.... कविता ....
लेखक : तिलकराज सक्सेना
जयपुर।
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तुम्हें जो ये मेरी आवाज़ सुनाई देती है
वो मेरी नहीं है, वो तो कहीं गुम हो गयी है,
पर अंदर बहुत शोर भर गयी है,
बस उस शोर को दबाने की,
एक नाकाम कोशिश भर करता हूँ,
किसको बताऊँ, इसलिये कागज़ काले करता हूँ,
आज़ बरस हो गए मुझे बोले पर लगता है,
अभी कल की ही तो बात है,
जब कोई मुझे भी मनाता था,
जब मैं रूठकर चुप हो जाता था,
फिर क्या हुआ एक दिन, क्या हुआ, पता नहीं,
पर अचानक उस दिन क़त्ल तो हुआ मेरे भरोसे का,
और साथ उसके मेरी आवाज़ भी चली गयी,
पर अंदर कभी नाख़त्म होने वाला शोर भर गयी।