इंदिरा गांधी के जन्मदिवस पर विशेष
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं
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इंदिरा गांधी (1917-1984) और जवाहर लाल नेहरू स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत के दो ऐसे आख्यान हैं जिन्हें पढ़कर भारत का प्रत्येक नागरिक गर्व अनुभव करता है। मैंने भी बचपन में जवाहर लाल नेहरू को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में देखा और सुना है तथा इंदिरा गांधी को भी कुछ निकट से जाना-पहचाना है। संयोग से इंदिरा गांधी जब (1964) सूचना प्रसारण मंत्री थीं, तब उन्हीं के कर कमलों के द्वारा हमारे आकाशवाणी कलाकार संघ का नई दिल्ली में उद्घाटन हुआ था। अविभाजित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एस. ए. डांगे ने समारोह की अध्यक्षता की थी। मेरे साथी अशोक वाजपेयी (समाचार वाचक) के साथ मैं भी अक्सर उनके साथ इंदिरा जी के निवास पर जाया करता था। अपने युवा काल से इंदिरा गांधी को जिस तरह से मैंने समझा है वे यादें मेरे मन में भी आज तक एक प्रेरणा की तरह सही-सलामत हैं।
इंदिरा गांधी को जवाहरलाल नेहरू की प्रसिद्ध पुस्तक ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम‘ से भी मैंने देखा है और फिर उनके पूरे प्रधानमंत्री काल से भी मैं गुजरा हूं। मैं स्वतंत्र भारत के उनके सबसे अधिक विवादास्पद निर्णय, आपातकाल (1975) का अपनी आकाशवाणी सेवा के दौरान बर्खास्त होकर भुक्तभोगी भी रहा हूं क्योंकि दैनिक नवज्योति में 1973 से जारी मेरे साप्ताहिक स्तंभ ध्यानाकर्षण‘ की अनेक टिप्पणियों को सरकार ने आपत्तिजनक लेखन माना था। विशेषकर आपातकाल के दिनों में जयप्रकाश नारायण द्वारा प्रवर्तित संपूर्ण क्रांति के आंदोलन के तहत बिहार में कवि नागार्जुन और फणीश्वरनाथ रेणु की गिरफ्तारी को मैंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर कुठाराघात माना था और यह आपातकाल का विरोध माना गया था।
लेकिन आज जब मैं नए भारत के उसी बीते हुए समय और राजनीतिक घटनाक्रम को याद करता हूं तो मुझे लगता है इस देश में आपातकाल लगाना इंदिरा गांधी की एक ‘राजनीतिक जरूरत‘ थी और यह निर्णय उनकी अंतरआत्मा का निर्णय नहीं था। इंदिरा गांधी दो चरणों में 1996 से 1977 और 1980 से 1984 तक प्रधानमंत्री रहीं और इस काल का उनका भारत के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में अप्रतिम योगदान और प्रभाव रहा है। मुझे आज भी उनका ‘गरीबी हटाओ‘ का नारा और आम चुनाव जीतने का दौर याद है। मुझे स्मरण है कि ‘दूरदृष्टि, कठोर अनुशासन एवं दृढ़-इच्छा शक्ति‘ के उनकेआह्वान ने पूरे देश को नया जोश और विचार दिया दिया था।
यूं तो इंदिरा गांधी का पूरा जीवन और जगत ही बेमिसाल है लेकिन, उनकी राजनीतिक दृढ़-इच्छा शक्ति को तो यह देश कभी नहीं भुला पाएगा। जवाहर लाल नेहरू जहां भारत के एक स्वप्नजीवी राष्ट्र नायक थे और वैज्ञानिक समाजवाद के प्रवर्तक थे, वहीं इंदिरा गांधी एक साहसिक परिवर्तन को आधारशिला थी। मोटेतौर पर आप देखें तो बैंकों के राष्ट्रीयकरण का, बांग्लादेश की मुक्ति का, अंतरआत्मा की आवाज का, राष्ट्रीय एकता परिषद के गठन का, संविधान में धर्म निरपेक्षता और समाजवाद की प्रस्थापना का विश्व राजनीति में भारत की दृढ़ता के संदेश का, कांग्रेस पार्टी में प्रतिक्रियावादी और यथास्थितिवादियों से मुक्ति पाने का, आपातकाल में 20 सूत्री कार्यक्रम लागू करने के उनके निर्णय, कुछ ऐसे कदम थे जिसने देश की गति और प्रगति का स्वरूप ही बदल दिया है।
इंदिरा गांधी का संपूर्ण जीवन ही शक्ति और संघर्ष की कथा यात्रा है। इस देश में कविता के दो ही राज-नायक रहे हैं और महात्मा गांधी के बाद जवाहर लाल नेहरू तथा इंदिरा गांधी इसका उदाहरण हैं। इसी तरह बांग्लादेश का निर्माण और मुक्ति संग्राम को लेकर संसद में भाजपा के पितृ पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी उनकी तुलना देवी दुर्गा से करना हमारे इतिहास में उनकी शिखर राजनीति का प्रमाण है। प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन के चित्र हमें आज भी याद दिलाते हैं कि इंदिरा गांधी अनेक मामलों में नेहरू जी से भी दो कदम आगे थीं और इसलिए उनकी समाधि को आज भी हम ‘शक्ति स्थल‘ के रूप में ही पहचानते हैं। मुझे याद है कि समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया उनके प्रबल राजनीतिक आलोचक थे, लेकिन यह भी सच है कि लोहिया उनके व्यक्तित्व और दृढ़ता से चमत्कृत भी थे। इंदिरा गांधी को लेकर अब तक बहुत कुछ लिखा कहा गया है, लेकिन व्यापकता से तटस्थ मूल्यांकन करें तो आज भी हम यही कह सकते हैं कि इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में 1969 में जो किया वह साहस कांग्रेस पार्टी में नहीं है तथा यही आज कांग्रेस का असली संकट है।
इंदिरा गांधी के बाद से ही भारत की एकता और अखंडता में तथा कांग्रेस में भटकाव का दौर शुरू होता है। राजीव गांधी को भी कांग्रेस के शताब्दी समारोह में यही आह्वान करना पड़ा था कि अब इस पार्टी को भ्रष्ट और दलालों से मुक्त किया जाना चाहिए। दरअसल, देश और कांग्रेस को आज भी एक इंदिरा गांधी की ही तलाश है। इंदिरा गांधी बहुत हद तक भारत की सत्यम् शिवम् सुंदरम् की आवाज थीं और बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का प्रयत्न थीं। भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री का गौरव जहां उन्हें मिला था, वहां उन्हें भारत रत्न का सर्वोच्च सम्मान भी इस कृतज्ञ राष्ट्र ने दिया था। भारत के सपूतों में वह एक महान पिता की महान पुत्री थीं और बचपन में ‘वानर सेना‘ से लेकर जीवन के अंतिम बलिदान तथा राष्ट्र नायक ही थी। व्यक्ति और इतिहास को समय की परिधि से बाहर निकलकर ही विवेचित किया जा सकता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं) (लेखक द्वारा लिखित नवप्रकाशित पुस्तक "अविस्मरणीय" से साभार)