कविता
लेखक : तिलकराज सक्सेना
जयपुर।
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ना कोई वहाँ सुन सकता था, ना कोई देख सकता था,
बस कुछ अस्पष्ट सी ध्वनियाँ सुनाई देतीं थीं,
कुछ मधुर, पर अधिकाँश कर्कश जो मधुर ध्वनियों का,
अस्तित्व मिटाने पर आमादा सी दिखाई देतीं थीं।
हृदय पीड़ा से बहुत बेकल था,
मन बहुत कुछ कहने को व्याकुल था,
पर अंधे-बहरों की बस्ती में, किसको सुनाता मैं दर्द अपना
मेरी सदायें भी वहाँ, लौट मुझी में समा जातीं थीं,
आँखें रिमझिम करती, सावन-भादों सी बरस जातीं थीं।
आखिर रहना उसी बस्ती में था,
और एक दिन मैं भी उन्हीं की तरह अंधा-बहरा हो गया,
मेरा अस्तित्व उसी बस्ती के स्याह अंधेरे में कहीं खो गया।