लेखक : राम भरोस मीणा
पर्यावरणविद् एल पी एस विकास संस्थान, थानागाजी अलवर, राजस्थान।
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पारिस्थितिकी अनुकूलता व प्राकृतिक संतुलन के गड़बड़ाते, आज हर तरफ़ नदियों को मरते देखा जा रहा है चाहे व्यक्ति, परिवार, समाज, सरकार जो भी हो नदी के पिछे लगें हुएं हैं, जबकि नदी हमारी मां है, जीवन दायिनी है, अमृत ( जल ) संग्रह करने का सबसे अच्छा स्रोत है, जल जंगल के जीवों का सुरक्षित स्थान, वनस्पतियों की संरक्षक, पक्षियों का अभयारण्य जो प्रकृति ने हमें दिया, उसे स्वच्छ सुंदर रखना बड़ा ज़रुरी है, रखतें आए हैं, रखने की बात भी कर रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश स्वच्छ सुंदर रखना दुर की बात, इन्हें जीवित रखना भी आज दुर्लभ होता जा रहा है। नदियों की बात करें या नदी विशेष की, बात एक ही है, सब के साथ एक जैसे बर्ताव हो रहें हैं थोड़ा अंतर जरुर हो सकता है।
देश में 200 से अधिक नदियां बड़ी नदी या कहें महा नदी है, वैसे नदियों को भौगोलिक स्थिति के साथ चार भागों में बांट दिया, हिमालय की नदियां, प्रायद्वीप नदियां, तटीय नदियां व अन्त स्थलीय प्रवाह क्षेत्र की नदियां, इनके अलावा नदी की सहायक नदी, नदी की मुख्य नदी, जगह जगह इनको अनेकों भागों में बांट कर देखा गया लेकिन नदी नदी ही है चाहे जो भी हो। देश की बड़ी नदियों में गंगा, यमुना , नर्मदा , चम्बल, साबरमती, सोन, काली, बेतवा, कावेरी, लूनी, रावी, व्यास,झेलम, काली, घाघरा,गंडक, बेतवा, ब्रह्मपुत्र, कोसी, कृष्णा, गोदावरी, तुंगभद्रा, नर्मदा,दामोदर, लूनी नदी बड़ी नदियां हैं, वहीं हजारों नदियां वे नदी है जो स्थानीय नदी के रूप में जानी जाती है या इन महा नदियों की सहायक नदी है जैसे अलवर में नारायणपुर वालीं नदी जो गुम नाम नदी है जबकि 1981-82 में इसके तेवर बहुत ख़तरनाक रहें हैं, रुपारेल नदी इतिहास बड़ा रहा, वर्तमान में हालात बेहद ख़राब है, जयपुर अलवर में बहने वाली साबी नदी या सोता नाला की बात करें आज अपने श्वास गिन रही है, हालातों पर काबू पाया जाना भी मुश्किल है,देश की सबसे छोटी नदी के नाम से जानी जाने वाली अरवरी नदी जो राजस्थान के अलवर जिले में मात्र 90 किलोमीटर बहती है वह भी अपने उद्गम स्थल पर सुकड गईं।
अन्य नदियां भी सूकड गई या सूकडा दी गई, इनके साथ बात यही खत्म नही होती, इनके अवशेष खत्म करने के साथ इन्हें रीवर से सीवर में बदला जा रहा है और बदल भी देंगे प्लान पक्का है। नदी से नाला, नालों से खेतों या फार्म हाउस में तब्दील होना हर जगह और प्रत्येक नदी के साथ हो रहा है, इसलिए लोग अपना मुंह खोलना ही नहीं चाहते, क्योंकि यह काम साधारण आदमी का नहीं वो बेचारा अपने हक को भी सुरक्षित नहीं रख सकता, काम सरकारी तंत्र के बहुत नजदीकी या भू- माफियाओं का है जो सरकार व समाज दोनों को दबाने में सक्षम हैं। लेकिन कहानी यहीं पुरी नहीं होती।
सम्बंधित सरकारी विभाग स्वयं इनके संरक्षण को लेकर मायूस हैं वे ही सीवर लाइन डाल रहे हैं, सफ़ाई के नाम एकत्रित अपशिष्ट नदियों के किनारे डाल कर स्वयं बचने के लिए तैयार हैं, नदी जाएं भाड़ में कचरा उठ जाएं। आम जन को नदी से लेना देना क्या, चाहे पर्यावरण बिगड़े या पानी में ज़हर घुले। देश की छोटी नदियों के सभी जगहों पर एक जैसे हालात हैं केवल उन्नीस बीस अन्तर हो सकता हैं।
बड़ी नदियों को मां कहना तों आसान है लेकिन उनके शरीर रुपी प्रवाह क्षेत्र में कैंसर से भी भयंकर बिमारियों का संग्रह केन्द्र बना हुआ है उससे उन्हें बचाना समस्या नहीं आपदा है वह भी मानव निर्मित। नदियों का श्वास लेना मुश्किल हो गया, चाहें वह गंगा हो, यमुना हैं, साबरमती हों। नदियों का जीवन ख़तरे में है, औधोगिक इकाईयों से निकलने वाले अपशीष्ट, मानव मल-मूत्र, सभी नदी में बहाएं जा रहे हैं आंक्सिजन कम पड़ने से इनकी गोद में पलने वाले जलीय जीव खत्म हो रहें हैं। नदी किनारे फेली दुर्गंध से उसकी स्वच्छता का अंदाजा लगाया जा सकता है। यमुना को लेकर आंदोलन, गंगा को लेकर आंदोलन लेकिन सिवरेज ने सभी को रोग दायिनी मां बना दिया, राजस्थान में चम्बल में खनन ने हालात बेहद ख़राब कर दिया, बहुत से जलीय जीव खत्म होने लगें हैं, प्रवाह तंत्र पर भी प्रभाव पड़ने लगा है।
आखिर नदियों के प्रति एक एक नजरिया बदला क्यौ? नदियां मां रहीं, इनके किनारे सभ्यताओं का विकास हुआं, आदि मानव इनकी पवित्रता और महत्ता को समझते हुए इन्हें अपनाया, संरक्षण दिया, सुरक्षा के लिए धर्म तथा धार्मिक भावनाओं से जोड़ा फिर भी महज़ पांच दशकों में ये डायन बन गई, धरातल से गायब दिखने लगी, जबकि जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण, औधोगीकरण के बढ़ते आज स्वच्छ जल उपलब्ध कराने वाली इन नदियों का महत्व और अधिक होना चाहिए था, देश में जल संकट दिनों दिन बढ़ता जा रहा है वहीं नदियों के दूषित होने से यह ग्राउंड वाटर की गुणवत्ता को नष्ट कर रहा है, पीने योग्य मीठा पानी गायब सा हो गया है। इनके जल प्रवाह क्षेत्रों को बनाए रखने के लिए एक ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।
नदी के रिवर से सिवरेज में तब्दील होते ही इनका पारिस्थितिकी तंत्र या कहें ईकोलाजिकल सिस्टम बदल जाता है, जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है, जलीय जीव मर जाते हैं, वनस्पतियां स्वाभाविक खत्म हो जाती है, आंतरिक बहाव क्षेत्र में जहरीला पानी एकत्रित होने लगता है जिससे मानव, पशु पक्षियों, वनस्पतियों पर दुष्प्रभावों के साथ विभिन्न प्रकार की महामारी यों के फैलने का अंदेशा ज्यादा रहता है। वर्तमान पर्यावरणीय हालातो व मीठे पानी की कमी को ध्यान में रखते हुए हमें नदियों के संरक्षण को लेकर ठोस कदम उठाने चाहिए, जिससे नदियों के बचने के साथ भूगर्भीय मीठे पानी को ज़हर में बदलने से बचा सके साथ ही इनके प्रवाह क्षेत्र को बचाने का प्रयास किया जाएं जिससे प्राकृतिक वनस्पतियां बच सकें और प्राकृतिक संतुलन बना रहे सके अतः हमें नदियों में सिवरेज डालने से परहेज़ करना चाहिए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं लेखक के अपने निजी विचार है।)