बाड़ खेत नै खाय, राम भरोसे राजिया : वेदव्यास

विश्व मातृभाषा दिवस विशेष

लेखक : वेदव्यास

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं

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हर बार राजस्थान विधानसभा के नव निर्वाचित सदस्यों की शपथ ग्रहण के समय जब कुछ विधायक राजस्थानी भाषा में अपनी शपथ लेने का अनुरोध आसन से करते हैं तो उन्हें इसलिए मना कर दिया जाता है क्योंकि राजस्थानी भाषा की संविधान की आठवीं अनुसूचि में मान्यता नहीं है। पहले अनुरोध और फिर अस्वीकार हर बार विधानसभा के पांच साल गठन पर कुछ विधायकों के साथ हम कोई 50 साल से देख रहे हैं क्योंकि न तो राजस्थानी के पास नौ मन तेल है और न ही उसकी राधा नाच रही है। वस्तुस्थिति अब ये बन गई है कि राजस्थानी भाषा की मान्यता और सम्मान का सवाल प्रदेश की आम जनता और सरकार के लिए कहीं और किसी भी रूप में अनिवार्य-चिंता का विषय नहीं हैं। बताइए, अब राजस्थानी भाषा के बिना किसी का काम पूरा नहीं हो रहा है?

राजस्थानी भाषा का ये पराभव इसलिए भी गहरा बन गया है कि अब राजस्थान में भाषा-संस्कृति का सवाल व्यापक राजनीति को किसी भी तरह प्रभावित नहीं करता और केवल सौ-पांचसौं लेखक-साहित्यकार अब अपनी पहचान के लिए भाषा की मान्यता का प्रश्न यदा-कदा इधर-उधर उठाते रहते हैं। राजस्थान का सर्व समाज इस सवाल पर जहां पूरी तरह मौन है वहां राजनेता आश्वासनों की खीर बांटकर राजस्थानी के समर्थकों को लगातार झूठ-सच करते आ रहे हैं। आजादी के बाद से कई पीढ़ियां खप गई हैं लेकिन राजस्थानी को संविधान की मान्यता आज कहीं दूर पास मिलती नजर नहीं आ रही है।

राजस्थानी के लिए अब तक प्रदेश स्तर पर ईमानदार भूमिका केवल कांग्रेस सरकारों ने निभाई है तथा पूर्व मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर और अशोक गहलोत सदैव इसके लिए याद किए जाएंगे। जहां शिवचरण माथुर ने 1983 में राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी (बीकानेर) की स्थापना की वहां अशोक गहलोत ने 2003 में विधानसभा से राजस्थानी भाषा को संविधान की मान्यता का प्रस्ताव पारित करवा कर राजस्थान का गौरव बढ़ाया।

मैं भी इस राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के मान-सम्मान और विकास का 1970 से ही एक विनम्र सैनिक हूं और राजस्थानी समाज के उज्जवल और अंधेरे पक्ष को जानते हुए इसीलिए एक बार फिर कहना चाहता हूं कि राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति का दो हजार साल का सृजन और संस्कृति का इतिहास जहां हमारी राष्ट्रीय प्रेरणा का आधार है तथा आन, बान और शान का प्रतीक है लेकिन आज दुर्भाग्य ये है कि देश के हिंदी भाषी 7 राज्यों की राजनीति ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के उत्साह और उन्माद में इन राज्यों की आंचलिक भाषाओं (राजस्थानी, भोजपुरी, बृज छत्तीसगढ़, मैथली, बुंदेलखंडी, कुमायूनी डोगरी आदि) को महत्वहीन और दोयम दर्जे की भाषा बना दिया है। ये सभी हिंदी भाषा 7 राज्य आज भी इसी हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तानी की राजनीति में बुरी तरह उलझे हुए हैं तथा इसीलिए अब उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल, छत्तीसगढ़ आदि में वहां कि प्राचीन भाषा-संस्कृति के सवाल भी गौण हो गए हैं। राजस्थान को हिंदी प्रदेश मानकर इसीलिए अब राजस्थानी भाषा प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय शिक्षा तक नदारद है ताकि न बांस रहे और न बांसुरी बजे।

जयपुर में 1981 के राजस्थानी सम्मेलन का आयोजन भी मेरा ही प्रयास था लेकिन अब राजस्थानी भाषा-संस्कृति के नाम पर कुछ अकादमियां ही शेष हैं और प्रदेश का नया सृजनशील समाज इसके साधन, संसाधन तथा सम्मान पुरस्कार की महाभारत में ही जुटा रहता है। इसी के साथ केंद्रीय साहित्य अकादमी में 22 संविधान की मान्यता प्राप्त भाषाओं के साथ चार भाषाओं को केवल साहित्यक भाषा का दर्जा देकर राजस्थानी भाषा का पुरस्कार 1974 से दिया जा रहा है तथा इस पर भी पिछले 51 साल से कुछ लोगों का कब्जा है। कहने और समझने की बात यही है कि राजस्थानी भाषा के लोक महत्व पर अब प्रदेश में कोई जागरण, अभियान और आंदोलन तक नहीं है जो भाषा को जन जीवन की प्रासंगिकता से जोड़े।

आपको ये कहना भी मेरे लिए जरूरी है कि आज माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में सभी राजकीय विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में राजस्थानी भाषा के विद्यार्थी नहीं हैं तो आकाशवाणी और दूरदर्शन से निजी चैनलों से राजस्थानी भाषा के समाचार प्रसारण भी भाषा की मजाक बन गए हैं। ये ही हाल राजस्थानी फिल्मों का है और राजस्थान लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं का है। परिणाम आज ये है कि राजस्थानी भाषा का अब कोई धणी धोरी (नेतृत्व) नहीं है और राज, समाज और समय की राजनीति के सभी मोर्चे और चौपाल सरकार की कृपा पर निर्भर है। 

आप आश्चर्य करेंगे कि बीकानेर की राजस्थानी अकादमी आज भी भाजपा के राज में बंद पड़ी है वहां 2003 का विधानसभा प्रस्ताव भी केंद्र सरकार के चरणों में ठोकरें खा रहा है। न कोई राजस्थानी के लिए रोने वाला है और न कोई सवाल पूछने वाला है? राजस्थानी के जिन पैरोकारों को पिछले 76 वर्ष से जो बड़ी-बड़ी उम्मीदें थी वे आज राजस्थानी को संविधान की मान्यता का इंतजार भी सरकार से निराश हैं।

इस तरह आप अनुमान लगा सकते हैं कि राजस्थानी की नई पीढ़ी क्या ताकत लेकर मान्यता का आंदोलन करे और वर्तमान राजनीति को भाषा संस्कृति के सवाल से जोड़े और जगाएं। यदि हम ऐसा नहीं कर सकते तो फिर उचित होगा की केंद्र सरकार और राज्य सरकार के श्रीचरणों में धोक लगाने का पुराना हरिकीर्तन जारी रखा जाए। क्योंकि इंदिरा गांधी से लेकर अब तक कांग्रेस ने ही राजस्थानी के प्रति आदर और उदारता दिखाई है जबकि जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की राजस्थानी को मान्यता देने में कोई दिलचस्पी नहीं है। आपको याद होगा प्रदेश में पहला राजस्थान साहित्य उत्सव 2023 में जोधपुर में हुआ था। इसके साथ ही राजस्थानी रत्न का सम्मान भी कांग्रेस सरकार के द्वारा ही शुरू किया गया था जो इन दिनों बंद पड़ा है। अतः राजस्थानी को मान सम्मान दिलाने के लिए इसे प्रदेश की जनता के गौरव के साथ जोड़ना बहुत जरूरी है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)