हिन्दी भाषा और पत्रकारिता के कालजयी ध्वजारोहक डाॅ. वेद प्रताप वैदिक

 स्मृति- नाद

लेखक : नवीन जैन 

स्वतंत्र पत्रकार, इंदौर (एमपी)

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डाॅ. वेद  प्रताप वैदिक (वरिष्ठ पत्रकार, विद्वान, चिंतक और अंतरराष्ट्रीय  विषयों के गहरे जानकार) इस खबर पर तो खैर धूल चढ जायेगी कि डाॅ. वेद प्रताप वैदिक अब नहीं रहे, लेकिन यह बात कायनात के खत्म होने तक सच रहेगी कि, डाॅ. वैदिक इन्दौर पत्रकारिता घराने की एक और कड़ी थे। घराना संगीत के पेशे  में होता है। जान लें कि इन्दौर को वैसे ही पत्रकारिता का मक्का मदीना कहा जाकर यहां के दैनिक नई दुनिया को पत्रकारिता का पहला विश्वविद्यालय माना जाता रहा है। क्या खूब संयोग है कि डाॅ. वेद प्रताप वैदिक के पहले इस घराने के दो अन्य नायक स्व. राजेन्द्र माथुर उर्फ रज्जू बाबु और, स्व. प्रभाष जोशी उर्फ प्रभाष जी इन्दौर के इसी नई दुनिया के उत्पाद थे और जुमले में कहे इनके महानायक या हेड मास्टर स्व. राहुल बारपुते थे, जिन्हें प्यार और सम्मान से बाबा पुकारा जाता था। कदाचित नई दुनिया को नए पत्रकारो की आज भी टकसाल कहा जाता है। यहां से निकला जो भी पत्रकार होता है उसने छोटी मोटी नहीं ,बडी बडी बुलंदियों को हासिल किया है।

तो, फिलहाल बात डाॅ. वेद प्रताप वैदिक की । क्या कोई यकीन कर सकता है कि उस जमाने के नई दुनिया में मात्र 13 साल की उम्र में डाॅ. वैदिक का आलेख छप गया था। इसकी कहानी बडी रोचक है जो कोई फिल्मी अफसाना लगता है। हुआ यह था कि राहुल बारपुते की अध्यक्षता में किशोर और युवा बच्चों  का एक भाषण इंदौर में कहीं चल रहा था। यह भाषण तात्कालिक विषय पर था। जैसे ही डाॅ. वैदिक माइक पर आए तो उन्होने बाबा से पूछा कि किस विषय पर बोलूं। उस वक्त डाॅ. वैदिक अपनी चोटी लंबी रखने लगे थे। बाबा ने कहा कि तुम चोटी पर ही बोल दो। वैदिक जी ने चोटी पर ही भाषण दे दिया। जिस पर खूब  तालियां बजी। जब कार्यक्रम समाप्त हुआ तो बाबा ने वैदिक जी से कहा कि बेटा तुमने जो कुछ आज बोला है उसे लिखकर कर परसो में नई दुनिया के आफिस में ले आना। हम इसे आलेख के रुप में तुम्हारा नाम देकर छापेंगे। 

वैदिक जी के लिए यह बात दिन में सपने देखने जैसी थी लेकिन   उन्होने घर आकर वो भाषण अपनी तरह से लिख दिया और नई दुनिया में  बाबा को दे आए। दो तीन  दिन बाद वैदिक जी के घर के सामने जो एक परचून की दुकान हुआ करती थी उसके मालिक ने उन्हें बुलाया और पूछा ये लेख तुमने लिखा है? वैदिक जी चक्कर में आ गए सोचा, मुझे तो पता ही नही चला और इन दुकान वाले  को कहां से पता चल गया। उस दुकान वाले ने वह लेख वैदिक साहब को बता दिया। वही एक बस निर्णायक  क्षण था जिसने ये पहली और अंतिम बार तय कर दिया कि या तो मैं (वैदिक जी) पत्रकार बनूंगा या कुछ नहीं, लेकिन आगे का रास्ता बडा टेढ़ा मेढा और जंगल की तरह था। उनकी उम्र भी कोई ज्यादा नहीं थी। फिर भी वे नई दुनिया चले गये काम मांगने के लिये। 

वहां तो बात जमी नहीं। उन्हीं दिनों इन्दौर से स्व. ईश्वरचंद जैन जागरण नाम का एक अखबार निकाला करते थे। वैदिक जी उनके पास गये और अपनी इच्छा प्रकट की। ईश्वरचंद्र जैन साहब ने कहा कि बेटा यदि पत्रकार बनना है तो सबसे पहले प्रूफ पढ़ने होंगे।, यदि प्रूफ पढ़ने का हुनर आ गया तो उसके बाद देखा जाएगा। वैदिक जी को बात जम गई। वे प्रूफ वाचन करने लगे बस यहीं से उनका पत्रकारिता का आगामी सफर चालु हो गया।

पता हो कि नईदुनिया में  सालों में यह प्रथा रही कि किसी भी युवा पत्रकार से प्रशिक्षण के दौरान 3 माह से लेकर 1 साल तक प्रूफ पढ़वाए ही जाते थे उसके बाद ही उसे किसी अन्य डेस्क पर ही तैनात किया जाता था। आगे चलकर वैदिक जी ने इंदौर के क्रिश्चियन कालेज में एडमिशन ले लिया उन्हें राजनीति शास्त्र के तत्कालीन घोर विद्वान डाॅ. ओम नागपाल पढाते थे। उन्हीं दिनों मध्यप्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री और भाजपा के लोकसभा सदस्य विक्रम वर्मा वैदिक जी के साथ डिबेट या वाद विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लेने देश भर के विश्वविद्यालयों में जाते थे, और बाजी मारकर ही लौटते थे। 

एक मजेदार किस्सा क्रिश्चियन  कालेज का यह है कि वैदिक जी ने चूंकि ब्रह्मचर्य धारण करने का निश्चय कर लिया था इसलिए पैर में खड़ाऊ पहनकर कालेज में आते थे। एक दिन तत्कालीन प्रिंसिपल डाॅ. मोजस ने उन्हें डांट दिया और कहा कि ये क्या करते हो। पूरे कॉलेज  में टकटक होती है। वैदिक जी ने कोई विरोध नहीं किया। वे अपनी खड़ाऊ  कालेज के दरवाजे पर एक जगह उतार देते और नंगे पैर ही क्लास रुम में जाते। हालांकि बाद में उन्होने शादी की ओर  उनके बच्चे विदेश में ही बस गए। 

डाॅ. वेद प्रताप वैदिक के व्यक्तित्व को कई दृष्टिकोणों  से जांचा  जा सकता है। एक तो यह कि प्रखर समाजवादी नेता और हिंदी के घोर हिमायती डाॅ. राम मनोहर लोहिया ने देश में जो अंग्रेजी हटाओ आंदोलन चलाया था उस आंदोलन को सफल बनाने में डाॅ. वेद प्रताप वैदिक की निर्णायक भूमिका थी, जिसके कारण अन्ततः वे पूरी दुनिया में हिन्दी पुरुष के नाम से जाने गए। इसका मतलब यह नही है कि वे अंग्रेजी नहीं जानते या अंग्रेजी के विरोधी थे। 

वे तो हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओ के उपयोग के हक में खड़े हुए थे, जिसके लिये उन्हें लगातार संघर्ष करना पडा और अब आलम यह है कि मध्यप्रदेश में मेडिकल तक की पढाई हिन्दी में होने की इसी साल से घोषणा हो गई है और किताबे भी उपलब्ध  है। हिन्दी के प्रति जागृति फैलाने के लिए  डाॅ. वैदिक ने दुनिया के कईं फेरे लगाए। अनेक व्याख्यान दिए और मजेदार बात यह है जब विपक्ष की तरफ से दक्षिण भारत के एच.डी. देवगोडा प्रधानमंत्री बने तो उन्हें हिन्दी सिखाने के लिये डाॅ. वैदिक रोजाना उनके घर जाया करते थे।

डाॅ. वैदिक के पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से व्यक्तिगत संबंध रहे और जब कभी वे कुछ अच्छा लिखते तो उसी सुबह उन्हें सबसे पहले बधाई देने वालो में उक्त राजनेता ही हुआ करते थे। 

डाॅ. वैदिक को यह श्रेय भी जाता है कि दुनिया की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी जवाहरलाल यूनिवर्सिटी से उन्होने अफगानिस्तान के मुद्दे पर पहली पी.एच.डी. की जो हिन्दी में लिखी गई पहली पीएचडी भी थी। पहले तो नियमों के अनुसार हिंदी में लिखे होने के कारण इसे अस्वीकृत कर दिया गया लेकिन जब मामला राम मनोहर लोहिया ने संसद में उठाया तो तात्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने विशेष आदेश देते हुए उसे हिन्दी में ही स्वीकृत करवाया। ये भी क्या खूब बात है कि डाॅ. वैदिक, स्व. राजेन्द्र माथुर, स्व. प्रभाष जोषी, तो दिल्ली में ही रहे लेकिन राहुल बारपुते ने अन्त तक नई दुनिया नहीं छोडी। 

डाॅ. वैदिक और राजेंद्र माथुर को नवभारत टाइम्स के प्रबधंको ने सीधे निमंत्रण देकर अपने यहां विचार संपादक और प्रधान संपादक नियुक्त किया था। दुनिया और देश का कोई ऐसा वरिष्ठ नेता नही था जिससे वैदिक जी के व्यक्तिगत सम्बंध न हो। एक जादुई या करिश्माई व्यक्तित्व के धनी थे। संस्कृत में  पहली बार जिस बंदे को पूरे देश में प्रथम श्रेणी मिली थी वे डाॅ. वैदिक ही थे। उन्होने चारो वेदो 11 सभी उपनिषदो महाभारत, रामायण, मानस, कुरान, बाइबिल का अध्ययन किया था। वे चूंकि ओशो के भी प्रशंसक थे इसलिये जब ओशो को अमेरिका से देश का निकाला दिया गया तो अमेरिका में ही अमेरिकी सरकार के इस निर्णय के खिलाफ डाॅ. वैदिक ने जगह जगह व्याख्यान दिए। 

बहुत अफ़सोस की बात है कि जिन दिनो अफगानिस्तान-तालिबान विवाद चल रहा था, उन दिनों भारत सरकार ने अफगानिस्तान पर डॉ वैदिक की विशेषज्ञता का कोई लाभ उठाना उचित ही नहीं समझा। मेनस्ट्रीम के मीडिया का भी लगभग यही आलम रहा। उन कथित विशेषज्ञों को पैनल में बैठा दिया जाता रहा जिन्होंने अफगानिस्तान पर एक किताब भी शायद ही पढ़ी हो, जबकि डॉ वैदिक अफगानिस्तान में वहाँ के सुल्तान के निजी मेहमान हुआ करते थे और उन्हीं के महल में उन्हें ठहराया जाता था। वे कई बार अफगानिस्तान की यात्रा कर चुके थे, लेकिन लगता है कि डॉ वैदिक का दोष मात्र इतना था कि उन्होंने पाकिस्तान में छुपे भारत विरोधी आतंकी सरगना हाफ़िज़ सईद के ठिकाने पर जाकर उससे लंबा इंटरव्यू कर लिया था और वही इंटरव्यू उन्होंने अपनी वॉल पर डाल दिया था, जिसके तहत उन पर राजद्रोह तक का मुकदमा लगा दिया गया। 

इस तरह के मुकदमें दरअसल अंग्रेजी साम्राज्य के तहत बने कानून की देन थे जो गांधी-नेहरू जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के ख़िलाफ़ लगाए गए थे। आजादी मिलने के बाद इन कानूनों में कोई संशोधन ही नहीं किया गया तो नरेंद्र मोदी के पिछले 10 साल के कार्यकाल में इस तरह के मुकदमों के शिकार कई पत्रकार होते रहे जिनमें से एक और प्रखर पत्रकार जो पद्मश्री से सम्मानित थे वह भी शामिल थे उनका नाम था स्व. विनोद दुआ।

अंग्रेजी की समाचार एजेंसी पी.टी.आई की हिंदी सेवा भाषा के भी वे संथापक संपादक थे। कभी वरिष्ठ पत्रकार स्व. आलेक तोमर ने व्यंग्यकार और स्तम्भकार स्वर्गीय शरद जोशी को श्रद्धांजलि  देते हुए इंडिया टुडे में लिखा था कि अब शरद जोशी अपने खास दोस्त और पत्रकार राजेंद्र माथुर के साथ स्वर्ग में बैठकर किसी नए अखबार की कल्पना कर रहे होंगे अगर वाकई ऐसा हो रहा होगा तो डाॅ वेद प्रताप वैदिक उनके तीसरे साथी हो जायेंगे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)