अंतरराष्ट्रीय ओजोन संरक्षण दिवस 16 सितंबर पर विशेष
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं
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ओजोन परत के कारण ही धरती पर जीवन संभव है। इसके महत्व को समझते हुए ही आज से 36 बरस पहले 1987 में संयुक्त राष्ट्र् महासभा ने मांट्र्यिल समझौते पर हस्ताक्षर की तारीख को चिन्हित करते हुए 16 सितम्बर को अंतरराष्ट्र्ीय ओजोन दिवस के रूप में घोषित किया था। सच तो यह है कि जीवन के लिए महत्वपूर्ण वायुमंडल में ओजोन परत की सबसे पहले खोज 1867 में जर्मन-स्विस वैज्ञानिक शानबीन ने की और उसके एक साल बाद इसकी पुष्टि एन्ड्र्यूज ने की।
कुछ इसका श्रेय 1913 में फ्रांस के मौसम विज्ञानी फैबरी चार्ल्स और हैनरी बुसोन को और इसके गुणों का विस्तार से अध्ययन के लिए ब्रिटेन के मौसम विज्ञानी जी एम डी डोबसन को देते हैं जिन्होंने स्पैक्ट्र्ोफोटोमीटर को विकसित किया जिसने सबसे पहले स्ट्र्ैटोस्फेरिक ओजान को भूतल से नापा। तब सौर स्पैक्ट्र्म मापन का उपयोग सूर्य और पृथ्वी के बीच के मार्ग में ओजोन की मात्रा का निर्धारण करने के लिए किया गया था। यह एक हल्की नीली गैस है जिसमें तेज अप्रिय गंध होती है जिसे शानबीन ने ग्रीक शब्द ओजीन के बाद ओजोन कहा जिसका अर्थ है गंध करना। यह परत सूर्य के उच्च आवृत्ति के पराबैंगनी प्रकाश की 90 फीसदी मात्रा को अवशोषित कर लेती है जो पृथ्वी पर जीवन के लिए बेहद हानिकारक है।
आज उसी ओजान परत में हुए छेद में बढो़तरी होते जाने से आर्कटिक में गर्मी बढने, बर्फ के पिघलने की दर में तेजी आने, त्वचा के कैंसर के मामलों में और इसका घातक असर मेलोनोमा के मामले में बेतहाशा बढो़तरी होने का खतरा मंडरा रहा है। इसके चलते मानव जीवन, जीव जंतु, पेड़-पौधों और पारिस्थितिकी का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। एक अध्ययन के मुताबिक यूवीबी विकिरण में दस फीसदी की बढो़तरी पुरुषों में मेलोनोमा के मामलों में उन्नीस फीसदी और महिलाओं में सोलह फीसदी की बढो़तरी करती है। चिली के पंटा एरिनास में किया गया अध्ययन यह साबित करता है कि ओजोन में कमी और यूवीबी विकिरण में बढो़तरी के साथ मेलोनोमा के मामलों में 56 फीसदी और गैर मैलोनोमा स्किन कैंसर के मामलों में 46 फीसदी की बढो़तरी हुई है। फसलों की वृद्धि भी प्रभावित हुई है सो अलग।
इसके दुष्प्रभाव स्वरूप लोगों का स्वास्थ्य खराब होगा, वंशानुगत बीमारियां, चर्म रोग, कैंसर जैसी घातक बीमारियां बढे़ंगीं, आंखों पर दुष्प्रभाव होगा ,मोतियाबिंद के मामले बढे़ंगे और जलजीवन बुरी तरह प्रभावित होगा। तात्पर्य यह कि यदि हम धरती के ओजोन परत रूपी इस सुरक्षा कवच को बचाने में नाकाम रहे तो धरती पर जीवन की कल्पना बेमानी होगी। क्योंकि पृथ्वी के वायुमंडल की स्ट्रैटोस्फेयर परत के नीचे के हिस्से में बडी़ मात्रा में ओजोन पायी जाती है, इसे ही ओजोन परत कहते हैं। इसके क्षरण का मूल कारण प्रदूषण है जिसमें मानवीय दखलंदाजी की प्रमुख भूमिका है। इसी कारण सूर्य की पराबैंगनी किरणें धरती पर सीधे-सीधे टकराती हैं जो तबाही का कारण बनती हैं। इस परत के क्षरण में वाहनों से निकलने वाले धुंए, रेफ्रिजरेटर और एयरकंडीशनर से निकलने वाली क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस की महती भूमिका है।
दरअसल मानवीय गतिविधियां क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस का बनाती हैं जो ओजोन परत का निर्माण करती है। सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणें जिन्हें अल्ट्रावायलेट किरणें भी कहते हैं, क्लोरोफ्लोरोकार्बन की ओजोन परत को तोड़कर क्लोरीन का निर्माण करती है। क्लोरीन के कण ओजोन के मालीक्यूल्स को तोड़कर उसका क्षरण करते हैं। ओजोन परत के क्षरण से धरती पर सूर्य की पराबैंगनी किरणों का आगमन बढ़ जाता है। नतीजतन पर्यावरण तो प्रभावित होता ही है, मानव स्वास्थ्य प्रभावित होता है, जानलेवा बीमारियां फैलती हैं और पारिस्थितिकी पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कारण पृथ्वी की परत के उपर की ओजोन हमारे लिए रक्षा कवच का काम करती है जबकि पृथ्वी की परत के नजदीक की ओजोन हमारे लिए स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों का सबब बनती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि धरती के चारो ओर ओजोन की परत जितनी मोटी होगी, सूर्य की पराबैंगनी किरणों से उतनी ही धरती बची रहेगी। ओजोन के बिना धरती पर जीवन संभव नहीं है।
वैज्ञानिकों के अनुसार ओजोन के लिए खतरनाक गैसों के प्रयोग एवं रिसाव में 90 फीसदी की कटौती तथा वैकल्पिक गैस ईजाद करने से समस्या का समाधान नजर नहीं आता। इसके बाबजूद उत्तरी ध्रुव में आर्कटिक पर ओजोन में बडा़ छेद हो गया है। यह छेद करीब दस लाख वर्ग किलोमीटर का हो गया है। फिर भी यह अंटार्कटिका के छेद से बहुत छोटा है जो तीन-चार महीने में दो से ढाई करोड़ वर्ग किलोमीटर तक फैल जाता है। इसका अहम कारण मौसम में हो रहा बदलाव है। फिर भी इसकी मात्रा दक्षिणी ध्रुव की तुलना में काफी कम है। जबकि समूचे शोध- अध्ययन इसके जीते जागते सबूत हैं कि दुनिया में दावे कुछ भी किये जायें प्रदूषण में दिन ब दिन बढो़तरी हो रही है, उसपर अंकुश का दावा बेमानी है। जबकि सच यह है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर ओजोन परत पर पड़ा है जिससे उसके लुप्त होने का खतरा मंडराने लगा है।
दरअसल वायुमंडल के उपरी हिस्से में लगभग 25 किलोमीटर की उंचाई पर फैली ओजोन परत सूर्य की किरणों के खतरनाक अल्ट्र्ावायलट हिस्से से पृथ्वी के जीवन की रक्षा करती है। यही जब धरती के वायुमंडल में आ जाती है तो हमारे लिए जहरीली गैस के रूप में काम करती है। यदि हवा में ओजोन का स्तर काफी अधिक हो जाये तो बेहोशी और दम घुटने की स्थिति आ सकती है। मौसम के बदलाव से कहीं प्रचंड गर्मी तो कहीं प्रचंड सर्दी से पैदा हालात स्थिति और भयावह बना रहे हैं। गर्मी बढ़ने से हवा में प्रदूषण के रूप में मौजूद कार्बन मोनोआक्साइड व नाइट्र्ोजन डाईआक्साइड जैसी गैसों के तत्व टूट कर हवा में मौजूद ऑक्सीजन से क्रिया करते हैं। हवा में ओजोन का स्तर बढ़ने से उसकी गुणवत्ता खराब होती है। तब अन्य प्रदूषक तत्वों की अपेक्षा ओजोन आसानी से शरीर में प्रवेश कर अंगों को प्रभावित करती है।
प्रचंड गर्मी ओजोन के रूप में नई मुश्किलें पैदा कर रही है जो हवा में ओजोन के स्तर बढ़ने से पैदा हुई है। यह समस्या सांस से जुड़ी बीमारियां, उल्टी आने, चक्कर, थकान बढ़ने, रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने और ब्लड प्रैशर की मुख्य वजह साबित हो रही है। मौसम विज्ञानियों की मानें तो बढ़ती गर्मी के लिए भी प्रदूषण ही जिम्मेदार है। ऐसे में हमें प्रदूषण का स्तर कम करना होगा। संयुक्त राष्ट्र् पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार जिस रफ्तार से ओजोन परत की क्षति हो रही है, उससे हरेक साल त्वचा कैंसर के तीन लाख अतिरिक्त रोगी पैदा होंगे, फसलों को नुकसान पहुंचेगा और समुद्री जीवन के आधार को भी क्षति पहंुचेगी।
अकेले देश की राजधानी दिल्ली को लें, यहां के वातावरण में ओजोन के प्रदूषक कणों की मात्रा डेढ़ गुणा तक बढ़ गयी है। यह सारा दोष अत्याधिक उपभोगवादी संस्कृति का है जो प्राकृतिक संसाधनों के अत्याधिक दोहन, शोषण और बर्बादी की जन्मदात्री है। उपभोगवादी संस्कृति के विकास-प्रसार का एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है जो इसके अर्थशास्त्र, राजनीति एवं समाजशास्त्र से अधिक महत्वपूर्ण है। कारण वर्तमान में भौतिक समृद्धि ही सम्माननीय है। जबतक सोच और व्यवहार की इस क्रिया को इंसान स्वयं नही बदलेगा तब प्रकृति उसे बदलने पर मजबूर कर देगी। जरूरत है कि हम उपभोगवादी संस्कृति को त्यागकर पृथ्वी को शस्य, श्यामला और समस्त चराचर जीवों के लिए सुरक्षित बनाएं। इसके लिए हम अपनी जीवन शैली बदलें, भौतिक संसाधनों पर अपनी निर्भरता कम करें, अधिक से अधिक पेड़ लगायें, उनकी संवृद्धि और रक्षा के हरसंभव प्रयास करें ताकि सूर्य की घातक पराबैंगनी किरणें सीधे धरती पर न आ सकें। तभी ओजोन परत के छेद में हो रही बढो़तरी को रोका जा सकता है। यह काम जागरूकता के बिना असंभव है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)