गणतंत्र के 75 साल : बदहाल हैं पर्यावरण के हाल
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।
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आज हम अपने गणतंत्र के 75 साल पूरे कर चुके हैं। इन साढे़ सात दशकों में देश ने विभिन्न मोर्चों पर जहां चुनौतियों का डटकर सामना किया है, वहीं विकास के नित नये-नये कीर्तिमान भी स्थापित भी किए हैं । लेकिन इन सभी उपलब्धियां के बावजूद कुछ सवाल ऐसे हैं जो आज भी अनसुलझे हैं। असलियत यह है कि आज वे और भयावह रूप अख्तियार कर चुके हैं जिनके आगे हम बेबस दिखाई देते हैं। उसकी विकरालता ने मानव जीवन को ही संकट में डाल दिया है। पर्यावरण एक ऐसा ही विषय है, जिसके सामने सरकार के सारे प्रयास बेमानी साबित हो रहे हैं। वह सवाल चाहे जल प्रदूषण का हो, वायु प्रदूषण का हो, औद्योगिक प्रदूषण का हो, वाहनों का प्रदूषण हो, जीवनदायी नदियों की अविरलता का हो, उनके प्रदूषण का हो, हरित संपदा के ह्वास का हो, वृक्षों की विविधता के संरक्षण का हो, मृदा प्रदूषण का हो, वाहन से हो रहे प्रदूषण का हो, ओजोन के प्रदूषण का हो, ध्वनि प्रदूषण का हो, मानवीय, जैविक या रासायनिक कचरे के निष्पादन का हो, प्लास्टिक प्रदूषण का हो, या डिजीटल प्रदूषण का सवाल हो, उपवनों के संरक्षण का सवाल हो, आदि-आदि समस्याओं के निराकरण पर अंकुश लगा पाने में मिली विफलता ने प्राणी मात्र के जीवन को संकट में डाल दिया है। इससे पक्षियों की आबादी भी अछूती नहीं रही है। यह भी सच है कि यह सब प्रकृति के प्रतिशोध का नतीजा है जिसे हम भुगतने को विवश हैं। धरती पर दिन-ब-दिन गहराता जा रहा संकट इसका जीता-जागता सबूत है जिसमें जलवायु परिवर्तन का योगदान अहम है। इससे साल-दर-साल होते गर्म दिनों की संख्या, चरम मौसमी घटनाओं में बढ़ोतरी, तापमान में बढ़ोतरी के टूटे रिकार्ड, ला-नीना की आशंका के चलते प्राकृतिक आपदायें यथा-बेतहाशा बारिश या सूखे की भयावहता को नकारा नहीं जा सकता। राष्ट्रीय महासागरीय और वायुमंडलीय प्रशासन यानी एन ओ ए ए ने तो इसकी घोषणा ही कर दी है।
यह भी कटु सत्य है कि स्वच्छ पर्यावरण के बिना जीवन की कल्पना बेमानी है। इस पर विचार करना आवश्यक हो गया है कि आखिर हमने पर्यावरण जो हमारे जीवन का आधार है, उसे निहित स्वार्थ और भोगवाद की लालसा के चलते किस सीमा तक विषाक्त कर डाला है जिसकी भरपायी इस युग में तो असंभव प्रतीत होती है। पानी के मामले में हमारा देश दुनिया का सबसे समृद्ध देश है। इसके बावजूद जल संकट की गंभीरता बेहद चिंतनीय है। नीति आयोग की मानें तो देश की साठ फीसदी आबादी स्वच्छ पेयजल से वंचित है। 6.3 करोड़ ग्रामीणों को साफ पानी नसीब ही नहीं है। देश के तीन चौथाई घरों में पीने का साफ पानी तक उपलब्ध नहीं है। इसके पीछे देश में जलस्तर का लगातार गिरना, पानी की गुणवत्ता खराब होना और पानी के लिए पाइप लाइन न होने जैसी देशव्यापी समस्याएं मुख्यतः प्रमुख हैं। इस दिशा में 1980 के दशक में पर्यावरणविद जयंत बंधोपाध्याय ने सरकार का ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा था कि- 'जल की उपलब्धता और गुणवत्ता केन्द्रीय विषय रहेगी और भारत का भविष्य जल है, तेल नहीं। ' दुख है तब उनकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया लेकिन आज हर संवेदनशील व्यक्ति इस विषय की गंभीरता को जान-समझ चुका है। दरअसल यह संकट केवल पानी की कमी तक सीमित न होकर सभी क्षेत्रों यथा प्राकृतिक एवं कृत्रिम जलस्रोतों पर भी दिखाई दे रहा है। मौजूदा दौर में भूजल स्तर में भयावह स्तर तक पहुंच चुकी गिरावट जहां भयावह खतरे का संकेत है, वहीं पीने के साफ पानी की कमी के भीषण संकट की चेतावनी भी है।
गौरतलब है कि जब हम धरती के आकार, उस पर जैविक विविधता वाले पेड़-पौधों से छेड़छाड़ करते हैं, उस दशा में बारिश, जल प्रबंधन, जल उपलब्धता आदि सभी पर उसका व्यापक असर पड़ता है। भूजल का बढ़ता संकट उसके भयावह स्तर तक गिरने का अहम कारण उसका बेतहाशा दोहन है। अतः भूजल का दोहन उसकी प्राकृतिक भूमिका तथा अवांछित घटकों के सुरक्षित निष्पादन को समझकर करना बेहद जरूरी है जो उसका निरापद प्रबंधन है। लेकिन दुख है कि हमारे देश में ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है जिस पर गर्व किया जा सके। जबकि देश में 1960 के बाद से पानी की मांग दोगुना से भी ज्यादा हो गयी है। भूजल दोहन चरम पर होने का परिणाम है कि देश के उत्तरी गांगेय इलाके में भूजल खत्म होने के कगार पर है। नतीजा यह हुआ कि पहले से ज्यादा जिले सूखे की मार झेलने को विवश हुए और शहर-दर-शहर के नल सूखने लगे। अच्छे मानसून के अभाव के चलते अत्याधिक उपयोग से भूजल की मांग बढ़ने से जहां उसकी गुणवत्ता खराब हुयी, वहीं उसमें रेडियो एक्टिव पदार्थों और भारी धातुओं की मौजूदगी ने कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों से होने वाली मौतों का आंकड़ा भी सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता चला गया। यही नहीं भूजल में कमी के चलते पृथ्वी की धुरी 4.36 सेमी की दर से खिसक रही है जो खतरनाक संकेत है। इसके बावजूद हमने जल की मंहगी परियोजनाओं को प्रमुखता दी और मांग सापेक्ष दृष्टि रखने और जल के मितव्ययता के साथ उपयोग तथा भूजल रिचार्ज की कोई नीति बनाने पर कभी ध्यान ही नहीं दिया। हालात सबूत हैं कि आज ज्यादातर स्मार्ट सिटी का पानी पीने लायक नहीं है और हिमालयी शहर सहित देश के बड़े शहर, गांव-कस्बे तक पानी के संकट से जूझ रहे हैं। अमृत सरोवरों से कुछ आस बंधी थी लेकिन आजतक एक भी अमृत सरोवर के निर्माण पूरा न होने से वह आस भी टूट चुकी है। ऐसी स्थिति में कैसे सहेजेंगे बारिश के पानी की बूंद। उस स्थिति में जबकि नीति आयोग 2030 तक घटते भूजल स्तर के कारण बड़े खतरे की चेतावनी दे चुका है।
जहां तक नदियों के प्रदूषण मुक्ति का सवाल है। 2014 में राजग सरकार के सत्तासीन होने पर दावा किया गया था कि पुण्यदायिनी गंगा-यमुना सहित देश की 463 छोटी नदियां प्रदूषण मुक्त की जायेंगीं। गंगा-यमुना तो हजारों करोड़ खर्च करने के बाद भी आज अपनी दुर्दशा पर रो रही हैं। वे आज भी अपने ताड़नहार की बाट जोह रही हैं। दावे कुछ भी किए जायें हकीकत यह है कि वे आज पहले से भी बीस गुणा ज्यादा प्रदूषित हैं। जब गंगा-यमुना की यह हालत है तो देश की 461 नदियों की मुक्ति की आशा ही बेमानी है। ऐसा लगता है इस बाबत सरकारों पर सुप्रीम कोर्ट और एनजीटी भी दबाव बनाने में नाकाम रही हैं। प्राकृतिक, मानव जनित और रासायनिक रूपांतरण से सिंधु-गंगा का मैदानी इलाका यानी पंजाब से लेकर पश्चिम बंगाल तक के सात राज्यों की करीब 47 करोड़ आबादी एयरोसोल की परत जिसमें धूल, कोहरा, सल्फ़ेट, कालिख और ब्लैक कार्बन के कण शामिल हैं, के चलते खतरे में है।
वायु प्रदूषण भी इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन साबित हो रहा है। देश की राजधानी दिल्ली ने तो इसमें कीर्तिमान बनाया है। यहां की दमघोंटू हवा दिल, अस्थमा, फेफड़े, सांस के रोगियों के लिए जानलेवा साबित हो रही है। वायु प्रदूषण से जलती आंखों और चढ़ती सांसों से क्या बच्चे और क्या बूढ़े सभी बेहाल हैं। इससे बच्चों व गर्भवती महिलाओं में आटिज्म के खतरे के 64 फीसदी बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है। दिल में सूजन, छाती में जकड़न, खांसी, दमा, ब्रोंकाइटिस व त्वचा रोगियों की भरमार बनी रहती है। वायु प्रदूषण में कचरे के पहाडो़ं का योगदान सबसे ज्यादा खतरनाक है । इसमें वाहनों की बढ़ती तादाद पर अंकुश न लगना भी अहम कारण है। पर्यावरण में घुले प्लास्टिक के सूक्ष्मकण भोजन या पेय पदार्थों के जरिये त्वचा के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश कर स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं। इससे मानव शरीर की कोशिकाएँ तो प्रभावित होती ही हैं, रक्त प्रवाह में भी बाधा आती है। ओजोन का बढ़ता स्तर उष्णकटिबंधीय वनों की वृद्धि को रोक रहा है। वह बात दीगर है कि मांट्रियल में 1987 में इस पर अंकुश के लिए दुनिया के 46 देशों ने संधि की है लेकिन पूर्ववर्ती प्रयोगों का असर आज भी नगण्य दिखाई दे रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी के वर्तमान युग में डिजिटल निर्भरता डिजिटल प्रदूषण और ई-कचरे का कारण बन रही हैं। यह पर्यावरण संरक्षण की राह में बाधा पहुंचा रहा है। सबसे बड़ा खतरा वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में इसका योगदान 4 फीसदी से भी ज्यादा होना है। वैज्ञानिक अध्ययन खुलासा करते हैं कि ध्वनि प्रदूषण इंसानों की उम्र तो घटा ही रहा है, महिलाओं में बांझपन के खतरे को भी बढा़ रहा है। यही नहीं ज्यादा समय तक पी एम 2.5 प्रदूषक कणों के संपर्क में रहने से नपुंसकता का खतरा बढ़ जाता है।
खाना पकाने वाले उद्योगों में इस्तेमाल होने वाली तरलीकृत प्राकृतिक गैस एल एन जी तो पर्यावरण के लिए कोयले से भी अधिक खतरनाक है। अध्ययन सबूत हैं कि 20 साल के दौरान कोयले की तुलना में यह लगभग एक तिहाई से अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करती है। जहां तक पक्षियों का सवाल है,वे पर्यावरण के साथ-साथ मानसिक शांति में भी अहम साबित हुए हैं। अमेरिका के मिशिगन में हुआ अध्ययन प्रमाण है कि पक्षियों की चहचहाहट मात्र से मानसिक स्वास्थ्य बेहतर होता है और जहां पक्षियों की बसावट कम होती है, वहां मानसिक स्वास्थ्य की समस्या सर्वाधिक होती है। यही नहीं जैव विविधता से भी मानसिक स्वास्थ्य में बेहतरी आती है लेकिन जलवायु परिवर्तन से न केवल पक्षियों की आबादी प्रभावित हो रही है बल्कि जैव विविधता का भी बड़े पैमाने पर ह्वास हो रहा है। ब्रिटेन का अध्ययन प्रमाण है कि अधिकाधिक मात्रा में अन्न उपजाने की लालसा के चलते उर्वरकों के इस्तेमाल से विभिन्न प्रजातियों के करोडो़ं पक्षी मौत के मुंह में जा रहे हैं। वहीं कनाडा के कार्टन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट आफ इनवायरमेंटल एण्ड इंटरडिसिप्लीनरी साइंसेज के वैज्ञानिक कहते हैं कि जिस तरह जैव विविधता को समाप्त किये जाने की साजिश की जा रही है, वह पर्यावरण के लिए तो विनाशकारी है ही, इससे दिमाग से सम्बन्धित विकार भी बढेंगे। असलियत में पारिस्थितिकी संतुलन और पर्यावरणीय स्थिरता के लिए पेड़-पौधों का पर्याप्त मात्रा में होना अति आवश्यक है। लेकिन खेद है कि मानवीय स्वार्थ के चलते इस दिशा में सार्थक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। वृक्षारोपण अभियान मात्र आंकड़ों की बाजीगरी के अलावा और कुछ नहीं है।
यह भी कम दुखदायी नहीं है कि उर्वरकों की अधिकता ने हमारी जमीन की उर्वरा शक्ति को खत्म करने में अहम भूमिका निबाही है और जलवायु परिवर्तन के चलते सालाना दस करोड़ जमीन बंजर हो रही है। इसमें समूची दुनिया में भूमि के निम्नीकरण की मुख्य वजह मानवीय गतिविधियां, वनों की अंधाधुंध कटाई और जलवायु खतरों में दिन-ब-दिन तेज होना है। संयुक्त राष्ट्र की सतत विकास लक्ष्य की रिपोर्ट के अनुसार यदि जैव विविधता की हो रही क्षति और जलवायु खतरों से निपटने के ठोस उपाय नहीं किये गये तो 2030 तक दुनिया में 1.5 अरब हैक्टेयर जमीन बंजर हो जायेगी। यह सब पर्यावरण विनाश के प्रतीक तो हैं ही, ज्वलंत प्रमाण भी हैं। क्लाइमेट एनालिटिक्स का एक नया अध्ययन आशा की एक नयी किरण दिखा रहा है। उसके अनुसार यदि 2030 तक हर साल 1.5 टेरावाट सौर और पवन ऊर्जा का उत्पादन किया जाये तो इससे सदी के अंततक तापमान बढ़ोतरी को डेढ़ डिग्री तक सीमित रखने में मदद मिल सकती है। यह तभी संभव है जबकि सौर और पवन उर्जा के उत्पादन की दर में मौजूदा दर में पांच गुना तेजी से इजाफा किया जाये।
अंत में निष्कर्ष यह है कि अगर हमें यह सुनिश्चित करना है कि यह प्रकृति एक संसाधन के रूप में, स्रोत के रूप में, मित्र के रूप में हमारी आने वाली पीढि़यों को उपलब्ध रहे, तो हमें अपनी संतति और आने वाली पीढि़यों के लिए अपनी जिम्मेदारी का अहसास करते हुए प्रकृति से मेलजोल और प्यार करना सीखना होगा। उसी दशा में पर्यावरण संरक्षण की आशा की जा सकती है। इसके लिए प्रशासन के साथ-साथ समाज को भी अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आना होगा। देश की सुप्रीम अदालत भी मानती है कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बेहद जरुरी है। देश की प्रगति तभी संभव है जबकि विकास के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण को भी प्रमुखता दी जाये। सबके सच्चे प्रयास से ही पर्यावरण बचेगा, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।
जहां तक पर्यावरण नीति का सवाल है, हमारे यहां वह शुरूआत से ही सवालों के घेरे में है। जबकि जरूरी यह है कि पर्यावरण नीति ऐसी होनी चाहिए जो जल, जंगल, जमीन की एकीकृत नीति को प्रदर्शित करती हो। लेकिन यहां ऐसा कतई दिखाई नहीं देता। हकीकत यह है कि हमारे देश में जल, जंगल, जमीन और खनन की अलग-अलग नीतियां है। इसके चलते ही भारत सरकार ने पर्यावरण नीति- 2006 भी बनायी। उसमें कहा गया है कि स्वस्थ पर्यावरण के लिए कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 33 प्रतिशत क्षेत्र में वनावरण होना चाहिए। लेकिन हमारे देश में आज भी 23 प्रतिशत से अधिक वनावरण नहीं है। दूसरी ओर भारतीय हिमालयी राज्यों में लगभग 45 प्रतिशत से अधिक वनक्षेत्र है। लेकिन जहां वनों की अधिकता दिखाई देती है वहां आग का प्रकोप भी बहुत अधिक है जिसके कारण जैव विविधता को हर साल भीषण नुकसान उठाना पड़ रहा है।विकास कार्यों के लिए वनों के कटान को संयमित करने के लिए पर्यावरण प्रभाव के आकलन का प्रावधान है। गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने 2023 में वन नीति में नया संशोधन करके पर्यावरण प्रभाव के आकलन की शर्तों को बहुत कमजोर कर दिया है। यही नहीं बॉर्डर एरिया डेवलपमेंट प्रोग्राम के नाम पर पर्यावरण प्रभाव आकलन की जरूरतों को ही खत्म कर दिया गया है। उसके कारण हिमालय के ऊंचे से ऊंचे क्षेत्र में जहां ग्लेशियर और बचे- खुचे वन हैं, वहां विकास के नाम पर बड़े पैमाने पर वनों की हजामत की जा रही है। यह पूरे देश की स्थिति है। आल वैदर रोड व उत्तराखंड को पर्यटन का केन्द्र बनाने की ख़ातिर लाखों देवदार के पेड़ों को विकास यज्ञ की समिधा बना दिया गया है।यह सिलसिला आज भी जारी है जिसका विरोध करना भी आसान नहीं है। यह समूचे देश की स्थिति है। यहां यह जान लेना जरूरी है कि हमारे यहां जिस तरह पर्यावरण नीति बनायी गयी है, उसके कई सारे प्रावधानों का विवरण जल, वन और जमीन की नीतियों में भी मिलता है जहां हर रोज कुछ न कुछ नया संशोधन करके एक साजिश के तहत बहुत आसानी से हरियाली को समाप्त किया जा रहा है। उसी का परिणाम है कि उसके कारण ही पर्यावरण नीति के विषय पर राज्य और केंद्र की सरकारें विशेष कदम नहीं उठा पाती हैं। पर्यावरण नीति और वन अधिकार कानून- 2006 को बनाना बहुत अच्छा संदेश था लेकिन इन दोनों कानून को क्रियान्वित करने में बहुत निराशा सामने आती है।हमारे देश में पर्यावरण जागरूकता के रूप में भी अधिकतर वनों के संरक्षण पर ही चर्चा होती है।लेकिन वनों पर निर्भर जीवधारी, जड़ी बूटियां, छोटी-बड़ी वनस्पतियों का जो समूह है, उसको अलग-अलग रूपों में प्रस्तुत किया जाता है। यह भी कह सकते हैं कि उसे अलग-अलग वस्तुओं के रूप में लाया गया है तो कुछ गलत नही होगा। पर्यावरण नीति में कहीं न कहीं जल, जंगल, जमीन, खनन के विषय पर अलग-अलग विवरण अवश्य है लेकिन जिस तरह से उसे सभी प्राकृतिक संसाधनों की नीति का एक एकीकृत दस्तावेज होना चाहिए था, वह भावना कहीं दिखाई नहीं देती है। इसलिए इन मुद्दों पर आगे विचार की आवश्यकता है क्योंकि प्राकृतिक संसाधन- जल, जंगल, जमीन को पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में ही रखने की जरूरत है। इस पर आगे विचार करने के लिए पर्यावरण समूह को आगे आना पड़ेगा तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)