पिछड़ा वर्ग आरक्षण-वास्तविकता : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी एवं पूर्व सदस्य सचिव- राज.राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग हैं 

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हमारे संविधान निर्माताओं के समक्ष भारत में एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का उद्देश्य था। संविधान द्वारा देशवासियों को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक न्याय प्रदान करने का प्रयास किया गया। जाति रहित तथा समतावादी समाज स्थापित करने और वयस्क मताधिकार प्रदान करने की संवैधानिक वचनबद्धता ने जाति व्यवस्था को सबसे बड़ी चुनौती दी। जाति, वंश, मूल, लिंग एवं धर्म से परे समतावादी समाज की स्थापना संविधान की प्रमुख व्यवस्था हैं। समानता की मांग अन्याय, अयोग्य एवं विधि विरूद्ध असमानता को चुनौती देती है। समतावादी सिद्धान्त परिणाम की समानता का सिद्धान्त है। इसलिए समान के साथ समानता एवं असमान के साथ समानता का व्यवहार यानि रक्षात्मक विभेदीकरण की नीति अपनाई गई।

अदालती फैसले जसवंत कौर बनाम बम्बई राज्य ए.आई.आर. 1952 पृष्ठ 461 मद्रास हाई कोर्ट के फैसले ए.आई.आर. 1951 पृष्ठ 120, उच्चतम न्यायालय के फैसले श्रीमती चम्पकम बोराई राजन बनाम मद्रास राज्य ए.आई.आर. 1951 सु.को.पृष्ठ 266 के प्रभाव को दूर करने के लिए पं. जवाहर लाल नेहरू ने प्रथम संविधान संशोधन अनुच्छेद 15(4) प्रस्तुत किया और कहा ‘‘राज्य के नीति निर्देशक तत्व लक्ष्य की गतिशीलता के द्योतक है, स्थिरता पर थोड़ा अधिक बल दिए जाने के कारण बाधाएं व रूकावटें उत्पन्न होती है, इन्हें दूर करना है। सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग एवं समूहों को शिक्षा के क्षेत्र में व शासकीय सेवाओं में व्यवस्था उनका संवैधानिक अधिकार है।’’ पं. जवाहर लाल नेहरू के प्रयासों से अनुच्छेद 15(4) जोड़ा गया तथा सामाजिक, शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गो की उन्न्ति के लिए विशेष उपबन्ध करने का राज्यों को अधिकार मिला। अनुच्छेद 16(4) के अन्तर्गत पिछड़े वर्गो को शासकीय सेवाओं में आरक्षण देने की व्यवस्था की गई।

तत्पश्चात पिछड़े वर्ग को परिभाषित करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत राष्ट्रपति को आयोग गठित करने तथा इस आयोग की अनुशंसा के अनुसार पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए कवायद प्रारम्भ की गई। संविधान के अनुच्छेद 340(1) के तहत 21 जनवरी 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में 11 सदस्यीय पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया गया। कालेलकर कमीशन ने पूरे देश की 2399 जातियों को पिछड़े वर्ग में शामिल करने हेतु एक सूची तैयार की व अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को प्रस्तुत की।

कालेलकर आयोग द्वारा पिछड़े वर्ग को परिभाषित करने में एक लम्बा विवाद रहा। केन्द्र सरकार ने प्रथम आयोग की सिफारिशों को इस कारण से स्वीकार नहीं किया क्योंकि पिछड़े वर्गो की पहचान में इसने कोई विषयपरक परीक्षण और मानदण्ड का प्रयोग नहीं किया। आयोग के 11 सदस्यों में से 5 ने विगत टिप्पणियां की थी। सरकार ने महसूस किया जनसंख्या के बहुत बड़े भाग को विशेष पिछड़े के रूप में वर्गीकृत किया गया, बहुसंख्यक के कारण जरूरतमंद व्यक्ति नजरअन्दाज हो जायेंगे। सरकार ने पिछड़ेपन के लिए मानदण्ड के रूप में केवल जाति को माने जाने को भी उपयुक्त नहीं माना और आर्थिक परीक्षणों को लागू करना भी आवश्यक समझा। स्वयं काका कालेलकर ने सरकार को प्रस्तुत रिपोर्ट में रही कमियों की तरफ ध्यान देने व सिफारिशों की कमियों के बारे में पत्र लिखा।

काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद पिछड़ेपन को जाति के बदले व्यवसायिक समुदाय से जोड़ा जाना उपयुक्त समझा। सरकार ने जाति के अलावा अन्य मानदण्ड खोजने के प्रयास किये जो व्यावहारिक रूप से लागू हो सके। उप महापंजीयक से व्यापक सर्वेक्षण कराया गया। राज्यों से विचार विमर्श किया गया। केन्द्र सरकार ने निर्णय लिया कि अ.भा.स्तर पर पिछड़े वर्गो की सूची नहीं बनायी जानी चाहिए, वह व्यावहारिक नहीं होगी। राज्य सरकारों को (पत्र संख्या 95/5/61 एसपीसी-5) गृह मंत्रालय ने पत्र लिखा, राज्य अपनी-अपनी सूचियां बनायें। जाति की अपेक्षा आर्थिक मानदण्ड (गरीबी) को महत्व दिया जाए। पं. जवाहरलाल नेहरू ने सभी मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा, जाति के आधार पर नहीं सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर पिछड़े वर्गो को विशेष सुविधा व अवसर दिया जाए। उन्होंने पार्लियामेन्ट में कहा कि सामाजिक में आर्थिक पिछड़ापन सम्मिलित है। केन्द्र सरकार ने 1959 में शिक्षा विभाग की ओर से पिछड़े वर्ग की एक सूची जारी की।

इसके पश्चात 11 राज्यों ने 18 आयोग नियुक्त किये। सरकार का ध्यान मुख्यतया समाज के विभिन्न वर्गो के बीच आर्थिक विषमताओं को दूर करने जैसी राष्ट्रीय आवश्यकता पर था। पिछड़ेपन का निर्धारण आर्थिक मानदण्ड द्वारा करने की बात पर अधिक जोर दिया। केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों को पत्र लिखा ‘‘राज्य सरकारों को पिछड़ेपन की परिभाषा करने व अपना मानदण्ड निश्चिित कर राज्यों को पिछड़ा वर्ग सूची बनाने व राज्य सेवा व शिक्षा में आरक्षण का अधिकार है।’’ भारत सरकार के विचार में यह अच्छा होगा यदि आर्थिक मापदण्ड लागू किया जाए। केन्द्र सरकार ने यदि कुछ समूहों को अनुच्छेद 338(3) के अन्तर्गत उल्लिखित भी कर दिया तो भी राज्य के लिए अनुच्छेद 15(4) के अन्तर्गत अपनी सूचियां तैयार करने की छूट होगी। पिछड़े वर्गो का समस्त विकास कार्यक्रम राज्य सरकारों पर छोड़ दिया गया। कुछ राज्यों में पिछड़े वर्गो को शासकीय सेवाओं में 20 प्रतिशत और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में 15 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया।

भारत सरकार ने 20 दिसम्बर 1978 को संविधान के अनुच्छेद 340 के अन्तर्गत बी.पी.मण्डल आयोग की संरचना की गई। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 31 दिसम्बर 1980 में पुनः माना कि हिन्दु समुदायों के बीच अन्य पिछड़ा वर्गो की पहचान में जाति एक महत्वपूर्ण तत्व है। यदि कोई जाति पूर्णरूप से सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी है तो ऐसी जाति के पक्ष में आरक्षण नागरिकों का एक वर्ग मानकर किया जाए। द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग का प्रतिवेदन 30 अप्रेल 1982 को संसद में प्रस्तुत किया गया। सरकार ने पिछड़ापन निर्धारण हेतु आर्थिक आधार के मापदण्ड के संबंध में पुनः राज्य सरकारों की राय मांगी। अप्रेल 1983 को मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई और विचार विमर्श किया। प्रस्तावित विसंगतियां दूर करने हेतु सचिवों की समिति नियुक्त की जिसे मंत्रीमंडलीय उपसमिति को प्रस्तुत की। 

राजनैतिक उठा पटक के बीच कमण्डल मण्डल की आपसी खींचतान में वी.पी.सिंह सरकार ने 13 अगस्त 1990 को आरक्षण संबंधी आफिस मैमामरेन्डम जारी कर दिया जिसके विरूद्ध उच्च्तम न्यायालय में जनहित याचिकाएं पेश हुई, जिस पर उच्च्तम न्यायालय ने स्टे आर्डर जारी कर दिया। पी.वी.नरसिंहा राव सरकार ने आफिस मैमोरेन्डम में संशोधन किया जिसके द्वारा आरक्षण में आर्थिक मापदण्ड जोड़ा, रिजर्वेशन में गरीबी को प्राथमिकता देने व 10 प्रतिशत आरक्षण पृथक से आर्थिक रूप से पिछड़ों को देने का मैमोरेन्डम जारी किया। उच्चतम न्यायालय ने कुछ तब्दिलियों व शर्तो में स्पष्टीकरण के साथ पिछड़ वर्गो की अधिसूचना ओएम 13/08/1990 वैध ठहराया परन्तु केवल आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण के आफिस मैमोरेन्डम 25/09/1991 को खारीज कर दिया। 1992 एसयूपी(3) (एसईसी 217)

पं. जवाहरलाल नेहरू जाति के आधार पर आरक्षण से जातिवाद फैलने की आशंका करते थे और सामाजिक के साथ आर्थिक मानदण्ड को महत्व व प्राथमिकता देते थे। आरक्षण के वर्तमान तथा कथित समर्थक उस समय उसके खिलाफ थे और बड़ी संख्या में जनधन हानि उठानी पड़ी थी।

उच्चतम न्यायालय ने राज्य स्तर पर राज्य सरकारों को पिछड़ा वर्ग आयोग गठित कर राज्य पिछड़ा वर्ग सूची बनाने, नाम जोड़ने-घटाने, पिछड़ा वर्ग सूचियों का वर्गीकरण व लगातार रिवीजन (10 वर्ष में पूरा रिवीजन) करने का अधिकार दिया। क्रीमीलेयर (अपवर्जन) का सिद्धान्त लागू किया। एक्जीक्यूटिव आदेश को पर्याप्त माना। सामान्यतः 50 प्रतिशत की सीमा तक 27 प्रतिशत आरक्षण को वैध माना। उच्चतम न्यायालय ने इन्द्रा साहनी बनाम सरकार, नागपाल केस व अन्य केसों में कहा है, आंकड़े एकत्रित किये जायें, जो समाज व व्यक्ति आरक्षण का लाभ प्राप्त कर उन्न्त, समृद्ध व पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त कर चुके, उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं देकर उन्हीं वर्गो के अभी तक पिछड़े वर्गो को जिन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिला है आरक्षण का लाभ दिया जाए। 

यह देखा जाए कि सामाजिक, शैक्षणिक पिछड़ापन निषेधों व निर्योग्यताओं के कारण हुआ है व पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। प्रतियोगिता में गुणवत्ता के आधार पर चुने गये उम्मीद्वारों को समायोजित नहीं किया जाए। आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है और सरकारों को मजबूर नहीं किया जा सकता, राज्य के विवेक व इच्छा पर निर्भर है। पर्याप्त आंकड़े एकत्रित किए जाए। अनुच्छेद 335 संघ या राज्य कार्यो में सशक्त सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में प्रशासन कार्यपटूता बनाये रखने की संगति के अनुसार हो, प्रशासनिक क्षमता का ह्ास नहीं हो।

प्रथम संविधान संशोधन पर संसदीय बहस के दौरान पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था यदि वैयक्तिक स्वतंत्रता के लिए किसी भी अपील का अर्थ वर्तमान असमानताओं को बनाए रखने के रूप में लिया जाएगा तो कठिनाईयां बढ़ जाएगी। हम प्रगतिहीन हो जायेंगे, समानतावादी समाज के आदर्श को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। लोक कल्याण को उन्नति हेतु राज्य सामाजिक व्यवस्था बनायेगा। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधिपति वी.आर. कृष्ण अय्यर ने पिछड़े वर्गो की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक असमानता पर विस्तृत विवरण दिया है। संघ या राज्य के कार्यो से सशक्त सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में प्रशासन कार्यपटूता बनाये रखने की संगति के अनुसार आरक्षण का ध्यान रखा जाएगा। जस्टिस चिन्नपा रेड्डी ने कहा है जिसके पास लैण्ड, लर्निग व पावर है उसे पिछड़ा वर्ग घोषित नहीं किया जाना चाहिए। राजीव गांधी के कार्यकाल में संविधान संशोधन 73, 74 द्वारा पंचायतों व नगरीय स्वायत्तशासी संस्थाओं में आरक्षण विशेषकर 33 प्रतिशत महिला आरक्षण किया।

भारत सरकार ने संविधान संशोधन 102 के द्वारा राज्यों का अधिकार छीन लिया। उच्चतम न्यायालय द्वारा महाराष्ट्र के मराठा आरक्षण के संबंध में दिये गये फैसले के पश्चात भारत सरकार को गलती का एहसास हुआ और संशोधन 127 द्वारा पुनः राज्यों को अध्किार दिया गया। प्रचारित किया जा रहा है व बताया जा रहा है कि भारत सरकार ने कोई नया अधिकार राज्यों को दिया है, राष्ट्रपति की मोहर लगने की बात कही जा रही है जबकि प्रावधानों से स्पष्ट है, इस संबंध में राष्ट्रपति का कोई रोल नहीं होगा। अपवर्जन के सिद्धान्त में तब्दीली की जा रही है जबकि उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कहा है क्रिमीलेयर केवल आर्थिक आधार पर निर्धारित नहीं किया जा सकता। नीति के अनुसार नियत नहीं होने से नियति यह हो रही है कि जातिवाद व असमानता बढ़ रही है।

अब आरक्षण का राजनीतिकरण हो गया है। केन्द्र व राज्य अपनी राजनैतिक सुविधा के अनुसार पिछड़े वर्ग सूचियों में जातियां व उपजातिया जोड़ रहे है। मापदण्डों को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है।। जातिवाद बढ़ रहा है। रिवीजन नहीं होने से आरक्षित वर्गो में असमानता बढ़ रही है। सुप्रिम कोर्ट के स्पष्ट फैसलों पर ध्यान नहीं देकर उसके विपरीत आचरण किया जा रहा है। 50 प्रतिशत की सीमा लांघी जा रही है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बहुत पहले डाॅ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था ‘‘आरक्षण माइनरिटी तक रहेगा’’। लिस्टों का वर्गीकरण व रिवीजन नहीं किया जा रहा है। जाति आधार पर आंकड़े एकत्रित नहीं किये जा रहे है। उन्नत नई जातियां पिछडा वर्ग सूची में जोड़ी जा रही है। जांत-पात की राजनीति को बढ़ावा दिया जा रहा है। रोहिणी आयोग के अनुसार 2486 पिछड़ी जातियों में केवल दस जातियां 25 प्रतिशत का लाभ ले रही है। ऊपर की सौ जातियां तीन चैथाई लाभ जबकि नीचे की एक हजार जातियों को कोई लाभ नहीं मिल पाता।

आरक्षण की पूर्ण समीक्षा व लिस्टों का रिवीजन आवश्यक है जिससे अब तक आरक्षण लाभ से वंचितों को भी लाभ मिल सके। अभी हाल ही में मद्रास हाई कोर्ट ने अपने फैसले में 50 प्रतिशत से ऊपर आर्थिक आधार पर दिये आरक्षण को अवैध ठहराया है तथा उच्चतम न्यायालय ने हरियाणा सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर अपवर्जन (क्रिमीलेयर) के सिद्धान्त को खारिज किया है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधिपति चन्द्रचूड ने स्पष्ट कहा है कि जातिवाद समाप्त होने के बजाए बढ़ रहा है। जाति विहीन, वर्ग विहीन समाज की स्थापना का उद्देश्य समाप्त हो रहा है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)