लेखक : ज्ञानेंद्र रावत
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद है
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दुनिया के ग्लेशियर जिस तेजी से पिघल कर खत्म हो रहे हैं, वह भयावह आपदाओं का संकेत है। आशंका है कि जलवायु परिवर्तन की मौजूदा दर यदि इसी प्रकार बरकरार रही तो इस सदी के अंत तक दुनिया के दो तिहाई ग्लेशियरों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। पर्यावरणविद ज्ञानेन्द्र रावत का कहना है कि यह भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। दु:ख इस बात का है कि इस खतरे के प्रति हमारा मौन समझ से परे है।
चिंता यह भी कि यदि दुनिया आने वाले वर्षो में वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने में कामयाब भी रहती है, तब भी लगभग आधे से ज्यादा ग्लेशियर मिट जायेंगे।
जहां तक हिमालयी क्षेत्र का सवाल है,हिमालयी ग्लेशियरों को साल 2000 से 2020 के दौरान तकरीबन 2.7 गीगाटन का नुकसान हुआ है जो करीब 57 करोड़ हाथियों के बराबर है। यहां विभिन्न इलाकों में अधिकतर ग्लेशियर अलग- अलग दर पर पिघल रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी ग्लेशियर के पिघलने का न सिर्फ हिमालय की नदी प्रणाली के बहाव पर प्रतिकूल गंभीर प्रभाव पड़ेगा बल्कि इसके चलते प्राकृतिक आपदाओं में भी काफी बढ़ोतरी होगी जिसका आम जनमानस पर व्यापक दुष्प्रभाव पड़ेगा। इससे ग्लेशियर झीलों के फटने की घटनाएं, हिमस्खलन और भूस्खलन जैसी आपदाएं भी जन्म लेंगी।
इसके पीछे तापमान में बढ़ती अभूतपूर्व तेजी, जंगलों का तेजी से हो रहा कटान, पहाडी़ जल स्रोतों पर बढ़ता मानवीय दखल, अतिक्रमण, वाहनों की बेतहाशा बढो़तरी और कंक्रीट के जंगलों में अंधाधुंध हो रही बढ़ोतरी है। इससे सूखा, बाढ़ की समस्याओं में तो इजाफा होगा ही, सिंचाई व पीने के पानी के संकट को नकारा नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में यह पूरा इलाका पानी के लिएत्राहि-त्राहि करने को विवश होगा जो भयावह खतरे का संकेत है।