुस्लमानों के बीच सामाजिक अलगाव ने राजनीतिक शत्रुता को बढ़ाया। उन्हें लोकप्रिय सरकारों एवं सुधारो में कोई विष्वास नहीं रहा, बहुमत की निरंकुशता से भय पैदा हो गया। अल्पसंख्यकीय समुदाय यह महसूस करने लगा की लोकप्रिय सरकार मुस्लिमों के हितो का दमन करेगी। कुछ मुस्लिम नेताओं ने मुस्लमानों के लिए नौकरिया व विधानसभा में प्रतिनिधित्व व सुरक्षित स्थानों का सुझाव दिया और कहा की संसदात्मक स्वरूप को लागू किया गया, तो हिन्दू बहुमत की प्रधानता होगी और ब्रिटिश सरकार ही मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितो की रक्षा कर सकती है।
पृथकतावादी विचारधारा का समर्थन सर सैयद अहमद खान ने किया। मुसलमानों ने अपना एक राष्ट्र घोषित किया। उन्होंने बहुमत की निरंकुशता के विचार को फैलाया। सन् 1940 में 2 राष्ट्र के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। उन्होंने न केवल संख्या के आधार पर बल्कि संस्कृति, भाषा, साहित्य, कला, नियम, रीति रिवाज, परम्पराओं आदि के आधार पर 2 राष्ट्र का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास किया। मुस्लिम सुधारवादियों ने मुस्लिम दृष्टिकोण को तीव्र एवं व्यापक बनाया जिनमें मोहम्मद अली जिन्ना, मोहम्मद इकबाल आदि प्रमुख थे। उन्होंने धार्मिक उग्रता का प्रदर्शन करना प्रारम्भ कर दिया। भारतीय मुस्लिम लीग, मुस्लिम मजलीस, जमायते उल, जमायते ए हिन्द आदि का गठन हुआ, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी सांप्रदायवादी बने रहे। पृथकतावादी राजनीति एवं धर्मान्धता ने इनको और अधिक कट्टर बना दिया।
महात्मा गांधी ने अपने आन्दोलनों में धर्म की विशेष भूमिका को स्वीकार किया था तथा धर्म और राजनीति का राष्ट्रीय आन्दोलनों में मिश्रण किया था। गांधी ने यद्यपि कहा ‘‘धर्म सामाजिक एकता का एक प्रभावशाली माध्यम है’’। उन्होंने राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में आध्यात्मिक दृष्टिकोण को अपनाया और इसे भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने और हिन्दु धर्म की रक्षा करने हेतु आवश्यक समझा। उनके इस विचार से सरदार पटेल, डा. राजेन्द्र प्रसाद भी सहमत थे। परन्तु गांधी ने हिन्दु-मुस्लिम एकता पर जोर दिया। गांधी ने एक वैष्णव के रूप में हिन्दु-मुस्लिम एकता को बहुत खूबी से रखा। परन्तु सुधारवादियों में चाहे वे हिन्दु हो या मुसलमान, रूढ़ीवादी दृष्टिकोण पनपा और सांप्रदायिक हिंसा व घृणा का वातावरण फैल गया।
मोतीलाल नेहरू, आचार्य नरेन्द्र देव, डा. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, पं. जवाहर लाल नेहरू, डा. भीमराव अम्बेडकर आदि ने सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं के प्रति धर्म निरपेक्षता के दृष्टिकोण को अपनाया। सुभाष चन्द्र बोस ने धर्म को राजनीति के साथ नहीं जोड़ा। मौलाना आजाद मुस्लिम सांप्रदायवाद, मुस्लिम लीग और मोहम्मद अली जिन्ना के दुराग्रह के विरोधी थे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)