बदहाल यमुना का पुरसाहाल कौन : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

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यमुना बरसों से बदहाल है लेकिन उसकी बदहाली से निजात मिल पाना मौजूदा हालात में संभव नहीं दिखता। वह आज अपने भगीरथ की बाट जोह रही है।  जबकि अभी तक यमुना की सफाई के नाम पर करोडो़ं की राशि खर्च की जा चुकी है। यदि देश की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी की मानें तो यमुना सफाई के नाम पर अभी तक तकरीब आठ हजार करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं लेकिन यमुना पहले से और प्रदूषित हो गयी है। हालत यह है कि आज उसके किनारे तक खडा़ होना दूभर है। विडम्बना यह कि दिल्ली के मुख्यमंत्री हर बार चुनाव से पहले यमुना में डुबकी लगाने की बात करते हैं लेकिन ऐसा सुअवसर दिल्ली वालों को आज तक नसीब नहीं हुआ। 

यह स्थिति तब है जबकि दिल्ली सरकार बीते बरसों से लगातार यमुना को फरवरी 2025 तक साफ करके नहाने लायक बनाने का लगातार दावा करती रही है। इस दिशा में वह समय-समय पर लाख कवायद करने का दावा भी करती रहती है लेकिन हकीकत इसके बिलकुल उलट है। यह दावा बीते दिनों कालिंदी कुंज स्थित यमुना घाट का निरीक्षण करने के बाद किया है दिल्ली के भाजपा सांसद मनोज तिवारी और दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीरेन्द्र सचदेवा का। देखा जाये तो असलियत में बीते पांच साल में यमुना नदी पहले से और ज्यादा प्रदूषित हो गयी है। उसका पानी न तो नहाने लायक और न ही आचमन लायक ही रहा है। वह जानलेवा बीमारियों का सबब बन चुका है। उसके ऊपर झाग की सफेद चादर बिछी हुयी है। 

इसकी पुष्टि तो पर्यावरण विभाग तक कर चुका है। गैर सरकारी आंकडो़ं को छोड़ दें और यदि सरकारी आंकडो़ं की ही मानें तो स्थिति यह है कि 242 एमजीडी सीवर मल बिना शोधन के सीधे यमुना में गिर रहा है। 1799 अनधिकृत कालोनियों में से 1052 मे सीवर ही नहीं डाला गया है। 110 किलोमीटर की सीवर लाइन की सफाई का काम भी अधूरा पडा़ हुआ है। यही कारण है कि यमुना के पानी में फीकल कालीफार्म 200000 एमपीएन/100 एम एल हो गया है जो 2500 एमपीएन/100 एम एल होना चाहिए।  यदि दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की मानें तो हालत इतनी खराब है कि यमुना के पानी में फीकल कोलिफार्म की मौजूदगी 272 गुणा से भी ज्यादा है जो अधिकतम स्वीकृत मानक से 6.8 से भी बहुत अधिक है। 

विडम्बना यह है कि इनकी तादाद दिनोंदिन तेजी से बढ़ रही है जो खतरनाक संकेत है। सच्चाई यह है कि दिल्ली क्षेत्र का कोई भी इलाका हो, वहां यमुना के पानी में आक्सीजन की मात्रा शून्य पायी गयी है। प्रदूषण बोर्ड तक इसकी पुष्टि कर चुका है। यही नहीं केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने तो यहां तक माना है कि यमुना को दिल्ली और हरियाणा की टैक्सटाइल इकाइयां 70 फीसदी प्रदूषित कर रही हैं। उसका मानना है कि दिल्ली में यमुना बेसिन की 210 औद्योगिक टैक्स्टाइल इकाइयों में से 96 और हरियाणा की 924 में से 413 इकाइयां अमोनिकल नाइट्रोजन और नाइट्रेट सीधे-सीधे बिना इफ्यूलैंट ट्रीटमेंट के यमुना में बहाया जा रहा है। 

इस संदर्भ में यदि हकीकत बयां की जाये तो यह स्पष्ट है कि यमुना प्रदूषण पर बोर्ड की ओर से हरियाणा, उत्तर प्रदेश,दिल्ली और उत्तराखंड को पहले भी कई बार दिशा निर्देश जारी किये गये हैं। यही नहीं देश की सुप्रीम अदालत ने भी कई  बार फटकार भी लगाई है, कई  बार औद्यौगिक इकाइयों पर जुर्माना भी लगाया गया और कई  बार क्लोरल रिपोर्ट भी जारी की गयी लेकिन उसके कुछ समय बाद फिर वही रवैय्या देखा गया और ये सभी दिशा निर्देश नाकाम ही साबित हुए। इस नाकामी में दरअसल सबसे बड़ी भूमिका राज्य स्तर पर किये राजनीतिक हस्तक्षेप की रही जिसे नकारा नहीं जा सकता। ग्रीन ट्रिब्यूनल भी यह स्वीकार करता है कि यमुना में बडे़ पैमाने पर अनियंत्रित प्रदूषण है और पूरी स्थिति बेहद निराशाजनक है। इसमें कोलीफार्म का स्तर खतरनाक स्तर तक बढा़ हुआ है।

गौरतलब है कि बजीराबाद से लेकर ओखला के बीच घरेलू अपशिष्ट जल और रसायन युक्त औद्योगिक अपशिष्ट को ले जाने वाले 22 बड़े नाले सीधे-सीधे यमुना में गिरते हैं। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि यमुना की कुल लम्बाई का मात्र 22 किलोमीटर का इलाका दिल्ली में पड़ता है लेकिन सबसे बड़ी हकीकत यह है कि यही 22 किलोमीटर का इलाका यमुना को सबसे ज्यादा प्रदूषित करता है। आंकड़ों की माने तो नदी के 80 फीसदी प्रदूषण के लिए यही 22 किलोमीटर का इलाका सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। 

सच्चाई यह है कि पूरी यमुना में जो गंदगी है,  उसमें 80 फीसदी तो दिल्ली की ही गंदगी है। यमुनोत्री से प्रयागराज तक बहने वाली यमुना का मात्र दो फीसदी हिस्सा ही दिल्ली में बहता है। लेकिन उसी में वह 80 फीसदी प्रदूषित हो जाती है। मात्र 20 किलोमीटर के दायरे में हर दो किलोमीटर पर दो नाले यमुना को प्रदूषित कर रहे हैं। नाले गिरते ही यमुना का पानी नाले के पानी समान काला हो जाता है, उसमें झाग बनना शुरू हो जाता है। 

नतीजतन उसमें अमोनिया का स्तर बढ़ने लगता है और वह दुर्गंधमय हो जाता है। देखा जाये तो यमुना में अमोनिया के बढ़ते स्तर का सवाल नया नहीं है। यह समस्या कमोवेश बरकरार ही रहती है। यह वह अहम कारण है कि जिसके चलते दिल्ली जल बोर्ड अपने जल शोधन संयंत्रों से बीस से पच्चीस फीसदी जलापूर्ति कम कर पाता है।  योजना अनुसार हर नाले पर एसटीपी लगायी जानी थीं,  वह काम भी आजतक नहीं हो सका है। हकीकत में दिल्ली का तकरीब 90 फीसदी घरेलू अपशिष्ट जल यमुना में नालों के जरिये सीधे जाता है। इसमें डिटर्जेंट और कपडे़ धोने वाले रसायनों की भरमार होती है। यमुना में झाग की परतों में उच्च फास्फेट सांद्रता में मुख्य रूप में घरेलू अपशिष्ट जल का प्रमुख योगदान होता है।

पर्यावरण विभाग द्वारा यमुना के पानी की जांच में यह खुलासा हुआ है कि राजधानी के प्रत्येक इलाके के यमुना के पानी में पिछले पांच छह साल के दौरान बीओडी का सालाना औसत स्तर लगातार बढ़ रहा है जो चिंतनीय है। असलियत में इस सबके लिए दिल्ली में यमुना की सफाई से जुडी़ परियोजनाओं में हो रही देरी जिम्मेवार है। डीपीसीसी एनजीटी को सौंपी हालिया रिपोर्ट भी इसकी पुष्टि करती है कि यमुना में प्रदूषण कम करने के लिए शुरू किये जाने वाली परियोजनाओं जो एनजीटी पैनल की यमुना को पुनर्जीवित किये जाने की योजना का हिस्सा हैं, जिनमें नये एसटीपी संयंत्रों का निर्माण, नालों के मुंह पर जाली लगाना, अनधिकृत कालोनियों में सीवर लाइन बिछाना, ट्रंक सीवरों से गाद निकालना और उपचारित अपशिष्ट जल का उपयोग शामिल है,इनमें महत्वपूर्ण रूप से देरी हुयी है।

गौरतलब यह है कि दिल्ली में दो सरकारें हैं। केन्द्र में भाजपा की सरकार और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में आप की सरकार है। लेकिन यमुना साफ कर पाने में दोनों दलों की सरकारें नाकाम रही हैं। जबकि यमुना सफाई अभियान को शुरू हुए दो दशक से भी अधिक का समय बीत चुका है। लेकिन हालात जस के तस हैं। यमुना को टेम्स बनाने का सपना तो सपना ही बनकर रह गया है। यमुना की हालत देखकर तो यही लगता है कि यमुना टेम्स बन पायेगी, इस सदी में तो उसकी आशा करना ही बेमानी है। 

अब सवाल यह है कि जब दिल्ली में यमुना की स्थिति इतनी बदहाल है, उस दशा में दिल्ली से आगे मथुरा-आगरा और उसके आगे यमुना की स्थिति क्या होगी, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। असलियत में यमुना सफाई की दिशा में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण,अदालतें और पर्यावरण विभाग आदि सख्त नियम बनाते हैं, सुधार हेतु आदेश देते हैं लेकिन भ्रष्टाचार और प्रशासनिक तंत्र का निकम्मेपन कहें या नाकारेपन की इसमें सबसे बड़ी भूमिका है। उसमें भी राजनैतिक नेतृत्व की प्रबल इच्छाशक्ति का अभाव इसका सबसे बड़ा कारण है जिसे झुठलाया नहीं  जा सकता। क्योंकि नदी वोट बैंक नहीं है। जरूरत है कि हम नदियों के जीवन में महत्व को समझते-जानते हुए अपनी जिम्मेदारी समझें,इनको पूजें और इन्हें कूडा़ गाड़ी बनाने का किंचित मात्र भी प्रयास न करें। यह भी कि नदियाँ रहेंगी तो हम रहेंगे अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब इनका अस्तित्व ही नहीं रहेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)