लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।
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सरकार द्वारा घोषित वृक्षारोपण अभियान प्रशंसनीय है लेकिन यह तभी संभव है जब रोपित पौधों का उचित रख-रखाव और संरक्षण हो। इस हेतु इस अभियान में लगी एजेंसियों की जिम्मेदारी काफी महत्वपूर्ण है। यह अभियान जनांदोलन बनाया जाये जिसके लिए जनभागीदारी की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक है।
वृक्षारोपण के लक्ष्य का निर्धारण सराहनीय ही नहीं, स्तुतियोग्य प्रयास है। लेकिन रोपित पौधों की रक्षा बेहद जरूरी है। क्योंकि अक्सर पौधारोपण के बाद उनकी उचित देखभाल नहीं होती और वे कुछ ही समय बाद मर जाते हैं। इसलिए इस काम में लगी एजेंसियां रोपित पौधों के रख-रखाव की जिम्मेदारी समाज के उन लोगों को सौंपने जो इस अभियान में सहभागिता कर रहे हैं। तभी अभियान की सफलता संभव है।
असलियत में दुनिया में जिस तेजी से पेड़ों की तादाद कम होती जा रही है, हकीकत में उससे पर्यावरण तो प्रभावित हो ही रहा है, पारिस्थितिकी, जैव विविधता, कृषि और मानवीय जीवन ही नहीं, भूमि की दीर्घकालिक स्थिरता पर भी भीषण खतरा पैदा हो गया है। जैव विविधता का संकट पर्यावरण ही नहीं, हमारी संस्कृति और भाषा का संकट भी बढ़ा रहा है।
पेड़ों का होना हमारे जीवन के लिए महत्वपूर्ण ही नहीं, बेहद जरूरी है। यह न केवल हमें गर्मी से राहत प्रदान करते हैं बल्कि जैव विविधता को बनाये रखने, कृषि की स्थिरता सुदृढ़ करने, सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करने और जलवायु को स्थिरता प्रदान करने में भी अहम योगदान देते हैं। फिर भी हम पेड़ों के दुश्मन क्यों बने हुए हैं, यह समझ से परे है। बीते कई बरसों से दुनिया के वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और वनस्पति व जीव विज्ञानी चेता रहे हैं कि अब हमारे पास पुरानी परिस्थिति को वापस लाने के लिए समय बहुत ही कम बचा है। यह भी कि हम जहां पहुंच चुके हैं वहां से वापस आना आसान काम नहीं है। कारण वहां से हमारी वापसी की उम्मीद केवल और केवल पांच फीसदी से भी कम ही बची है।
जैव विविधता न सिर्फ हमारे प्राकृतिक वातावरण के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि ऐसे वातावरण में रहने वाले लोगों के मानसिक कल्याण के लिए भी जरूरी है। इस पर गंभीरता से विचार किये जाने की जरूरत है कि जैव विविधता धरती और मानव स्वास्थ्य के लिए सह-लाभ के तत्व हैं और इसे महत्वपूर्ण बुनियादी मान बीते कुछ सालों से देश में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण अभियान चलाया जा रहा है।
गौरतलब यह है कि हर साल जितना जंगल खत्म हो रहा है, वह एक लाख तीन हजार वर्ग किलोमीटर में फैले देश जर्मनी, नार्डिक देश आइसलैंड, डेनमार्क, स्वीडन और फिनलैंड जैसे देशों के क्षेत्रफल के बराबर है। लेकिन सबसे बडे़ दुख की बात यह है कि इसके अनुपात में नये जंगल लगाने की गति बहुत धीमी है। समूची दुनिया में हर मिनट औसतन दस फुटबाल मैदान के बराबर यानी 17.60 एकड़ जंगल खत्म किये जा रहे हैं। एक बार यदि हम खतरे के दायरे में पहुंच गये तो हमारे पास करने को कुछ नहीं रहेगा। आज जंगल बचाने की लाख कोशिशों के बावजूद दुनिया में वनों की कटाई में और तेजी आई है और उसकी दर चार फीसदी से भी बढ़ गयी है। हम यह क्यों नहीं समझते कि यदि अब भी हम नहीं चेते तो हमारा यह मौन हमें कहां ले जायेगा और क्या मानव सभ्यता बची रह पायेगी ?
इस बारे में 2004 के लिए नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाली केन्या की पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधन मंत्री रहीं बंगारी मथाई का उस समय दिया बयान महत्वपूर्ण है कि जल, जंगल और जमीन के मुद्दे आपस में गहरे तक जुड़े हुए हैं। प्राकृतिक संसाधनों का उचित प्रबंधन आज की सबसे बड़ी जरूरत है। ऐसे सामुदायिक प्रयासों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है जिससे धरती को बचाया जा सके। खासकर ऐसे समय में जब हम पेड़ों और पानी के साथ साथ जैव विविधता की वजह से पारिस्थितिकी के संकट से जूझ रहे हैं। संसाधनों के उचित प्रबंधन के बगैर शांति कायम नहीं हो सकती। फिर हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं, यदि उसे नहीं बदला तो पुरानी झड़पें बढे़ंगीं और संसाधनों को लेकर नयी लडा़इयां सामने खड़ी होंगी। मैं इस पुरस्कार का जश्न महात्मा गांधी के इन शब्दों के साथ मनाना चाहती हूं कि-- मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। एक पेड़ जरूर लगायें। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)