लेखक : वेदव्यास
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं
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इन दिनों में देश का भूत, भविष्य और वर्तमान, गहरे सामाजिक-आर्थिक संकट में फंसा हुआ है। आम जनता का रोना-बिलखना पूरी तरह बेमानी है। प्रधानमंत्री अपनी छवि को और साम्राज्य को बचाने में लगे हैं तो मुख्यमंत्री अपनी कुर्सी को बचाने में उलझे हुए हैं। मीडिया, उद्योग जगत, पुलिस प्रशासन और राजनैतिक दलों का इतना बुरा हाल है कि किसी के पास जीने मरने का कोई हिसाब ही नहीं है। राज-काज सुबह से शाम तक घोषणाओं, उपदेशों और आत्ममुग्धताओं में बीत रहा है।
चारों तरफ सरकारें अपने विज्ञापन छाप-छापकर अपनी असफलताओं को ढक रही हैं। जो एक बार पुलिस, अदालत, वकील और डॉक्टर के चंगुल में फंस गया, वह एडियां घिसते हुए ही मर रहा है। जंगल में जलवायु प्रकोप का ऐसा आतंक हैं कि कहीं ज्वालामुखी फट रहे हैं तो कहीं बादल फट रहे हैं तो कहीं सागर में तूफान उठ रहे हैं तो कहीं नदियों में बाढ़ आ रही है। अब आप सोचिए कि जिस गरीब का घर पहाड़ के नीचे और नदी के किनारे है वो अपनी जान कैसे बचा रहा है।
आश्चर्यजनक सच ये है कि सरकार के पास झूठे आश्वासन देने के अलावा अब कुछ बचा ही नहीं है और आम जनता को डरा-धमकाकर आत्मसमर्पण करने को मजबूर करने के अलावा कोई हथियार ही शेष नहीं है। आप एक ऐसे भंवर में फंसे हैं कि हर लहर आपको लगातार कमजोर कर रही है। रोज जीने-मरने की कहानी इस तरह बदल रही है कि जीना-मरना एक समान हो गया है। क्या आपको याद है कि वर्षों पहले नोटबंदी से आम-आदमी का घर परिवार कैसे बर्बाद हुआ, क्या आपको पता है कि डिजिटल इंडिया-बनाने के चक्कर में आज देश का गरीब बच्चा कितना पिछड़ गया है। अब भारत की 140 करोड़ की जनशक्ति नया भारत बनाने के सरकारी सपनों में इतनी उलझी है कि सरकार ने देश के किसानों को सड़कों पर पड़े रहने को मजबूर कर रखा है।
जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की आवाज आज कहीं विचारणीय प्रश्न ही नहीं है। हम रोज इस एक बात पर सोचते हैं कि आखिर ये खेल कब तक चलेगा और समस्याओं की एक लहर से दूसरी लहर के थपेड़े यहां का लोकतंत्र कब तक खाता रहेगा। विकास और परिवर्तन का ये कौनसी राजनीति है जो गरीब को गरीब और अमीर को अमीर बना रही है, और नागरिक को हिंदू-मुसलमान में बदल रही है? क्या लोकतंत्र में बहुमत की सरकार अपनी जनता को इस तरह अपमानित कर सकती है और क्या संसद को अर्थहीन बना सकती है और संविधान की मजाक उड़ा सकती है।
आज इस देश का सबसे बड़ा दुश्मन इस देश की गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार है जो हमें विभाजित करता है और भगवान की शरण में ले जाता है। 2014 और 2019 के आम चुनाव में इस धर्म-जाति की नाव पर बैठी जनता ने ही अपने साथ इतना बड़ा धोखा किया है कि अब इसे 2024 में मरना, हारना और पछताना ही पड़ेगा, क्योंकि हमने धर्म और जाति के नाम पर वोट दिए हैं।
अब आप पिछले 10 साल में हुई अपनी दुर्गति से ये बात पूरी तरह समझ गए हैं कि धर्म, जाति और सांप्रदायिक राजनीति का असली चेहरा क्या है? और लोकतंत्र में एक गरीब की क्या औकात है। हमारी आजादी और लोकतंत्र आज सांपद्रायिक राजनीति के कैंसर से पीड़ित हैं और जो एक घातक महामारी है। हमारी गरीबी और अशिक्षित समाज में सामाजिक-आर्थिक असमानता से अनवरत हिंसा बढ़ रही है और अराजकता-असंतोष बेलगाम हो रहा है। विपक्ष कमजोर है और विभाजित है और ये ही कारण हैं कि हम सब एक दूसरे की जासूसी कर रहे हैं और सरकार के हाथों का खिलौना है। अब हमारी इस रामायण का एक ही सार है कि जब तक धर्म-जाति और धन-दौलत की राजनीति के रावण का वध नहीं होगा जब तक राम अपनी अयोध्या में नहीं लौटेंगे और रामराज्य नहीं आएगा। तब तक हमारी सीता माता भूमि समाधि के लिए और हनुमान अपनी जल-जंगल और अपनी जमीन को तलाशते रहेंगे। रामायण और महाभारत का इस लोकतंत्र को आज ये ही संदेश है कि खुद ही को कर बुलंद इतना कि हर तदबीर से पहले खुदा बंदे से ये पूछे बता तेरी रजा (इच्छा) क्या है? अतः आंख वालों को ही अब धृतराष्ट्रों को जवाब देना पड़ेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)