लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।
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वैश्विक इतिहास में पहली बार आने वाले कुछ सालों में हम वैश्विक गर्मी की वह भयावहता देखेंगे जिसकी अब तक विश्व के पर्यावरणविद और विज्ञानी केवल कल्पना भर ही कर रहे थे। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार अगले पांच साल में पहली बार वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने के 66 फीसदी आसार हैं। पर्यावरण विज्ञानी जेक हौसफादर की मानें तो हमें 1.5 डिग्री से वैश्विक तापमान 2030 से पहले पहुंचने की उम्मीद नहीं है। लेकिन हरेक साल 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान के करीब पहुंचना भी बहुत बडा़ संकट है। ला नीना से अल नीनो में शिफ्ट होने की स्थिति में जहां पहले बाढ़ आती थी वहां अब सूखा पडे़गा और जहां पहले सूखा पड़ता था वहां अब बाढ़ के आने का अंदेशा है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार वैश्विक तापमान की सीमा छूने का अर्थ है कि विश्व 19वीं शताब्दी के दूसरे हिस्से के मुकाबले अब 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म है।
दुनिया में तापमान में हो रही बेतहाशा बढो़तरी भयावह खतरे का संकेत है। जलवायु परिवर्तन ने इसमें अहम भूमिका निबाही है। दुख इस बात का है कि इस सबके बावजूद दुनिया इसे गंभीरता से नहीं ले रही है। दरअसल तापमान की तुलना का यह वह समय है जब औद्योगीकरण से फासिल फ्यूल का उत्सर्जन शुरू नहीं हुआ था। दुनिया के विज्ञानियों ने अलनीनो के कारण गर्मी के इस तरह के भीषण उफान की उम्मीद जताई है। यह सब कोयला, तेल और गैस के जलाने की सभी सीमाएं पार करने का दुष्परिणाम है। फिर बीते सालों की रिकार्ड तोड़ प्राकृतिक घटनाओं को देखते हुए यह कम आश्चर्य जनक नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने में तत्परता से कारगर कदम उठाने में वैश्विक समुदाय उतना सजग नहीं दिखता जितना होना चाहिए। यही सबसे बडी़ विडम्बना है।
चिंता की बात यह है कि बीते साल मार्च 2023 से इस साल 2024 के बीच के बारह महीनों में वैश्विक तापमान ने 1.5 डिग्री की सीमा को लांघ दिया है। इसको देखते हुए संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटारेस ने चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि आज धरती एक बडे़ संकट के मुहाने पर खडी़ है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन डब्ल्यूएमओ की हालिया रिपोर्ट की मानें तो न केवल बीता वर्ष बल्कि पूरा बीता दशक धरती पर अभी तक का सबसे गरम दशक रहा है। संगठन ने चेतावनी देते हुए कहा है कि यह वर्ष भी गर्मी का रिकार्ड तोड़ देगा। साल के शुरूआती संकेत इसके सबूत हैं। इस बारे में यूरोपीय संघ की कापरनिक्स क्लाइमेट सर्विस का कहना है कि 2023 में तापमान 1.5 डिग्री से ठीक नीचे 1.48 डिग्री पर था लेकिन इस वर्ष की रिकार्ड गर्मी की शुरूआत ने 12 माह के औसत तापमान को उस स्तर से आगे बढा़ कर 1.5 डिग्री को लांघ दिया है।
इस दिशा में यूरोपीय पर्यावरणीय एजेंसी ईईए की मानें तो यूरोप तेजी से बढ़ते तापमान के कारण जलवायु संबंधित खतरों से जूझने के लिए तैयार नहीं है। उसके मुताबिक जंगलों में लगने वाली आग की चपेट में वहां के घर आ रहे हैं, मौसमी आपदाओं का असर वहां के लोगों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित कर रहा है। इसको लेकर तैयार हालिया रिपोर्ट में ईईए ने कहा है कि इस तरह के 36 प्रकार के जलवायु खतरों से निपटने के लिए और अधिक सक्रिय होने की जरूरत है। इस बाबत ईईए के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर लीना यी मोनानेन कहती हैं कि हमारा नया विश्लेषण कहता है कि यूरोप की जलवायु खतरे में है। यह खतरा हमारी तैयारियों की तुलना में तेज गति से बढ़ रहा है।
उनके अनुसार फसल और लोगों की सुरक्षा के लिए तात्कालिक कार्रवाई की जरूरत है। यदि निर्णायक कार्रवाई अभी नहीं हुयी तो सदी के अंत तक अधिकतर जलवायु खतरे विनाशकारी होंगे। यहां सबसे बडी़ चिंता की बात यह है कि यदि तापमान वृद्धि की दर पर अंकुश नहीं लगा तो सदी के अंत तक गर्मी से 1.5 करोड़ लोग मौत के मुहाने तक पहुंच जायेंगे। इसका अहम कारण जीवाश्म ईंधन के उत्सर्जन में सदी के अंत तक सर्वाधिक गर्मी होना है। इसका खुलासा अमेरिका की पर्यावरण संस्था ग्लोबल विटनेस और कोलंबिया यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने करते हुए कहा है कि दुनिया की प्रमुख जीवाश्म ईंधन कंपनियों द्वारा तेल और गैस का अत्याधिक मात्रा में उत्सर्जन वह अहम कारण है जिसके चलते उत्सर्जन स्तर यदि 2050 तक यही रहा तो 2100 तक गर्मी अपने घातक स्तर तक पहुंच जायेगी जिसका नतीजा लाखों लोगों की मौत के रूप में होगा।
इस बारे में यदि कोलंबिया यूनीवर्सिटी के माडल पर गौर करें तो पता चलता है कि प्रत्येक मिलियन टन कार्बन में बढो़तरी से दुनिया भर में 226 अतिरिक्त हीटवेव की घटनाओं में बढो़तरी होगी। यहां इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि जीवाश्म ईंधन से कार्बन ऊत्सर्जन के मामले में वर्तमान में चीन शीर्ष स्थान पर है। वह कुल उत्सर्जन में 31 फीसदी के लिए जिम्मेदार है। इसके बाद अमेरिका 26 फीसदी और रूस 20 फीसदी के लिए जिम्मेदार है। यूरोपीय देशों में स्थापित तेल कंपनियों में उत्पादित जीवाश्म ईंधन में 2050 तक वायु मंडल में 51 अरब टन कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन बढ़ जायेगा। वहीं शुद्ध शून्य कार्बन लक्ष्य की प्राप्ति के बाद भी 55 लाख लोग अनचाहे मौत के मुंह में चले जायेंगे।
बीते वर्षों के अध्ययन के बाद शोधकर्ताओं ने कहा है कि पिछले कुछ वर्षों में हीटवेव ने तकरीब हर महाद्वीप को प्रभावित किया है। इससे जंगलों में आग की घटनाओं में बढो़तरी के चलते हजारों मौत के मुंह में चले गये। अकेले 2022 मेंँ 60 हजार से ज्यादा लोगों की मौत अभी तक गर्मी के चलते हुयीं। अब यह साबित हो चुका है और क्लाइमेट चेंज जर्नल में प्रकाशित अध्ययन की मानें तो यदि तापमान में तीन डिग्री की बढो़तरी होती है तो जहां हिमालय में सूखा पड़ने की संभावना प्रबल है, सबसे ज्यादा नुकसान इससे कृषि क्षेत्र को उठाना पडे़गा। इससे सबसे अधिक भारत और ब्राजील का 50 फीसदी से अधिक कृषि का इलाका प्रभावित होगा। इन देशों में एक से तीस वर्ष तक सूखे का खतरा बना रह सकता है।
क्लाईमेट ट्रेंड्स की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव के चलते हिमालय पर कम सर्दी का सामना करना पडे़गा। इसका कारण ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम का पैटर्न बदलना रहेगा। अत्याधिक तापमान का असर समय पूर्व जन्म दर में बढो़तरी के रूप में होगा। यह खतरा 60 फीसदी तक बढ़ जायेगा। दरअसल यह खतरा बच्चों में श्वसन सम्बंधी बीमारियां सहित कई हानिकारक स्वास्थ्य प्रभावों के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार होगा। गर्मी के बढ़ते प्रभाव से खाद्यान्न आपूर्ति पर संकट बढ़ जायेगा। ब्लूमवर्ग की रिपोर्ट की मानें तो बढ़ते तापमान से अमेरिका से चीन तक खेत तबाह हो चुके हैं। इससे फसलों की कटाई, फलों का उत्पादन और डेयरी उत्पादन सभी दबाव में हैं। बाढ़, सूखा और तूफान की बढ़ती प्रवृत्ति ने इसमें और इजाफा किया है।
वाशिंगटन में सेंटर फार स्ट्रेटेजिक एण्ड इंटरनेशनल स्टडीज के खाद्य विशेषज्ञ कैटलिन वैल्श कहते हैं कि इन मौसमी घटनाओं की वजह से खाद्य सुरक्षा और कीमतों के बारे में चिंताएं लगातार बढ़ रही हैं।इसके चलते उत्तरी अमेरिका, योरोप और एशिया के बडे़ हिस्से के किसान मुश्किल में हैं। दक्षिणी योरोप में गर्मी के कारण गायें दूध कम दे रही हैं। इटली में अंगूर, खरबूजा,सब्जियां तक और गेंहू उत्पादन तक प्रभावित हुआ है। वहीं मछलियों का आवास भी प्रभावित हुए नहीं रहेगा। क्योंकि जलवायु परिवर्तन से समुद्र का बढ़ता तापमान उन्हें अपना इलाका छोड़ने पर मजबूर कर रहा है। इससे उनकी संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। कारण नये परिवेश में तालमेल बिठा पाना उनके लिए कठिन हो रहा है। इससे मछलियां ही नहीं, बहुतेरी प्रजातियों के खत्म होने का अंदेशा बढ़ता जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र की जलवायु समिति के अनुसार यदि धरती के तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकना है तो 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को 43 फीसदी तक घटाना होगा। यह समय की मांग है क्योंकि धरती के गर्म होने की रफ्तार अनुमान से कहीं ज्यादा है। आज धरती 1.7 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो चुकी है जो संयुक्त राष्ट्र के मानक तापमान के अनुमान से आधा डिग्री अधिक है। दरअसल समस्या की असली जड़ जीवाश्म ईंधन है जिससे हमें दूर जाने की बेहद जरूरत है।
यहां इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता कि दुनिया में चल रहे भू-राजनैतिक संघर्षों के बीच जलवायु परिवर्तन पर ध्यान केन्द्रित रखना बेहद जरूरी और महत्वपूर्ण हो गया है और इसमें ग्लोबल साउथ की भूमिका काफी अहम है। इसमें दो राय नहीं है। फिर जलवायु संरक्षण की कार्रवाई में जी- 20, सीओपी-29 और सीओपी 30 का आपस में कुछ न कुछ जुडा़व जरूर है जिसे दरगुजर नहीं किया जा सकता। इसमें ग्लोबल साउथ की भूमिका कहां तक और कितनी सफल होगी, यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इसमें यह भी अहम है कि ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए हमें किस विज्ञान को बनाये रखने की जरूरत है, इस पर विचार करना सबसे महत्वपूर्ण होगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)