पुस्तक समीक्षा : नदी , धरती और समंदर
समीक्षक : डॉ.प्रभात कुमार सिंघल

लेखक एवं पत्रकार ,कोटा 

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पुस्तक : नदी , धरती और समंदर

लेखक : ऋतु जोशी

प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर

कवर : हार्डबाउंड

मूल्य : 300₹

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कोई नहीं जान पाता

वीराने में खड़ी

एक खूबसूरत इमारत

कब तब्दील हो गई खंडहर में

बहुत खामोशी से घटता है

उसका दरकना समय के साथ - साथ

उसके भरभरा कर गिरने के पहले

कोई नहीं सुन पाता

इस अनहोनी की आहट

ठीक इसी तरह एक दिन

अचानक भरभरा कर

बिखर जाती हैं स्त्रियां

कोई नहीं सुन पाता 

इस अनहोनी की आहटकोटा की खामोश रचनाकार  ऋतु जोशी की यह भावपूर्ण रचना दो पक्षों को लेकर लिखा गया मार्मिक सृजन है। इमारत और स्त्रियों के दरकने - बिखरने की आहट भला कौन सुन पाता है। दोनों का बिखरना इतना खामोश होता है कि कब दरक गई और बिखर गई पता ही नहीं चलता। इमारत और स्त्री की एक व्यथा इनके काव्य सृजन की अद्भुत विशेषता कह सकते हैं। मन की खुशी के लिए स्वान्तसुखाय लिखती है, न किसी मंच पर न किसी गोष्ठी में। प्रचार से कोसों दूर अपने रचनाधर्म में लगी रहती हैं।  

इतना खाली से क्यूं हूं मैं ?

तू बिन बोले   

बिन बताए

भीतर से कहीं चला गया क्या ?

चार पंक्तियों की छोटी  सी रचना " खालीपन " भावों में कितनी गहराई समेटे हैं कि एक प्रेयसी  अपने खालीपन का सवाल स्वयं से ही कर रही है और फिर जवाब भी स्वयं ही दे रही दिखाई देती है। निसंदेह प्रेम में खालीपन के अहसास का यह सवाल - जवाब अपने आप में लाज़वाब है, जो सृजन का ही विशिष्ट गुण है।

एक अन्य रचना " बैराग " में कुछ और दहना है, कुछ और बहना है को प्रेम से जोड़ते हुए लिखती हैं ..........

तेरे प्रेम के तीरे

अपनी नाव लगाने से पहले

जहां जाने क्यूं 

ये लगता है

बैराग खड़ा मिलेगा।

प्रेम में दर्द के अहसास को भुलाने का कैसे जतन किया, इस पर कितना प्रभावी लेखन किया है इन पंक्तियों में.........

जब से उतरी है खालिश 

तेरी मेरी चाहत में

एक बात तो जरूर अच्छी हो गई/

मेरी कलम दर्द की स्याही से लिखने लगी

मेरी नज्में कुछ और मशहूर हो गई।

प्रेम के साथ आस्था भी गहरे से जुड़ी है। देखिए कितने सुंदर भावों में प्रेम ,आस्था और अध्यात्म के संयोग का कव्यमय चित्रण किया है इन पंक्तियों में........

तुम सूरज की तरह जलते हो

मुझमें प्राण और ऊर्जा फूंकने के लिए

मैं अकिंचन

मंदिर के कोने में रखे

आस्था के दीपक सी जलती हूं

तुम्हें पूजने के लिए।

ऐसी अर्थपूर्ण और प्रभावपूर्ण 135 से अधिक काव्य संग्रह की इनकी दूसरी कृति है " नदी,धरती और समंदर "। कृति के शीर्षक से प्रतीत होता है कि विषय वस्तु नदी, पृथ्वी और समुंदर होगा । जब की ये प्रेम का ही प्रतीक है, नदी का प्रियतम समुंदर है जो धरा से अनेक बाधाओं को पार कर अंततः अपने प्रियतम समुंदर से जा मिलती है। प्रेमी का अपने प्रियतम से मिलन ही तो प्रेम की पूर्णता है। प्रेम को नदी, पृथ्वी और समुंदर का प्रतीक बना कर ही शायद रचनाकार ने यह शीर्षक दिया होगा ऐसा मैं समझता हूं। हो सकता है रचनाकार का कोई अन्य विचार रहा हो।

यह काव्य संग्रह की यह दूसरी कृति समर्पित है उस परमात्मा को जिसकी मुठ्ठी में सितारे है। किताब शुरू होती है प्रेम की कुछ परिभाषाओं से। पहली कविता " मैं और तुम" से शुरू कर  सफर का सुनामी, तुम्हारा प्यार, वक्त नहीं, बाजारू औरत, काठ का पुतला, अधूरे पल, जब कह नहीं पाता आदमी, इश्क है या रिश्तेदारी, उपहार, तब और अब, आवेग, तेरे कर्ज, पुराना पड़ चुका प्रेम, काला टीका, तरीका, तेरी आंखों के सिवा, अनकहा सा, अलहदा, बालों की लट, खत्म होने लगता है आदमी, नदी की जिद, दर्द, जन्म - जमांतर, बेवजह, किसी के प्यार में थी जैसी कविताओं से होकर सफर के अंतिम पायदान पर  "बस करो" से विश्राम लेता है। कविताओं के मजमून भाव जगत में विचरण कराने को पर्याप्त हैं। रचनाकार अपनी बात में लिखती है " किशोरवय हो या नारी , प्रेम के उन्मुक्त गगन में विचरण करती है। अपनी बात को कहने का इन्हें सबसे अच्छा और प्रभावी माध्यम लगा कविता। दुख हो या सुख कविता में अभिव्यक्त करने से जो आत्म सुख और शांति मिलती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। हो सकता है यह मेरे अनुभवों की सीमा हो लेकिन मैं तो कविता के माध्यम से सुखों को टटोलती हूं।"

यूं तो कभी  प्रेम पत्र लिखा नहीं तुझे

पर अक्सर ये सोचती हूं

जो लिखती भी तो क्या लिखती

क्या प्रेम कभी शब्दों में पूरी तरह से

अभिव्यक्त हो सहता है भला

बातों का अव्यक्त रह जाना तो

बहुत बड़ी कमजोरी रही है प्रेम की