धधकती धरती विनाश को न्योता : रामभरोस मीणा

लेखक : राम भरोस मीणा 

पर्यावरणविद् व समाज विज्ञानी है

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जनसंख्या वृद्धि के साथ बढ़ते शहरीकरण, औद्योगीकरण और मानव की विलासिता ने अपने भविष्य को कचरे के ढेरों जैसा बना कर रख दिया है। वह स्वयं बगैर दूसरों की चिंता किए आज अपने को प्रकृति के सभी संसाधनों का उपभोग करने में सक्षम मानते हुए भक्षक बन बैठा है। लेकिन उसे स्वयं यह मालूम नहीं है कि आखिरी अपने किए का प्रतिफल मुझे स्वयं को ही भुगतना पड़ेगा। परिवार, समाज, राष्ट्र भी उसे उस दारुण पीड़ा को भुगतने से रोक नहीं सकता। वह अपने इसी लोभ की ख़ातिर प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन करने लगा और फिर कचरा उत्पादन में बढ़ चढ़ कर कीर्तिमान बनाने लग गया। यही नही उस कूडे़-कचरे को जलाने में अपनी शान समझने लगा। वह उसके निस्तारण के नाम पर बेपरवाह हो गया और यह समझने लगा कि यह दायित्व उसका नहीं,  सरकार का है। यहीं वह सबसे बड़ी गलती कर बैठा। क्योंकि उसे जो जिम्मेदारी मिली थी उसे वह भी भूल गया। और तो और उसने उसके समाधान के लिए तो विचार  करना भी मुनासिब नहीं समझा। परिणाम स्वरूप पिछले कुछ दिनों से दिल्ली में गाजीपुर लैंडफिल कचरे के पहाड़ पर लगीं आग से लाखों लोगों का जीवन ख़तरे में पड़ गया। दूसरा गुरू ग्राम में बंधबाडी लैंडफिल साइट पर भी पिछले 24 दिनों में 13 बार लगी जिसे बुझाने में दमकल सहित अग्निशमन दल के कर्मियों के पसीने छूट गये। कचरे की धधकती आग से समूचे इलाके के लोग अपनी जान बचाने की जुगत में लगे रहे और आग बुझने पर ही उनकी सांस में सांस आयी। 

अब हालत यह है कि आज प्रत्येक शहर, नगर, महानगरों में पनपते मानव निर्मित अपशिष्टों के विशाल पहाड़ ख़तरों को न्योता दे रहे हैं। छोटे -छोटे निकायों में सुबह-सुबह कचरे के ढेर को कचरे को खुले में छोड़ दिया जाता है और सायंकाल उसे आग के हवाले कर दिया जाता है। गांवों-कस्बों में अभी इस तरफ़ सरकार या समाज का कोई ध्यान नहीं है। क्योंकि कचरे को हर गली मुहल्ले में आग लगा दी जाती है। कहीं भी कचरे के निस्तारण के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर कचरे के ढेरों परआग क्यों लगती है। क्योंकि यह आग तो इन कचरे के पहाडों और उसके आसपास रहने बसने वालों की नियति बन चुकी है। कहीं यह लगाईं तो नहीं जाती, यह सवाल भी लोगों के जेहन में तैर रहा है। यह भी कि आखिर कचरे के ढेर कहें या पहाड़ क्यों बने। उसकी रिसाइकलिंग क्यों नहीं की गयी। बहुत सारे विचार आम आदमी के दिमाग में धधकती आग की लपटों के साथ जलती धरती को देख मन में उठ रहे हैं। लेकिन उनके उत्तर देने वाला कोई नहीं है। 

दरअसल  कचरा मे केवल कचरा ही नहीं होता। उसमें जीवाश्म, खाद्य पदार्थ, रसायन, प्लास्टिक, घरेलू व कुटीर उद्योगों, औधोगिक इकाईयों के अपशिष्ट जो जानलेवा होने के साथ धरती के ताप को बढ़ाने में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं शामिल होते हैं। यह आज मानव समाज के सामने आफ़त बन गया है। दुखदायी बात यह है कि कचरे का मात्र 70 प्रतिशत ही इकट्ठा हो पाता है। वहीं एकत्रित कचरे का 10-15 प्रतिशत रिसाइकिल कर दिया जाता है लेकिन शेष 85 प्रतिशत कचरा ढेर में एकत्रित होता है जो सबसे बड़ी आपदा बनता जा रहा है। इससे गांव शहर नगर महानगरों में हालात बेहद ख़राब होते जा रहे हैं। गांवों में प्रति व्यक्ति 0.280 किलोग्राम कचरा प्रति व्यक्ति अपशिष्ट के रूप में एकत्रित होता है। शहरों में यह मात्रा 0.620 से 0.750 किलोग्राम होती है जबकि अमेरिका जैसे देशों में यही प्रति व्यक्ति 02  किलोग्राम से अधिक होती है। हकीकत यह है कि देश में उत्पादित इस कचरे का 85 प्रतिशत रिसाइकलिंग कर पुनः काम में लिया जा सकता है या हमेशा के लिए खत्म किया जा सकता है। घरेलू कचरा जो कुल एकत्रित कचरे का 65 प्रतिशत होता है, एकत्रित कर डम्पिंग यार्डो तक पहुंचाया जाता रहा है। इससे निकायों ,ग्राम पंचायतों को आय भी हो सकती है। इस बारे में सोचना होगा, प्लानिंग करनी होगी, कचरे के प्रति लोगों को जागरूक करना होगा, प्रत्येक परिवार को तीन तरह के डस्टबिन देने होंगे, गीला, सूखा, ठोस। सभी को अलग अलग पात्रों में एकत्रित करने की आदतें बनानी होंगी और इन्हें लेकर सख्ती से निपटना होगा। उससे कचरे को अलग करने में बाधा उत्पन्न नहीं होगी। गीले कचरे से वर्मिं कम्पोस्ट खाद बनाईं जा सकती है। ठोस व प्लास्टिक कचरे कों रिसाइकलिंग कर पुनः बाजार में भेजा जा सकता है। कचरे के इस प्रकार प्रबंधन से निकायों को एक तरफ़ आय होगी, वहीं दूसरी तरफ़ आसानी से उसका निस्तारण भी किया जा सकेगा। कचरा प्रबंधन में किए इस बदलाव से ना धरती धधकेगी,ना अम्बर रूठेगा, ना दुर्गंध फैलेगी और ना ही बीमारियों को बढ़ावा मिलेगा। इसलिए स्थानीय प्रशासन प्रशासनिक अधिकारी एवं जन समुदाय को आगे आ कर कचरे की रिसाइकलिंग प्रणाली को अपनाना होगा। तभी इस  विनाश से बचा जा सकेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार हैं।)