वनों की कमी से 2050 तक जल के साथ प्राण वायु का भी बड़ा संकट होगा!

चिन्तन के साथ क्रियान्वयन की ज्यादा जरूरत : मीणा

लेखक : राम भरोस मीणा 

पर्यावरणविद् एवं समाज विज्ञानी हैं

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कार्बनिक पदार्थों के उत्सर्जन में 50 प्रतिशत की कमी तय की जाएं,  जिससे प्राणवायु की बढ़ती कमी से बचने के साथ सम्पूर्ण प्राणि जगत को विनाश से बचाया जा सके।

जल थल नभ तीनों मंडलों में भूमंडल पर मानव  के साथ सभी जीवों की उत्पत्ति हुई, विकास हुआ, फैलाव हुआ, सुरक्षित रहें, जल मण्डल में जलीय जीव  सुरक्षित रहते, नभ में स्थलीय जीवन विचरण करते, जो भी हो, प्रकृति कहें या ईश्वर, गौड़, अल्लाह बहुत सोच समझ के साथ अजीब से भू मंडल बनाया, सत्य भी है, सही भी, आज हम किसी भी ग्रह पर रहने की व्यवस्था कर लें, "पृथ्वी पृथ्वी ही है" अजीब सी हैं। हमें नदी- नाले, झरना, तालाब, झील, पहाड़, पठार, मैदान, वन वनस्पतियां, इनके साथ एक वर्ष के चार मौसम सर्दी, गर्मी, वर्षा, बसंत और तों और प्रत्येक मौसम के हिसाब से फल फूल पत्ते कंद मूल प्रकृति ने हमें दिया। 

आवश्यकताओं के साथ वन्य जीवों, जलीय जीवों, आकाश में उड़ने वाले जीवों, पशु पक्षियों, कीट पतंगों की लाखों प्रजातियां उष्ण कटिबंधीय, शीतोष्ण कटिबंधीय, शीत कटिबंधीय या कहें बर्फिले क्षेत्र, मरुस्थलीय क्षेत्र, मैदानी भू भाग के प्राकृतिक स्थलों, प्राकृतिक वातावरण,  वनस्पतियों के साथ ही वन्य जीवों, किट पतंगों को उन का अपना आश्रय स्थल बनाने के लिए तैयार किया तथा मानव को सभी जीवों के साथ रहते हुए अपने आनंदमय जीवन जीने का एक अवसर दिया, जिसका लाभ स्वयं मानव आदि अनादि काल से लेता आया ओर लेगा भी क्योंकि सभी प्राणियों में "मानव श्रेष्ठ" है। "श्रेष्ठ रहेगा"। पहाड़ों की कंदराओं में जानवरों के समान कंद मूल फल फूल खाते हुए जीवन जीने वाले व्यक्ति ने सभी प्राणियों के साथ मित्रवत व्यवहार करते हुए उनके जैसे आनंदमय जीवन उनकी चहलक़दमी के साथ जीएं, जीते आए। मानवीय विकास ज्यों ज्यों बढ़ता गया, त्यों त्यों अपने स्वार्थ के चलते मन भेद दोनों के मध्य बढ़ते गए।

खैर जो भी है, वायु मण्डल इन सभी में सर्व श्रेष्ठ रहा चाहे व्यक्ति कितना ही विकास क्यों ना करें, कर भी रहा है, करता रहेगा।पंखे, कूलर,ए सी लगा अपने को कंक्रीट के महलों में सुरक्षित समझ कर खुलें आम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने लगा है, आंक्सिजन क्लब बनाने के साथ सिलेण्डर भी खरीदने लगा है। सारे बंदोबस्त करनें में लगातार प्रयासरत हैं, लेकिन भूल ? जों आनन्द प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त होता वह कहां भलें मानव द्वारा निर्मित संसाधनों से प्राप्त होगा। 11वीं शताब्दी तक व्यक्ति ने प्रकृति को समझ परखा उससे सिखा, विपरीत परिस्थितियों में भी मानव ने प्रकृति का साथ नहीं छोड़ा, यह कटु सत्य है। सोच अच्छी थी, समझ थी, इसलिए इसे धर्मग्रंथों धर्मगुरुओं प्रचारकों समाजसेवकों के माध्यम से बचाएं रखने का प्रयास किया। ध्याड़ी प्रथा  बनीं देव बनीं गौरवें बिहड़ रुंध  जंगलों में बांट कर वनों को संरक्षण दिया। 

नदियों को मां स्वरुप माना, पहाड़ों को रक्षा के मुख्य आधार मानकर उन्हें बचाना अपना कर्तव्य समझा। सभी जीवों को धर्म से जोड़ कर उनका संरक्षक बना। जो व्यक्ति प्रकृति के साथ जुड़कर रहता वहीं एका एक 17वीं शताब्दी में इतना बदला की अपने स्वार्थ की पूर्ति भौतिकवाद की लालसा, पूंजी वाद के बोलबाले से सब कुछ बिगाड़ने में मस्त हो गया, परिणाम स्वरूप 1930 के बाद प्रकृतिप्रदत्त सभी संसाधनों का दोहन तेज़ी से बड़ा, सरकारी तंत्र विकास के नाम इन्हें नष्ट करने में मदद करते हुए संरक्षण की ओर ध्यान नहीं दिया या कहें कि पूंजीवाद ने सभी को उस ओर धकेल दिया जिससे प्राकृतिक वनस्पतियां खनिज पदार्थो जल स्रोतों के दोहन के साथ वन्य जीवों जलीय जीवों का विनाश बहुत तीव्र गति से प्रारंभ हुआ जो आज विनाश के अंतिम छोर पर पहुंचा दिया। सरकार समाज व्यक्ति सभी इसे अनुभव कर रहे हैं, देख रहे हैं।

बीते 6 - 7 दशकों में प्राकृतिक संसाधन बहुत कम सुरक्षित रह सके हैं, वन 5 प्रतिशत , नदियां 70 प्रतिशत, पहाड़ 85 प्रतिशत, सुरक्षित रहने के साथ वन्य जीवों के प्राकृतिक आश्रय स्थल 40 प्रतिशत खत्म हो चुके हैं। भू गर्भीक जल भण्डार जो पीने योग्य मीठे पानी के है 2050 तक खत्म होने के कगार पर पहुंच गए, वैसे भी धरती का 35 प्रतिशत हिस्सा डार्क जोन घोषित हो चुका है। बात यही खत्म होने वालीं नहीं है, आज सभी जीव जंतु,  पशु पक्षी, मानव प्रदुषण से बहुत दुखी हैं, प्लास्टिक प्रदुषण, जल प्रदुषण, वायु प्रदुषण, ध्वनि प्रदुषण, कार्बनिक पदार्थों के उत्सर्जन से फैला प्रदुषण, सिवरेज का प्रदुषण चारों ओर प्रदुषण, समस्या एक से एक इन सभी समस्याओं का जनक भौतिकवाद, पूंजीवाद, विकासवाद तीनों विनाश को न्योता देने में सक्षम हैं, दे भी रहे हैं।

सत्य है विकास ही विनाश के रास्ते खोलता है। ग्लोबल वार्मिंग, पिघलते ग्लेशियर, समुन्दर का आगे बढ़ना, जल का पाताल पहुंचना, वायु से आंक्सिजन का गायब होना, नदियों का प्रदुषित होना, धरती का धंसना, मौसम चक्र में आए बदलाव, सब के सब विकासवाद की बिगड़ी परिभाषा की देन है। प्राकृतिक संसाधनों के साथ बढ़ते अत्याचार से प्रकृति ने हमें संकेत दे दिया है, समझना चाहिए। आकाश पाताल धरती तीनों जगह प्राणवायु के बगैर कोई भी व्यक्ति,जीव जंतु, कीट पतंग, पशु पक्षी जीवित नहीं रह सकते और यह कटु सत्य भी है। नदियों में फैले प्रदुषण तथा ऑक्सीजन की कमी से जलीय जीव ख़तरे में है, आकाश में लम्बी उड़ान भरने वाले पक्षी आंक्सिजन की कमी के चलते खत्म हो रहें हैं, धरती पर मानव स्वयं आंक्सिजन की कमी महसूस कर रहा है, आखिर फिर यह विकास किस काम का जो विनाश को न्योता दे। समझना चाहिए, नीतियों में परिवर्तन करना चाहिए, विकास की परिभाषा बदलनी चाहिए, प्रकृति और प्रकृति पर निर्भर प्रत्येक प्राणी की आवश्यकता व उसकी पूर्ति का तुलनात्मक अध्ययन समीक्षा कर विकास करना चाहिए, सच्चा विकास हो। 

आवश्यकता है कि नदियों को स्वतंत्र बहनें दिया जाए, वनों एवं वनस्पतियों का प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र पर 21 प्रतिशत से अधिक हों, पहाड़ों को  संरक्षण मिलें, जल का दोहन कम किया जाए, जल संरक्षण के कार्य अधिक किए जाएं, प्लास्टिक उत्पादन के साथ कार्बनिक पदार्थों के उत्सर्जन में एका एक 50 प्रतिशत से अधिक कमी लाई जाएं, और इन सब के लिए चिन्तन के साथ क्रियान्वयन पर जोर दिया जाए जिससे आगामी समय में एक बड़े विनाश से बच सकें और इसके लिए आवश्यकता है सम्पूर्ण वायु मण्डल के संरक्षण की।  (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)