कविता.....
लेखक : तिलक राज सक्सेना
जयपुर।
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ज़ख्म सह कर भी वफ़ा करना फ़ितरत रही मेरी,
क्या करें जो यार को रस्म-ए-वफ़ा निभाना आया नहीं,
बीच सफ़र में छोड़ हम सफ़र बदलना शौक़ रहा उसका,
और मैं डूबा रहा उसके “इश्क़” में इतना,
कभी उसके शौक़, उसकी फ़ितरत समझ पाया ही नहीं,
मैं नाराज़ नहीं किसी से, खफ़ा अपने-आपसे हूँ,
यकीं कर लिया था मैंनें उस पर इतना,
कि अब ख़ुद अपने-आप पर भी यकीं आता नहीं।