22 अप्रैल, पृथ्वी दिवस पर विशेष
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।
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आज धरती विनाश के मुहाने पर है। इसका जीता जागता सबूत दुनिया की तकरीब 40 फीसदी से ज्यादा का बंजर हो जाना है। जबकि भारत में लगभग एक तिहाई से ज्यादा जमीन शुष्क हुयी है जहां खेती नहीं हो सकती। संयुक्त राष्ट्र की सांइस पालिसी इंटरफ़ेस रिपोर्ट ने इसका खुलासा किया है। हालात गवाह हैं कि पिछले तीस सालों में पृथ्वी की 77 फीसदी से ज्यादा जमीन को अधिक शुष्क जलवायु का सामना करना पडा़ है। रिपोर्ट के मुताबिक 1990 से 2015 के बीच बढ़ती शुष्कता के कारण अफ्रीका को अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 12 फीसदी नुकसान हुआ है। अगले पांच वर्षों में अफ्रीका को अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 16 फीसदी और एशिया को लगभग सात फीसदी का नुकसान होगा। हकीकत यह है कि जलवायु परिवर्तन और भीषण गर्मी जमीन को हमेशा के लिए बंजर कर सकती है। इस बात की प्रबल आशंका है कि इसके चलते वर्ष 2050 तक दुनिया की ज्यादातर खेती बुरी तरह प्रभावित हो जायेगी। इसका दुष्प्रभाव यूरोप के 96 फीसदी, पश्चिमी अमेरिका, ब्राजील, एशिया और मध्य अफ्रीका पर सर्वाधिक होगा। यदि इस मामले में देशों की सही मायने में शुष्क जमीन के आंकडे़ प्रतिशत में लिए जायें तो सूडान और तंजानिया को सर्वाधिक नुकसान होगा। यही नहीं चीन भी अपने कुल क्षेत्रफल का सर्वाधिक हिस्सा शुष्क जमीन के रूप में बदल जायेगा। यदि हालात की गंभीरता पर नजर डालें तो बीते तीन दशकों में शुष्क भूमि पर रहने वाले लोगों की तादाद दोगुणी होकर 230 करोड़ तक पहुंच गयी है। यही हालत रही तो 2100 तक यह तादाद करीब 500 करोड़ का आंकड़ा पार कर जायेगा। यह इस बात का सबूत है कि ऐसे हालात में रहने वाले लोगों की जिंदगी और रोजी-रोटी पर आने वाला संकट और ज्यादा गंभीर व भयावह होगा। गौरतलब है कि एशिया और अफ्रीका में दुनिया की शुष्क जमीन पर रहने वाली करीब आधी आबादी मौजूद है जबकि शुष्क इलाकों में आबादी के घनत्व के मामले में कैलीफोर्निया, मिस्र, पूर्वी और उत्तरी पाकिस्तान,उत्तर पूर्व चीन और भारत का काफी बड़ा इलाका शामिल है। इसमें दो राय नहीं है कि कभी-कभी कम बारिश होने पर सूखा पड़ जाता है लेकिन शुष्कता इससे बिलकुल अलग है। और यह कि यह स्थायी और कठोर बदलाव है। असलियत यह है कि जब किसी इलाका की जलवायु शुष्क हो जाती है तब उसके पहले की स्थिति में लौटने की संभावना बिलकुल खत्म हो जाती है। यह स्थिति दुनिया के बहुत बड़े इलाका पर अपना असर डाल रही है। इसके चलते वहां पहले की तरह मौसम की संभावना न के बराबर रहती है और वहां किसी भी तरह की उपज की उम्मीद बेमानी हो जाती है।
दुनिया के अध्ययन और शोध इस तथ्य के जीते-जागते सबूत हैं कि धरती का आंतरिक कोर का आकार तेजी से बदल रहा है। इसमें मानवीय कारगुजारियों के चलते हुयी कुदरती गतिविधियों की अहम भूमिका है। इस नये शोध- अध्ययन से इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि धरती के आंतरिक कोर की सतह पर महत्वपूर्ण संरचनात्मक बदलाव हो रहे हैं। साउथर्न कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के इस शोध जो नेचर जियो साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है, से यह भी खुलासा हुआ है कि धरती के आंतरिक कोर की गतिविधियां किस तरह धरती के दिनों की लम्बाई को प्रभावित कर रही हैं। यह अध्ययन संकेत दे रहा है कि धरती की आंतरिक कोर की ऊपरी सतह चिपचिपी विकृति से गुजर रही है जिससे इसके आकार में धीरे-धीरे क्रमिक बदलाव हो रहा है और इससे इसके आकार में बड़े बदलाव की प्रबल संभावना है। इसके परिणामस्वरूप इसकी सीमाएं स्थानांतरित हो सकती हैं। इसका मूल कारण धरती की आंतरिक और बाहरी कोर के बीच होने वाली परस्पर क्रियाएं हैं। दर असल धरती की सतह से लगभग 4,500 किलोमीटर नीचे स्थित आंतरिक कोर पिघले हुए बाहरी कोर से घिरा हुआ है जो गुरुत्वाकर्षण के कारण संतुलित रहता है जिसमें अब बदलाव हो रहा है। यह खतरनाक स्थिति का संकेत है। यह भी कि अब ग्लोबल वार्मिंग केवल पर्यावरण और सेहत के लिए ही खतरा नहीं रह गयी है। यदि अब धरती चार डिग्री सेल्सियस गर्म होती है तो दुनिया को 40 फीसदी गरीबी में बढ़ोतरी का सामना करना होगा। यह लोगों की व्यक्तिगत संपत्ति के लिए भी बड़ा खतरा है। विज्ञान पत्रिका इनवायरमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित यूनिवर्सिटी आफ न्यू साउथ वेल्स आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों के शोध में दावा किया गया है कि यदि वैश्विक तापमान में चार डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी होती है तो व्यक्ति की संपत्ति में चालीस फीसदी तक की गिरावट आ जायेगी। यह पहले के अनुमानों की तुलना में चार गुणा ज्यादा नुकसान है। इसकी मार से ठंडे देश भी नहीं बच सकेंगे। यह स्थिति तब है जबकि बीते तीन दशकों में धरती की तीन चौथाई जमीन शुष्क हो चुकी है।
जहां तक कार्बन उत्सर्जन का सवाल है, यदि 1995 से 2019 के बीच के 25 वर्षों का जायजा लें तो पता चलता है कि जीवाश्म कार्बन और इस्तेमाल की जा रही व फैंकीं जा चुकी मानव निर्मित वस्तुओं यानी 'टैक्नोस्फीयर'से 2019 में दुनिया में 93 फीसदी कार्बन उत्सर्जन हुआ। इससे टैक्नोस्फीयर से मौजूद कार्बन से ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन बढ़ने की काफी आशंका है। बीते इन 25 वर्षों में 8.4 अरब टन जीवाश्म कार्बन जमा हुआ जिसमें हर साल लगभग 0.4 अरब टन की बढ़ोतरी हो रही है।
हकीकत यह है कि हमने पृथ्वी पर मानव निर्मित चीजों में प्राकृतिक दुनिया में मौजूद कार्बन की तुलना में अधिक कार्बन जमा कर लिया है लेकिन हम इस कारण को नजरंदाज कर देते हैं जिससे कार्बन की मात्रा दिन-ब-दिन बढ़ती जाती है।
यही वह अहम वजह है कि यू एन महासचिव एंटोनियो गुटारेस को यह कहना पड़ रहा है कि अब हर मोर्चे पर,हर ओर तेजी से कदम उठाने की जरूरत है क्योंकि आज धरती एक बडे़ संकट के मुहाने पर खडी़ है। यहां सबसे बडा़ सवाल यह है कि आखिर कैसे बचेगी हमारी धरती। क्योंकि धरती को बचाने के सात उपाय तो नाकाम हो गये हैं। इसके चलते समूची दुनिया के लोगों की सेहत और असंख्य प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है। इन सात उपायों में पहला है पृथ्वी का तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ने से रोकना, दूसरा कार्यात्मक अखंडता, तीसरा सतह के जलस्तर का उपयोग, चौथा भूजल स्तर घटने से रोकना, पांचवां नाइट्रोजन का सीमित उपयोग, छठा फास्फोरस का सीमित उपयोग और सातवां ऐरोसोल शामिल है। शोधपत्र की मानें तो दुनिया की लगभग 52 फीसदी भूमि पर अतिक्रमण करके दो या उससे अधिक उपायों का उल्लंघन किया जा चुका है। परिणामस्वरूप दुनिया की कुल आबादी का 86 फीसदी हिस्सा प्रभावित हुआ है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि भारत सहित दुनिया के कुछ हिस्से, यूरोप और अफ्रीका के कुछ हिस्सों के साथ-साथ हिमालय का तलहटी वाला क्षेत्र इन उपायों के उल्लंघन के फलस्वरूप हाटस्पाट बन गये हैं। दरअसल वैश्विक स्तर पर जलवायु, जीव मंडल, ताजे पानी, पोषक तत्व और वायु प्रदूषण पृथ्वी के प्रमुख घटक वायु मंडल, जलमंडल, भूमंडल, जीव मंडल, क्रायोस्फीयर और उनकी आपस में जुडी़ प्रक्रियाओं कार्बन, पानी और पोषक चक्र पर पूरी तरह निर्भर करते हैं। इनको मानवीय गतिविधियों से सबसे ज्यादा खतरा है। ये भविष्य के विकास को सबसे ज्यादा प्रभावित कर सकते हैं।
इस बारे में डब्ल्यूएमओ के महासचिव प्रो पेटेरी तालस कहते हैं कि जैसे -जैसे ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है, वैसे -वैसे जलवायु में परिवर्तन तेजी पकड़ रहा है। असलियत में दुनियाभर में अधिकांश आबादी मौसम और जलवायु घटनाओं से गंभीर रूप से प्रभावित हो रही है। सबसे बड़ी बात यह कि औसत वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को लक्ष्य के भीतर रोकने के लिए 2019 की तुलना में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2035 तक 60 फीसदी कम करना होगा। आज के हालात में यह बेहद जरूरी है कि हम जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल पर तत्काल रोक लगावें। अमीर देशों को तो 2030 तक और गरीब देशों को 2040 तक इनका इस्तेमाल पूरी तरह खत्म करना होगा। विकसित देशों को 2035 तक कार्बन मुक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य पूरा करना होगा। यही नहीं गैस संचालित पावर प्लांट भी पूरी तरह बंद करने होंगे। आज दुनिया के 3.3 से लेकर 3.6 अरब लोगों पर जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा खतरा मंडरा रहा है। इससे बाढ़, सूखा और दूसरी आपदाओं से ऐसे लोगों की जान जाने का खतरा 15 गुणा और बढ़ जाता है। शोध और अध्ययन सबूत हैं कि अभी तक छह बार धरती का विनाश हो चुका है। अब धरती एक बार फिर सामूहिक विनाश की ओर बढ़ रही है। इसलिए समय की मांग है कि हम अपनी जीवन शैली में बदलाव लाएं, प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करें, सुविधावाद को तिलांजलि दे बढ़ते प्रदूषण पर अंकुश लगाएं अन्यथा मानव सभ्यता बची रह पायेगी, इसकी आशा बेमानी होगी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)