नज़्म
लेखक : डॉ सुधा जगदीश गुप्त
कटनी, मध्य प्रदेश
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नाजुक नवेली नज़्म सुंदर
अब मेरे घर आ गई
चांँद से रिश्ता बना
आकाश ले घर आ गई
गूंँजती थीं पायलें
ममता की अब तक छांँव में
वो छनकती गूँज लेकर
अब मेरे घर आ गई
नदिया किनारे बैठ कर
बुनती थी सपनों के महल
सपनों भरी वह झील लेकर
अब मेरे घर आ गई।
गुंचे शगूफ़े वार कर
पूरा चमन गुलजार कर
सुख सुनहरे रूप में गढ़
धूप बन घर आ गई
जिंदगी का लम्हा-लम्हा
रक्स कर गाता रहे
आंँगन की सूखी दूब पर
वह अब्र बनकर छा गई