लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व लेखक हैं
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नए भारत के इतिहास में कुछ महापुरुष अब कुछ इस तरह राजनीति की चक्की में पीसे जा रहे हैं ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी नहीं टूटे। कोई भी ताकत इनके योगदान को किसी एक समय की सीमा रेखा में नहीं बांध पा रही है। यही कारण है कि लोकतंत्र की संपूर्ण अवधारणा आज भी महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर के बिना हमें अधूरी लगती है। लेकिन विडम्बना यह है कि पिछले 77 साल की धर्म और जाति की राजनीति ने इन दोनों भारत निर्माताओं को महज एक चुनावी दंगल की आवश्यकता में बदल दिया है तथा इनका जीवन संदेश लगातार देश में विकास और परिवर्तन के प्रत्येक सरकारी अभियान का अंबेडकर हमारे संविधान की अंतरात्मा के प्रतिनिधि है। स्वतंत्र भारत के नव निर्माण का यह एक ऐसा यर्थाथ है कि जो धर्म और जाति की संकीर्ण सत्तावादी मानसिकता को निरंतर चुनौती देता है। इस वर्ष हमने 14 अप्रेल को डॉ. अंबेडकर का 133वां जन्म शताब्दी वर्ष मनाया और देखा कि इनकी विरासत पर एकाधिकार की प्रतियोगता में देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियां (भाजपा-कांग्रेस) ने बढ़-चढ़कर इन्हें अपना भाग्य विधाता घोषित करने में लगी रही।
मेरे जैसा एक भारतः श्रेष्ठ भारत का नागरिक आज इसी बात को फिर समझना चाहता है कि क्या इस तरह भारत का लोकतंत्र धर्म और जाति की सदियों पुरानी राजनीति से मुक्त हो सकेगा और क्या हम 140 करोड़ देशवासियों को सामाजिक, आर्थिक समानता और समरसता से जोड़ पाएंगे? क्योंकि जहां महात्मा गांधी सत्य और अहिंसा के महानायक होकर धर्म के प्रति हिंसा के पहले शहीद हैं। इन दोनों ने आजाद भारत में सबसे अधिक प्रेम और नफरत की राजनीति का दर्द सहा है। आज अंबेडकर को लेकर जो राजनीतिक उत्साह और भक्ति भाव का लोक संगीत चारों तरफ गूंज रहा है उस भ्रम का यथार्थ तो यह है कि भारत के संवैधानिक गणतंत्र में धर्म और जातीय भेदभाव तथा गैर बराबरी की हिंसा और प्रति हिंसा लगातार बढ़ रही है। एक मंदिर, एक कुआं और एक श्मशान का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आज देश के 6 लाख गांवों में कहीं नहीं है और चारों तरफ धर्म और जाति की सेनाएं आज अंबेडकर के संविधान और सपनों पर ही सबसे अधिक साम, दंड, भेद की राजनीति कर रही है।
डॉ. अंबेडकर के सपनों को आज भी कहीं परंपरा और विरासत के नाम पर तो कहीं लिंग और वर्ण के नाम पर तो कहीं सनातन धर्म और जातीय साम्राज्यवाद के नाम पर अपमानित किया जा रहा है। हमें खुशी है कि आज अंबेडकर और महात्मा गांधी को लेकर देश में जो राजनीतिक चुनावी मुकाबला तेज हो रहा है उससे दलित, वंचित, शोषित और पीड़ित अनुसूचित जाति, जनजाति, अल्पसंख्यक और महिलाओं के सकल मनोरथ पूरे होंगे तथा संविधान के उद्देश्यों को पूरा करने में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को, सामाजिक, आर्थिक गैर बराबरी मिटाने के लिए सक्रिय और जवाबदेह बनना पड़ेगा। क्योंकि आज हम देश में जो उखाड़-पछाड़ देख रहे हैं उसके पीछे मूल में कहीं अंबेडकर का संविधान और लोकतंत्र का जनादेश ही काम कर रहा है।
फिर भीमराव अंबेडकर की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक गैर बराबरी मिटाने की संविधान में प्रस्तावित नागरिक अधिकारों की अवधारणा का प्रतिपादन भी यही तो कहता है कि सबका साथ सबका विकास भारत के लोकतंत्र की मजबूरी है क्योंकि अंबेडकर ने जाति, धर्म, रंगभेद, नस्लभेद और सभी प्रकार के भेद-विभेद की तानाशाही और राष्ट्र तथा राज्य के एकाधिकारवाद को, एक व्यक्ति, एक वोट के लोक अधिकार से असंभव बना दिया है। इसीलिए आज राजनीति के सभी नायक-खलनायक अंबेडकर की परिक्रमा लगा रहे हैं और कभी महात्मा गांधी, तो कभी भगत सिंह, तो कभी सरदार पटेल के जीवन दर्शन के भजन-कीर्तन करवा रहे हैं। यहीं से उस सत्य को आप जानिए कि जब स्वामी विवेकानंद ने 131 साल पहले कहा था कि भारत में 21वीं शताब्दी शूद्रों की होगी, क्योंकि तब धर्म और जाति का राष्ट्रवाद गैर बराबरी की महाभारत में मारा जाएगा तथा अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला की भाषा अंबेडकर का भारत बोलने लगा।
डॉ. भीमराव अंबेडकर की सबसे बड़ी चुनौती आज भी यही है कि भारत गैर बराबरी से पीड़ित समाज, शिक्षित बनकर तथा संगठित होकर अपने संवैधानिक, मानवीय और प्राकृतिक अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ रहा है तथा कहीं वर्ण भेद तो कहीं वर्गभेद के चक्रव्यूह में निहत्थे अभिमन्यु की तरह मारा जा रहा है तो कहीं गुरु दक्षिणा में अंगूठा काटकर एकलव्य की तरह अपमानित हो रहा है। अंबेडकर इसीलिए कहते थे कि वर्ण व्यवस्था सभी असमानताओं की जड़ है। उनका यही कहना था कि समानता का अर्थ है कि सभी को समान अवसर मिले और प्रतिभा को प्रोत्साहन दिया जाए। उनका संदेश था कि हिंदू समाज का गठन केवल समानता और जाति विहीनता के सिद्धांतों पर होना चाहिए। 1927 में पहली बार इसीलिए मनुस्मृति को जलाया गया था और इसीलिए अंबेडकर ने अपने अंतिम समय में हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर निर्वाण प्राप्त किया था।
डॉ. अंबेडकर को भारतीय समय और समाज का इसीलिए आदि विद्रोही और न्याय पुरुष कहा जाता है कि उन्होंने हम भारत के लोगों को एकता, समता, बंधुत्व और आजादी से उत्प्रेरित संविधान दिया और लोकतंत्र को भारत का अतुल्य भविष्य सौंपा। अतः अब हम सबका यह साझा संघर्ष होना चाहिए कि भारत की 50 करोड़ युवा पीढ़ी, डिजिटल इंडिया बनाने के पहले देश को सामाजिक, आर्थिक न्याय की पुण्य भूमि बना दें। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है।)