खतरनाक है जलवायु परिवर्तन और मानसून ब्रेक की घटनाएं : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

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अब यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन समूची दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। सबसे ज्यादा चिंतित करने वाली बात यह है कि इससे जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं  रहा है। इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि जलवायु परिवर्तन से जहां समुद्र का जलस्तर बढ़ने से कई द्वीपों और दुनिया के तटीय महानगरों के डूबने का खतरा पैदा हो गया है, वहीं सूखे, जमी मिट्टी के ढीली होने के चलते तेजी से बिखरने, मिट्टी में कार्बन सोखने की क्षमता कम होते जाने, खारापन बढ़ने, बेमौसम बारिश के कारण बाढ़ आने, चक्रवात आने, कम समय में ज्यादा बारिश आने, शुष्क भूमि पर निर्भर लोगों के लिए भोजन का संकट बढ़ने, दुनिया के पचास फीसदी चारागाह नष्ट होने, फसल की पैदावार दर में तीन से बारह फीसदी के बीच गिरावट होने, लोगों के मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ने, उनमें कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं होने, 30 फीसदी प्रजातियों के अस्तित्व  का संकट मंडराने, सुपर बग का खतरा बढ़ने, अंटार्कटिका में उल्का पिंडों के गायब होने, बच्चों के उच्च जोखिम की स्थिति में पहुंचने और जीवन का अधिकार प्रभावित होने के साथ-साथ अब मानसून ब्रेक की घटनाओं का खतरा भी पैदा हो गया है। 

तात्पर्य यह कि जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही पूरी दुनिया इसकी भारी आर्थिक कीमत चुका रही है। इस बारे में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस का कहना एकदम सही है कि जलवायु आपदा टालने में दुनिया पिछड़ रही है। समय की मांग है कि समूचा विश्व समुदाय सरकारों पर दबाव बनाये कि वह समझ सकें कि इस दिशा में हम पिछड़ रहे हैं और हमें तेजी से आगे बढ़ने की ज़रूरत है। यदि वैश्विक प्रयास तापमान को डेढ़ डिग्री तक सीमित करने में कामयाब रहे तो भी 96.1 करोड़ लोगों के लिए यह खतरा बरकरार रहेगा। दुनिया में जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा दुष्परिणाम जनसमूहों के पलायन के रूप में सामने आया है। यह प्रवृति गरीब देशों से विकसित देशों की ओर तेजी से बढ़ती देखी जा रही है जो दिन-ब-दिन और भयावह होती जा रही है। यह स्थिति समाज में भारी असमानता को बढ़ावा देगी जिसके परिणाम काफी खतरनाक होंगे। 

आजकल मानसून ब्रेक के बारे में चिंताएं ज्यादा हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन ने इसे बढ़ाने में खासा योगदान दिया है। इसे यदि मानसून में रुकावट कहें तो कुछ गलत नहीं होगा। यह कम दबाव के क्षेत्र में मानसून गर्त के खिसकने के कारण होता है। होता यह है कि जब यह गर्त उत्तर की ओर खिसककर हिमालय की तलहटी से जाकर संरेखित होती है, तब बारिश रुक जाती है। इसे यूं कहें कि मानसून के मौसम में जब झमाझम बारिश हो रही हो और वह अचानक बंद हो जाये, तो उसी को मानसून ब्रेक कहते हैं। ऐसे में प्रभावित क्षेत्र में तीव्र गर्मी वाली स्थिति पैदा हो जाती है। फिर जिस इलाके में बारिश के चलते तापमान काफी कम हो जाता है,वहां वह यकायक बढ़ जाता है। नतीजतन वहां अत्याधिक गर्मी पड़ती है और उसके बाद तेज वर्षा शुरू हो जाती है। 

यह अक्सर अगस्त के महीने में ही होता है। इसका समय लगभग तीन से चार-पांच दिन तक का रहता है। इसके बाद से फिर बारिश शुरू हो जाती है। 1976 के बाद से सबसे अधिक लंबा मानसून ब्रेक पिछले साल 2023 के अगस्त महीने में देखने को मिला। सच तो यह है कि मानसून ब्रेक के बाद उमस में बहुत तेजी बढ़ती है। उस दशा में लोग बेचैनी महसूस करते हैं। उमस भरे माहौल में वह त्राहि-त्राहि तक करते नजर आते हैं। नतीजतन उस समय तापमान 26-27 डिग्री सेल्सियस से लेकर 32-33 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। तापमान में आयी यह बढ़ोतरी ही अनेक स्वास्थ्य संबंधी विकृतियों-बीमारियों का सबब बनती है। दरअसल यह मौसमी बदलाव स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक है ही, कृषि-किसान भी इससे काफी हद तक प्रभावित होता है। फसलों का उत्पादन भी प्रभावित हुए नहीं रहता नतीजतन बाजार में कीमतें आसमान छूने लग जाती हैं। 

होता यह है कि इस दौरान ट्रफ रेखाएं हिमालय की तलहटी में चली जाती हैं। सामान्यतः ये ट्रफ रेखाएं हमारे मरु प्रदेश राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले से होकर कोलकाता तक चलती हैं। सच तो यह है कि मानसून में ठहराव कहें या ब्रेक कहें, अस्थिरता का कारण बनता है जो सूखे की लम्बी अवधि और छोटे वर्षाकाल का सबब बनता है। मानसून प्रणालियों में बदलाव कम दबाव और गर्त की स्थिति दक्षिण की ओर चले जाने और अत्याधिक बाढ़ जैसी घटनाओं के जन्म का कारण बनती हैं। इसके परिणामस्वरूप गर्मियों में यह उत्तरी हिंद महासागर और बंगाल की खाडी़ को प्रभावित करता है। इसका प्रभाव क्षेत्र अपेक्षाकृत मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल का तकरीबन 1000 किलोमीटर की परिधि के क्षेत्र के बराबर हो सकता है। 

इसमें ला नीना की भयावह स्थिति का बना रहना, पूर्वी हिंद महासागर का असामान्य रूप से गर्म होना, हिमालयी क्षेत्रों की पूर्व मानसूनी गर्मी और ग्लेशियरों के पिघलने की अहम भूमिका रहती है। असलियत में इस दौरान 35 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान ऊष्मा को और प्रेरित करता है, बढा़ता है। इससे कृषि प्रक्रियाएं तो प्रभावित होती ही हैं, इसके परिणामस्वरूप बौनापन, उर्वरता में कमी, गैर व्यवहारी पराग और अनाज की गुणवत्ता गहरे तक प्रभावित होकर कम हो जाती है। निष्कर्ष यह कि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए विश्वसनीयता और स्थिरता की दृष्टि से देश के मानसून पूर्वानुमान की बेहतर प्रणाली स्थापित करने की बेहद जरूरत है तभी इस दिशा में कुछ सार्थक बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)