प्रेम और आस्था के प्रतीक पर्व होली का महत्व : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, पर्यावरणविद एवं इंडियन ट्राइबल सोसाइटीज कम्यूनिकेशन सिस्टम रिसर्च सेंटर के उपाध्यक्ष हैं।

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होली का पर्व सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से तो महत्वपूर्ण है ही, वह समाज को एकजुट कर लोगों के बीच भाईचारा बढ़ाने वाला पर्व भी है। वैसे तो हमारा देश त्योहारों का देश है लेकिन हकीकत यह भी है कि हमारा राष्ट्रीय पर्व होली को त्योहारों का त्योहार कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। दर असल प्रेम और उल्लास का यह पर्व सभी के मन में उत्साह, उमंग का संचार करता है। विविधताओं से भरे हमारे देश में होली का यह पर्व वह चाहे मथुरा हो, वृन्दावन हो, गोकुल हो, बरसाना हो, नंदगांव हो, की तो समूची दुनिया में विलक्षण ख्याति तो है ही, जिसकी वजह से ही यहां समूची दुनिया से लोग होली खेलने आते हैं और यहां आकर भगवान कृष्ण व राधारानी के मंदिरों में पूजा-अर्चना कर होली के हुड़दंग में शामिल हो, लट्ठमार होली का आनंद ले गर्व की अनुभूति करते हैं। यहां की होली की विशेषता को कवियों ने अपने विशिष्ट अंदाज में वर्णन किया है। 

पद्माकर के शब्दों में-- ' ये नंदगांव तो आये यहां,  उन आह सुता कौन हुं ग्वाल की। दीठि से दीठि लगी इनके, उनकी लगी मूठि सी मुठि गुलाल की।' कबीर ने इस तरह होली का वर्णन किया है--' ऋतु फाल्गुन नियरनी,  कोई पिया से मिलावे। ऋतु को रूप कहां लग वरन, रूपहि महि समनि। जो रंग रंगे सकल छवि छाके, तन मन सभी भुलानी। मो मन जाने यहि रे फाग है, यह कुछ कुछ अकह कहानी। कहत कबीर सुनो भई साधो, यह गत बिरले जानी। ' कहा जाता है कि वाराणसी की होली की अपनी अलग ही विशेषता है। सम्राट हर्षवर्धन के काल में यहां होलिकोत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता था। भारतेन्दु हरिश्चंद के शब्दों में--' गंग भंग दो बहनें हैं, सदा रहित शिव संग, मुरदा तारन गंग है, ज़िंदा तारन भंग। ' इसी तरह लखनऊ में नबावों की होली, पंजाब, हिमाचल, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, मणिपुर और गुजरात की होली का वर्णन शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। 

जहां तक होली की पौराणिकता और ऐतिहासिकता का सवाल है,  वैर, अनास्था, दुर्भावना और घृणा की प्रतीक तथा वरदानी होलिका कि वह आग में भस्म नहीं होगी, का दहन और प्रभु श्री हरि विष्णु में अटूट आस्था, प्रेम के प्रतीक भक्त प्रह्लाद का अक्षुण्ण रहना या यों कहें कि उनकी विजय के उल्लास में मनाया जाने वाला होली का पर्व हिन्दू धर्म का सबसे प्राचीन,प्रतिष्ठित और विशेष पर्व भी है ।  यह पर्व वर्तमान में अकेले भारत में ही नहीं,  कमोबेश समूचे विश्व में मनाया जाने वाला प्रमुख उत्सव है। इस अवसर पर आपसी सौहार्द प्रदर्शित करने के उद्देश्य से एक-दूसरे पर अबीर-गुलाल लगाते हैं। साथ ही यह पर्व वसंत ऋतु के आगमन के उल्लास और आनंद का पर्व भी है। इसी के आलोक में हर्षातिरेक में इस पर्व को लोग ऊंच-नीच, छोटा-बडा़, जात-पांत, छुआ-छूत आदि अपने सभी मतभेद भुलाकर, एक-दूसरे से गले मिलकर, उसे गुलाल, टेसू के फूल, केसर तथा चंदन आदि के मिश्रित रंगों से सराबोर कर एक-दूसरे से हास-परिहास करते हैं। लोकगीत, नृत्य और ढोल-नगाडो़ं, झांझ, मृदंग, मंजीरे, ढोलक, ढपली के साथ नाचते और फाग गाकर लोग अपनी खुशी का इजहार करते हैं। इस तरह हवा में उड़ते अबीर-गुलाल को देख प्रकृति का कण-कण झूम उठता है। असलियत में होली का यह पर्व सामाजिक एकता का प्रतीक पर्व है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता। 

इसलिए इस पर्व की महत्ता एवं विशिष्टता को बनाये रखने हेतु राग-रंग से परे होकर प्राकृतिक रंगों से, टेसू के फूलों से, फूलों से, चमेली, गुलाब और सूरजमुखी की पंखुड़ियों से तैयार रंगों से होली खेलें। ये रंग कुदरती तौर पर जहां सुगंधित होते हैं, वहीं त्वचा पर भी दुष्प्रभाव नहीं  डालते हैं। फिर ये रंग वातावरण को और प्रभावी तथा आनंददायक भी बना देते हैं जबकि रासायनिक तत्वों से बने रंग जहां त्वचा व आंखों के लिए हानिकारक होते हैं एवं अनेकानेक बीमारियों के कारण भी बनते हैं। इस अवसर पर यह सदैव ध्यान देने वाली बात है कि होली प्रेम, सौहार्द व समरसता का पर्व है न कि वैमनस्य, कटुता या आपसी घृणा के प्रदर्शन का। इसलिए रंगों का प्रयोग दूसरे की भावना का सम्मान करते हुए ही करें। यही होली के पावन एवं पुनीत पर्व का पाथेय व संदेश भी है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)